प्रतियोगिता की 11वीं कविता दीपक मशाल की है। दीपक मशाल सितम्बर 2009 का यूनिकवि पुरस्कार जीत चुके हैं।
पुरस्कृत कविता-बच्चे अब बड़े हो गए हैं
कल
एक बच्चे के जन्मदिन में
गया था मैं,
बड़ा अच्छा मौका लगा मुझे
अपने बचपन में
वापस जाने का..
हमेशा यूँ
नदिया बने रहना भी
ठीक नहीं,
कभी
झील बनना भी
अच्छा रहता है...
सोचा, चलो थोड़ी देर ही सही
वक़्त ठहरे ना ठहरे,
मैं ठहर जाऊँगा...
जलसे में पहुंचा तो
भोला सा मासूम बच्चा,
जिसे सब बड्डे बॉय कह रहे थे,
नए कपडों में
मुस्कान बिखेरता मिला...
जब जुट गए सभी मेहमान तो
केक काटने की सुध हुई...
केक काटने और
उससे पहले
मोमबत्तियाँ बुझाने के बजाये
मुझे वो नन्ही आँखें
मेहमानों के हाथों में थमे
उपहारों के झोले टटोलते लगीं....
मन के सच्चे बच्चों में
अब जन्मदिन मनाने की
ख़ुशी से ज्यादा,
ये उत्सुकता दिखी मुझे
कि क्या दिया है किसने..
उपहार उसे?
उसे होने लगा था अहसास ये कि
बड़े तोहफे देने वाले अंकल
बड़े होते हैं....
और मुझे ये कि
असल मासूमियत, भोलापन और
निश्छलता शब्द
अब सिर्फ शब्दकोश में होते हैं....
अचानक हुई बेमौसम बरसात ने
माहौल थोड़ा बदल दिया.
मेरी टेबिल पर रखा एक
कागज़ मुझसे दरख्वास्त करने लगा
उसको
एक कागज़ की कश्ती में तब्दील करने की....
हाथ जुट तो गए
उसकी मंशा पूरी करने को
मगर...
उस बिचारी को
पानी पे तिराता कौन?
सभी अबोध तो अपने में गुम थे,
ना बारिश से सरोकार उन्हें
और ना बहते पानी से,
तो बारिश में भीगता कौन
और नाव चलाता कौन........
तभी
एक बच्चे के हाथ से फूटे फुकने,
फुकना; जिसे खड़ी बोली में गुब्बारा कहते हैं,
से जोर की आवाज़ जो हुई
तो सबकी नज़र
चली गई थी उधर
एक लम्हे के लिए...
और फिर सब अपने-अपने काम में लग गए...
जाने क्यों याद आया मुझे..
की जब फूटते थे फुकने,
मेरी या दोस्तों की वर्षगांठों में
तो खुश होकर
लगते थे हम उन्हें मुँह में अन्दर खींचके
छोटी-छोटी फुकनी/टिप्पियाँ बनाने में....
और मज़ा लेते थे,
उन्हें दूसरों के माथों पे फोड़ के...
हँ हँ....
अब तो बच्चों को फुकनी बनानी भी नहीं आती...
तभी पीछे की कुर्सी पर बैठा एक बच्चा
कुछ खीझकर बोला-
''मम्मी, कितना टाइम और लगेगा यहाँ,
मुझे घर जाके होमवर्क भी करना है...''
सुन के ऐसे लगा
कि जैसे
बच्चे अब बड़े हो गए हैं,
वो बच्चे नहीं रहे
बच्चे अब बड़े हो गए हैं.....
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4 कविताप्रेमियों का कहना है :
"हमेशा यूँ नदिया बने रहना भी ठीक नहीं, कभी झील बनना भी अच्छा रहता है...
असल मासूमियत, भोलापन और निश्छलता शब्द
अब सिर्फ शब्दकोश में होते हैं....
अब तो बच्चों को फुकनी बनानी भी नहीं आती...
वो बच्चे नहीं रहे बच्चे अब बड़े हो गए हैं....."
सोचने समझने और अमल करने के लिए बहुत है कविता में - दीपक जी आभार और धन्यवाद्.
aapki kavita padhte padhte hm bhi bachpan ki sair kar aaye .aachcha likha hai" mashaal "ji .
बचपन पर बाजार का बोझ और बड़ों की अपेक्षाओं का चाबुक बड़ा बना देता है बच्चों को..और यही बदलते वक्त का तकाजा भी बनता जा रहा है..
अच्छी और नास्टल्जिक करती रचना..
दीपक जी,
मुुझे अपना बचपन याद अा गया । कागज की कश्ती बारिश का पानी, सबका दुलार, माँ का प्यार, सब खत्म हाे चुका है । हम टी व्ही अाैर िवज्ञापन के समंदर में गाेते खा रहें हैं वही सब हमारे बच्चे कर रहे हैं ताे बुरा क्या है । बहरहाल फुकनी बनाना याद अा गया । अच्छी कविता के लिये बध्ाइॅ ।
विवेक कुमार पाठक
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