नवम्बर माह की यूनिकवि प्रतियोगिता की तीसरी कविता कवि मनोज कुमार की है। मनोज की एक कविता पिछले महीने भी बहुत सराही गई थी।
पुरस्कृत कविता- एक लंबी कविता जो छोटी पड़ गई
समाज के कुछ लोग
जि़न्दगी के हासिए पर
जीते हैं,
जैसे
सेफ्टी के नियमों की परिधि से,
अनभिज्ञ
पचास फीट ऊपर चढ़े –
पप्पू पेंटर का
पेटिंग करना
और शाम ढलते ही
अपनी कमाई को,
देसी के पाउच
पर चढ़ाने के बीच
फँसी उसके परिचय की तलाश
आपको
आलोचना की गाँठ बाँधने के लिए
भले ही आकर्षित करे,
लेकिन जिंदगी के
मौन चौराहे पर
प्रकृति को तालियाँ बजाते देखना
एक सुखद अनुभूति है ।
इसी तरह
दारू पीकर
भुलिया को झुम्मन का पीटना
बेटे के हिस्से की रोटी खा जाना
भूखे पेट बेटे का सोना,
आपको उसके स्वार्थ की
पराकाष्ठा लग सकती है,
लेकिन उसकी मजबूरी है।
भोलू और बुधिया
इनसे अलग नहीं,
जूतों पर पालिश करते
हाथ के रास्ते
उनके चेहरों पर चढ़ती कालिख
आपके उल्टे-सीधे
प्रश्नों और शंकाओं की
सफाई के लिए
भले ही पर्याप्त न हो
लेकिन आपके जूते चमकाने से
मिला मेहनताना
शाम को
एक अद्धे की बोतल के लिए
काफी है।
इसी ताने बाने से बुनी
उनकी ज़िन्दगी
आपके तिरस्कार से अनजान
अपने आयाम को
विस्तार देती है ।
इन्हें ज़िन्दगी के
नये आयाम की तलाश नहीं,
इसी में नयी ज़िन्दगी
खोजने की आदत है।
हमारे कालू रिक्शावाले की
तो बात ही निराली है,
वैसे तो अब शहरों से
रिक्शे की प्रजाति लुप्त होने लगी है
लेकिन जो थोड़े-मोड़े बचे हैं,
उन्हीं को चलाने वालों में
एक है कालू रिक्शावाला,
उसके रिक्शे पर बैठने वाले
अपनी नाक और आँख
दोनों बंद कर लेते हैं ।
उसकी दशा
नरोत्तम दास के सुदामा से कम नहीं
पैडिल पर जोर देने से
बिवाई से रिसता रक्त,
पसीने से सनी फटी बनियान से
निकलती दुर्गन्ध
दयालु बने लोगों को
यह सब करने के लिए
बाध्य कर देते हैं ।
अपने हक से ज्यादा वह
कभी किसी से नहीं लेता,
यही गर्व उसे जीने के लिए
काफी है।
देख रहे है
सामने ठेला खींचते हुए
उस आदमी को
तपेदिक का मारा, बेचारा
बयालिस डिग्री पर
तपती धूप में
अपने पसीने से
सड़क पर पदचिह्न छोड़ता
अपनी मौत से बेपरवाह
ठेला खींच रहा है,
रास्ते पर खड़े
बरगद की छाँव में
उसको
अपनी बीमार बेटी
सुमरतिया की मौत
और बढ़ता कर्ज दिखते हैं।
पेड़ के नीचे लेटी
औरत झुमरी,
किसी भले घर की बेटी थी
और उधर धूप में लेटा बेटा
उसकी नाजायज औलाद है।
उसे धोखा देने वाला इंसान
भले ही संपन्न हो,
लेकिन इसे
न सम्पन्नता का आभास है
और न ही विपन्नता का,
बेचारी मानसिक संतुलन खो चुकी है।
साँसे चल रही हैं
या नहीं
यह भी नहीं जानती।
आपके पॉव तले कुचलती कालीन के
रेशे-रेशे में
बाल-गोपाल की कोमल उंगलियों
की कौंध है,
तो उस ढाबे में
जूठी प्लेटें धोने से मिली टिप से
रूखी-सूखी रोटी खाकर
फुटपाथ पर सोया हुआ आदमी
नींद में बेखबर है
कि उसकी सारी जमा-पूँजी
और बिका हुआ घर भी
उसकी बहन को
दहेज की आग से बचा न सका
और इसी सदमे से
उसकी माँ चल बसी।
हमारे गाँव का झींगुर,
पूरा गाँव उसे झिंगुरा कहता है,
मेरा ही नहीं, कईयों के खेत जोतना
धान रोपना
गेहूँ बोना
और उनकी रखवाली करना
कुछ भी उसके काम न आया,
पिछले साल
भूख से विकल
उसका बेटा
रेलगाड़ी से कट गया,
मेरे दो सौ रूपये भी
उसके काम न आए।
राजा भाल चंद्र जी
सच्चे जन सेवक,
पाँच-पाँच साल
मात्र आश्वासन की दवा पिलाकर
जनता की सेवा का दंभ भरते हैं
और
बुधिया, भोलू, कालू, झींगुर जैसे लोग
उसी से स्वस्थ होने का
गर्व करते हैं।
कौन अच्छा है
कौन बुरा, पता नहीं।
पर
गाली-गलौज भरी भाषा –
उनकी हताशा और निराशा की
अभिव्यक्ति है,
उनके जीवन की अर्थवत्ता
हम भले न खोज पाएं
लेकिन
उनकी अनभिज्ञता में पलती
उदात्तता को मापने में
यह बड़ी कविता
छोटी पड़ गई।
पुरस्कार- विचार और संस्कृति की मासिक पत्रिका 'समयांतर' की ओर से पुस्तक/पुस्तकें।
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7 कविताप्रेमियों का कहना है :
मान्यवर !
सुन्दर - संवेदनशील रचना के लिए आभार !
कविता ने ऐसी तस्वीर पेश करने की कोशिश की जिसे कई
कवितायेँ मिलकर भी नहीं पूर्ण कर सकतीं , अतः यह कसक
बनी रहे तो कुछ बुरा नहीं ---
'' ...............................................
उनकी अनभिज्ञता में पलती
उदात्तता को मापने में
यह बड़ी कविता
छोटी पड़ गई।''
आपकी कविता में चीजों को बेचारगी के साथ नहीं बल्कि
ठोस समीक्षा-दृष्टि के साथ देखा गया है , यह काफी सराहनीय है |
................... धन्यवाद ,,,
वास्तव में मनोज जी आपकी यह कविता छोटी पड़ जाएगी यदि और भी कुछ इस तरह के उदाहरणों का समावेश करते तो,परंतु आपने इस छोटी ही सही कविता के माध्यम से समाज के विभिन्न कमजोर और सोचनीय पहलुओं पर जो प्रकाश डाला है वह निश्चित रूप से सराहनीय है..बहुत भावपूर्ण कविता..बहुत ही अच्छी लगी..धन्यवाद मनोज जी इस सार्थक कविता को प्रस्तुत करने के लिए बहुत बहुत आभार आपका.
उसकी दशा
नरोत्तम दास के सुदामा से कम नहीं
पैडिल पर जोर देने से
बिवाई से रिसता रक्त,
पसीने से सनी फटी बनियान से
निकलती दुर्गन्ध
हमारे ही जीवन के ये सभी महत्वपूर्ण लोग जिन्की त्रासदी को बडे ही संवेदन्शील तरीके से अपनी कविता में पिरोकर सोचने पर मजबूर कर दिया है...वाकई ऐसी कई लंबी फ़ेहरिस्त है और भी लोगों की जिनका शुमार होना था लेकिन सही में कविता छोटी पढ गई....बहुत-बहुत आभार आप्का मनोज जी...बधाई!
Bahut hi sundar prastuti. Gahari samvedana or yatharth ke dharatal se gahari judhi rachna ke liye aabhar....
कविता चाहे जितनी भी लम्बी हो या छोटी उसका भाव स्तर ऊँचा होना चाहिए ओर प्रस्तुत कविता में वह कायम है समाज के कमजोर पक्षों को सिलसिलेवार प्रस्तुत कर के कविता ने रोचकता तो बनाये राखी साथ ही साथ काव्य पक्ष को भी नियंत्रित रखा है
कविता पढकर ऐसा लगा कि आप समग्र अनुभूति के कवि हैं । विशाल जीवन का कोई भी निचला तबका आपसे अछूता नहीं , आपकी संवेदना सबकी संवेदना से जुड़ी है , यही तो मनुष्यतत्व है । कहा भी गया है -
“पूरे मानव समाज को सुंदर बनाने की साधना का नाम साहित्य है । ”- ( आचार्य ह.प्र.द्विवेदी)
आपकी प्रस्तुत कविता पढ़ते- पढ़ते मुझे अपनी कविता की कुछ पंक्तियां याद हो आयी-
“दीवार पर हॉस्पिटल के
टेक लगाये बाप - बेटे
चबाते सूखी रेटी
बाप न - न करता
जबरन मुंह खोलता
बेटे के दुलार से । ”
अंतत: और क्या कहूं । अगर आलोचक होता तो यही कहता -
“कवि ने गीत लेखे बार - बार
देता रहा भिन्नस - भिन्नह विषयों को विस्ताीर
अगर एक ही कविता में सब कुछ अट जाता
तो कवि दूसरा गीत ही क्यों लिखता । ”
-अज्ञेय
आपको बधाई ............लिखते रहें......
उनके जीवन की अर्थवत्ता
हम भले न खोज पाएं
लेकिन
उनकी अनभिज्ञता में पलती
उदात्तता को मापने में
यह बड़ी कविता
छोटी पड़ गई।
---समाज के सर्वहारा वर्ग की दयनीय परिस्थितियों को न केवल उजागर करती है
अपितु इस कविता की ये अंतिम पंक्तियाँ उनके भीतर जीवन के माधुर्य को खोजने में भी सफल दिखती है।
वाह, क्या बात है।
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