आलोक उपाध्याय "नज़र" हिन्द-युग्म पर लगभग 8 महीनों से लगातार अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा रहे हैं। आज हम इनकी एक कविता लेकर हाज़िर है जिसने नवम्बर माह की प्रतियोगिता में सातवाँ स्थान बनाया है।
पुरस्कृत कविता- न रोते हुए न मुस्कुराते हुए
न माँ से कुछ पूछते हुए न पापा को कुछ बताते हुए
कुछ ज़िन्दगी ऐसी भी न रोते हुए न मुस्कुराते हुए
जैसे मुक्कमल हसरतें दिल की सारी हो रही हो
ख्वाबों को हकीक़त में बदलने की तैयारी हो रही हो
माचिस के डिब्बों से एक छोटा सा घर बनाते हुए
मानो वो बचपन अपनी ही अदा भुला बैठा हो
महफूज़ सा कल भी कहीं खफा खफा बैठा हो
जूठे गिलास धोते हुए पुराने जूते चमकाते हुए
"माँ होती तो”.... उन्हें ये तस्सवुर ही नहीं है
पेट भी भरता होगा उनका ये ज़रूरी नहीं है
सिकुड़ कर के बदन को ठण्ड से वो बचाते हुए
बहुत होंगे पर कोई इतना बदनसीब क्या होगा
इन मासूमों से ज्यादा भी कोई गरीब क्या होगा
एक अदद गुब्बारे की ज़रूरत को भी छिपाते हुए
पुरस्कार- विचार और संस्कृति की मासिक पत्रिका 'समयांतर' की ओर से पुस्तक/पुस्तकें।
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4 कविताप्रेमियों का कहना है :
"माँ होती तो”.... उन्हें ये तस्सवुर ही नहीं है
पेट भी भरता होगा उनका ये ज़रूरी नहीं है
सिकुड़ कर के बदन को ठण्ड से वो बचाते हुए
एक मार्मिक कविता बहुत खूबसूरती से आपने इस सुंदर बातों को सबके सामने कविता में पिरो कर प्रस्तुत किया..सुंदर भाव..सुंदर कविता..बधाई आलोक जी
मानो वो बचपन अपनी ही अदा भुला बैठा हो
महफूज़ सा कल भी कहीं खफा खफा बैठा हो
जूठे गिलास धोते हुए पुराने जूते चमकाते हुए
accha likha hai.
bahdhyee
bahut bahut behtareen.....marmsparshi ....
बहुत ही सुंदर विचार हे आप के जनाब हम तो ये ही दुआ करेगे आप के कलम से सयाही कभी कम ना पड़े लिखते समय धन्यवाद पढ़ के अच्हा लगा
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