पहनी
मोची से सिलवाई चप्पल
कि दे सके
तेरे पैरों को जूते का आराम
फटी कमीज़ तो चकती लगा ली
ताकि शर्ट तुम्हारी सिल सके
पंचर जुड़ी साईकिल पर चलता रहा
टूटी गद्दी पर
बांध कपड़ा काम चलाता रहा
ताकि खरीद सके
वो पुरानी मोटर साईकिल तुम्हारे लिए
तागी थी जिस धागे से रजाई
उनकी उम्र पूरी हुई
रुई भी खिसक के किनारे हुई
ठंडी रजाई में सिकुड़ता रहा
कि गर्मी तुझ तक पहुँचती रहे
जब भी जला चूल्हा
तेरी ही ख्वाहिशें पकीं
उसने खाया तो बस जीने के लिए
जीवन भर की जमा पूँजी
और कमाई नेक नियमति
अर्पित कर
तुझ को समाज में एक जगह दिलाई
पंख लगे और तू उड़ने लगा
ऊँचा उठा तो
ये न देखा
कि तेरे पैर उनके कन्धों पर हैं
उनके चाल की सीवन उधड गई
तेरी रफ़्तार बढती रही
सहारे को हाथ बढाया
तुमने लाठी पकड़ा दी
उनकी धुंधली आँखों से
ओझल हो गया
वो घोली खटिया पर लेटे
धागे से बंधी ऐनक सँभालते
तेरे लौटने की राह देखते रहे
अंतिम यात्रा तक
आँखों में अटका था
बस एक ही सपना
साबुत चप्पल, नई कमीज़ और एक साईकिल।
कवयित्री- रचना श्रीवास्तव
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11 कविताप्रेमियों का कहना है :
जब भी जला चूल्हा
तेरी ही ख्वाहिशें पकीं ......
पंख लगे और तू उड़ने लगा
ऊँचा उठा तो
ये न देखा
कि तेरे पैर उनके कन्धों पर हैं
उनके चाल की सीवन उधड गई
तेरी रफ़्तार बढती रही....
अत्यंत मार्मिक चित्रण। अच्छी कविता।
रचना जी की यह मार्मिक रचना मन को छू गयी. रचना क्या है जीवन के करुण बिम्ब-चित्र है सामने ला दिए गए hain..बच्चों के सुनहले भविष्य के लिए अपने अरमानों को तिलांजलि देनेवाले माता-पिता को सफलता की सीढियों पर चढ़ चुके बच्चों के पराया होते जाने से जो अंतर्वेदना होती है उसका बड़ा ही सधा और मर्मस्पर्शी अंकन किया है रचना जी ने. मेरी तरफ से उन्हें ढेर सारी बधाई और भविष्य में ऐसी ही सुंदर रचनाओं की उनसे उम्मीद रहेगी.
मार्मिक दृश्यों की गांठ खोल दी, आंसू छलक उठे
रचना कल ही पढ़ ली थी..
मगर कमेन्ट देने के बजाय मन चकती लगी कमीज ..और कपडे से बंधी सायकल कि गद्दी पर बरसों पीछे चला गया....
चप्पल तो खैर ...अब भी मोची से सिली जाती है...
फिर पिता कि ओढी वो रजाइयां भी याद आने लगीं...जिनकी रूई...एकदम ...
जैसे आपने कविता में ज़िक्र किया है.......
फिर लगा..कमेंट देने से पहले ये जरूरी है...
कि एक नज़र खुद अपने घर पर ही डाल ली जाए...
आगे कुछ ना कहा जाएगा रचना जी..
वास्तविकता का सजीव चित्रण किया है,
बहुत मार्मिक भाव,अच्छी रचना ,
बधाई!
कविता में कितनी वास्विकता है मेरे दिल के बहुत करीब से गुजरी है ये कविता .
लेखिका को बधाई
नेहा
तागी थी जिस धागे से रजाई
उनकी उम्र पूरी हुई
रुई भी खिसक के किनारे हुई
ठंडी रजाई में सिकुड़ता रहा
कि गर्मी तुझ तक पहुँचती रहे
कविता पढ़ते ही मन उन्ही दिनों में चला गया मम्मी पापा के सब त्याग जैसे आपकी कविता मैं सॅंजो गये हों आपकी कविता पढ़ते पढ़ते एक फिल्म सी बन जाती है आँखों के सामने और मैं डूब जाती हूँ उसमे ऐसे ही लिखती रहिए
रचना,
अभी तक
छलछला गईं हैं आँखें
डबडबा गईं हैं आँखें
टूटे सपनों की वेदना से
मिल आईं हैं आँखें
एक नहीं हजारॊं सपनों की
टूटी देहरी से झाँक आईं हैं यह आँखे
सच मुच रुला दिया है आपने। माँ बाप का नि:स्वार्थ प्रेम और त्याग मूर्त्त हो गया इस रचना में। बधाई आपको।
कविता में मेरी ही बात है एक एक पंक्तियों से स्वयं को जोड़ता हूँ .
बधाई
शिप्रा
aap sabhi ka kavita pasand karne ke liye aur apne vichar likhne ke liye bahut bahut dhnyavad.aasha hai aap ke amulya sneh shabd yun hi milte rahenge
dhnyavad
rachana
Wah..bibyojna kamaal ki hai..badhai...kaviyatri sirf khab nahi dekhti..woh zameenee samvedanaon se avibhoot kar jati hai...aisee kavitayein padh kar deer tak chup-chaap rahne ko man karta hai...wah wah....
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