मार्च माह की प्रतियोगिता की नौवीं कविता एम वर्मा की है। एम वर्मा लम्बे समय से हिन्द-युग्म पर सक्रिय हैं और फरवरी 2010 का यूनिकवि सम्मान पा चुके हैं।
पुरस्कृत कविताः सफर जो अभी बाकी है
नीम अन्धेरे
जागा
आँख मलते-मलते
भागा
रक्त पिपासु
काली लपलपाती जीभ-सी
सड़क
वह भागता रहा
फिर भी
बेधड़क
गुजरा वह
कभी अन्धेरे सुरंग से
टकराया फिर
किसी दबंग से
गंतव्य क्या है?
मंतव्य क्या है?
किसी सवाल का जवाब नहीं
आँखों में कोई ख्वाब नहीं
समुन्दर की तलहटी खंगाला
खो गया जब भीड़ में
खुद की उँगली पकड़
खुद ही को निकाला
सिक्के उछालकर
खरीदा खुद को
कभी खुद को
सिक्के-सा उछाला
तय नहीं
क्या किस्सा है
भीड़ उसके अन्दर है
या वह भीड़ का हिस्सा है
सूरज अस्ताचल को है
अब वह लौटेगा
दरवाजे से बात करेगा
फिर अन्दर हो लेगा
कुछ खा-पीकर
कुछ देर में सो लेगा
वह सूरज के निकलने का
सपना देखेगा
सफर जो अभी बाकी है
पुरस्कार- विचार और संस्कृति की मासिक पत्रिका 'समयांतर' की ओर से पुस्तक/पुस्तकें।
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6 कविताप्रेमियों का कहना है :
सूरज अस्ताचल को है
अब वह लौटेगा
दरवाजे से बात करेगा
फिर अन्दर हो लेगा
कुछ खा-पीकर
कुछ देर में सो लेगा
वह सूरज के निकलने का
सपना देखेगा
सफर जो अभी बाकी है
एक अच्छी कविता के लिए वर्मा जी को बहुत बहुत बधाइ धन्यवाद
विमल कुमार हेडा
तय नहीं
क्या किस्सा है
भीड़ उसके अन्दर है
या वह भीड़ का हिस्सा है
सुन्दर बिम्बों से लैस कविता.
वह सूरज के निकलने का
सपना देखेगा
सफर जो अभी बाकी है
badhiya vimb... bahut urja deti kavita
वर्मा जी,
आपने यह जो कविता लिखी है...बहुत अच्छी है... पढ़ते-पढ़ते कई कथाये-कवितायेँ याद आती रहीं... मनुष्य के जीवन का संघर्ष, उसका अकेलापन और उसकी आशाएं सब कुछ कह गए इस रचना में...
अत्यंत प्रभावशाली...
वह सूरज के निकलने का
सपना देखेगा
सफर जो अभी बाकी है
बहुत सकारात्मक........विमल जी बधाई
वर्मा जी की यह कविता हमारे जैसे अनगिनत लोगों का सच बयाँ करती है..जो कस्बों-शहरों की भीड़ भरी व्यस्त सड़कों गलियों मे खोये रहते हैं..और अंतिम पंक्तियों की सकारात्मकता आश्वत करने वाली है
वह सूरज के निकलने का
सपना देखेगा
सफर जो अभी बाकी है
जिंदगी की लौ यही सपना तो जलाये रखता है..
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