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Friday, December 18, 2009

कहाँ होंगे ललतू गोंड़


युवा कवि रामजी यादव अपनी कविताओं में अपने पूर आक्रोश और ज़मीनी चेतना के साथ उपस्थित होते हैं। कविता को अपना हथियार समझने वाले रामजी अपनी कविताओं में लगातार उन वर्गों, विषयों, लोगों को छूते हैं जो कवियों-लेखकों के लिए कभी विषय नहीं बन पाये और बने भी तो अपनी पूरी जीवटता और त्रासदी के साथ पेश नहीं हो पाये। प्रस्तुत कविता ललतू गोंड़ भी एक प्रतीक है साज़िश के शिकार लाखों पथरकटों, मज़दूरों और हाशिये पर ठेल दिये गये शोषितों का। ललतू गोंड़ कविता अपने हर विस्तार और संकुचन में समाज की व्यवस्था से सीधा सवाल करती है। ऐसी कविताओं से आप बाँसुरी का मीठा स्वर नहीं पा सकते बल्कि इतिहास में सर्वहारों द्वारा चले कुदालों, छेनी-हथौड़ों का चीत्कार हमारे कानों में पिघलता है।

कहाँ होंगे ललतू गोंड़

अठारह साल से नहीं जानता
अठारह साल से और पीछे अठारह साल
दीखते थे ललतू गोंड़ दूर से
जब कभी आते थे सील कूटने

साढ़े चार फुट की सांवली धज
केश छोड़ गए थे कपार
बस रह गए थे खोपड़ी के किनारे पर
जैसे कटहल कोई हथेली पर
छिला जाता हुआ कड़ुआ तेल से चमकता रहता
पेशानी याद है लाल्तू गोंड़ की
मोटी-मोटी नसें और बल से फूली हुई
एक जगह ठीहा जमाकर बैठ जाते थे ललतू
घर-घर से सिलें और लोढ़े हो जाते थे जमा

दादी, माँ, बुआ, चाची या कोई और
लिए कटोरा भर तरकारी और
जौ, बाजरा या मकई की कई रोटियां
रख जातीं ललतू गोंड़ के पास
और चच्चा कहते ---पाओ बुढ़ऊ खोराकी
निकालो छेनी--हथौड़ी भर जोर
फांको पसर भर सुर्ती


ललतू गोंड़ गरिआने लगते चच्चा को
वे चच्चा के चच्चा थे पद में
यह हरित क्रांति से पहले की बात थी
तब हमारे खेतों में गेहूं नहीं बोया जाता था

यह आदमी के पसीने और परिश्रम से
पत्थर के रिश्ते की बात थी
यह उस लय की बात थी जो संगीत की तरह उठती
और चिन्गारिओं की तरह चमकती
यह उस आवेग और कविता की बात थी
जो सिल पर बिंदियाँ बनाती जाती थी लगातार
और शब्द निकलते थे ललतू गोंड़ की हंफरी के रूप में

उस दोपहरी में सारीं सिलों से पत्थर की गंध निकलती
और फैल जाती वातावरण में
जैसे फैली होती है धूल, गरीबी और तकलीफ
पथरकटों के जीवन के आर-पार
जैसे पसरी रहती है घृणा जातिसमाजों में
और रिसती रहती है लगातार पीढ़ी दर पीढ़ी

जहाँ बिजली न पहुँची होगी
और एक भी घर में नहीं होगी
मिक्सी
जहाँ दाल होगी सम्पन्नता की निशानी
और पुदीना अमलोल धनिया मिर्ची
अधपके टमाटर या आम की गुठली की चटनी भी
बहुत मुश्किल से मयस्सर होगी
जीवन चलाने के लिए
क्या वहाँ अब भी होंगे ललतू गोंड़?

क्या अपने असंतोष को पी गये होंगे
बीड़ी की तरह
खा गये होंगे इच्छाएँ
जैसे मक्के की रोटी खाते थे चाव से
क्या उनके जीवन की सारी पगडंडियाँ
गईं होंगी सिर्फ़ पत्थरों की ओर
और भाषा में महज़ पहाड़ से टकराने के शब्द होंगे
भारत के किस भूगोल में होंगे ललतू?

मैं लगातार सोचता हूँ कि
गोंडा या गोंडवाना से
क्या रिश्ता हो सकता है ललतू का
अगर ब्रह्मा से नाता है ब्राह्मणों का
क्या ललतू गोंड़ की रियासत थी गोंडा
और गोंडवाना की गद्‍दी पर बैठी थी
उनकी परनानी की भतीजी
गोंदिया में कितनी ज़मीन थी ललतू की

ललतू गोंड़ का राज्य कैसे छिन गया उनसे
और छेनी-हथौड़ी आई हाथ में
पत्थर से निकलीं चिंगारियाँ या घट्ठे बन गए
उनका सत्य
एक सम्मानित नागरिक से शूद्र
और स्वतंत्र मनुष्य से सर्वहारा होने तक
कितने किलोमीटर तक चला होगा इतिहास
टूटी होगी कितनी तलवारें
गढ़ा गया होगा कितना झूठ

क्या इसीलिए इतिहास में मिलते हैं
केवल लुटेरों के नाम
कि सच कहने की हिम्मत नहीं थी इतिहासकारों में
क्यों नहीं दर्ज़ हुआ ललतू गोंड़ का नाम इतिहास में

कहीं हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, सोमनाथ, खजुराहो
अजंता और कोणार्क को
रचा तो नहीं था उन्होंने ही
और मेहनताने में उन्हें दे दिया नगर निकाला
क्यों मौन है इतिहास

ब्राह्मणों की दरिद्रता और गरीबी से तकलीफ़ग्रस्त
मेरे समय के प्रखर विद्वानों के पैमाने पर
कहाँ मौज़ूद होंगे ललतू गोंड़

जो आरक्षण को महदूद करना चाहते हैं
दस-बीस वर्ष
क्या उन्हें पता होगा
कि ललतू गोंड़ के घर से कोई बच्चा
जाता होगा कि नहीं
सुबह-सुबह स्कूल

क्या आरक्षण की मलाई खाने वाले
यह बता सकते हैं
कि उनके एजेंडे में कहाँ होंगे
ललतू गोंड़।।

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10 कविताप्रेमियों का कहना है :

Asha Joglekar का कहना है कि -

आक्रोश से लबालब पर सच्चाई से भरपूर रचना । बार बार पढने को मन करता है और हर बार रोंगटे खडे हो जाते हैं ।

मनोज कुमार का कहना है कि -

अच्छी रचना बधाई।

देवेन्द्र पाण्डेय का कहना है कि -

"ऐसी कविताओं से आप बाँसुरी का मीठा स्वर नहीं पा सकते बल्कि इतिहास में सर्वहारों द्वारा चले कुदालों, छेनी-हथौड़ों का चीत्कार हमारे कानों में पिघलता है।"
---सच कहती हैं भूमिका की ये पंक्तियाँ !
............ऐसी कविताएँ अभिशप्त होती हैं
जो समझ सकते हैं उन्हें कुदालों, छेनी-हथौड़ों का चीत्कार कानों में ऐसी कविताओं से आप बाँसुरी का मीठा स्वर नहीं पा सकते बल्कि इतिहास में सर्वहारों द्वारा चले कुदालों, छेनी-हथौड़ों का चीत्कार हमारे कानों में पिघलता है।
---सच कहती हैं भूमिका की ये पंक्तियाँ
ऐसी कविताएँ अभिशप्त होती हैं
जो समझ सकते हैं उन्हें कुदालों, छेनी-हथौड़ों का चीत्कार, कानों में शीशा बन पिघलता है....
जिनके लिए लिखी जाती हैं, वे समझ ही नहीं पाते।

विनोद कुमार पांडेय का कहना है कि -

रामजी जी आप की यह कविता नही पूरी एक कहानी है जो जीवन के कई दृश्यों को समेटे हुए आगे बढ़ती है..जिस व्यक्तित्व का आपने चयन किया निश्चित रूप से वह इस गाथा के अनुकूल है, वो व्यक्ति जो सुबह से शाम तक तपती धूप में भी रोज़ी रोटी के लिए पसीना बहते रहे और वो भी मुस्कुरा कर ..आज के परिवेश,समाज,राजनीति,मानवता सब को पिरोते हुए बेहतरीन कविता लिखी है..

आपको इस लाज़वाब प्रसंग के लिए तहे दिल से बधाई..उम्मीद करते है की आगे भी इस प्रकार के यादगार भावों के साथ उपस्थित होंगे आप...धन्यवाद

निर्मला कपिला का कहना है कि -

सच्चा आक्रोश है बहुत अच्छी कविता है बधाई

विश्व दीपक का कहना है कि -

सच्ची और ईमानदार कविता इसी को कहते हैं.... इससे ज्यादा कुछ और कह नहीं पाऊँगा कि अगर मैं किसी दिन ऐसा लिख पाऊँ तो धन्य हो जाऊँ।

-विश्व दीपक

अभिन्न का कहना है कि -

इस कविता को पढ़ते वक्त ऐसा लग रहा था जैसे मुंशी प्रेम चन्द की कहानी का काव्य रूप सामने आ गया हो, रचनाकार को बहुत बहुत बधाई

उस दोपहरी में सारीं सिलों से पत्थर की गंध निकलती
और फैल जाती वातावरण में
जैसे फैली होती है धूल, गरीबी और तकलीफ
पथरकटों के जीवन के आर-पार
जैसे पसरी रहती है घृणा जातिसमाजों में
और रिसती रहती है लगातार पीढ़ी दर पीढ़ी

बहुत सुन्दर लिखा गया है

Hindi Kavita का कहना है कि -

राम जी ,
बधाई हिंद युग्म पर सार्थक कविता लिखने के लिए. आपकी कविता पढ़ कर धूमिल की याद आई . कविताओ का सजल सिलसिला जारी रखे

Anonymous का कहना है कि -

I want to quote your post in my blog. It can?
And you et an account on Twitter?

लीना मल्होत्रा का कहना है कि -

ललतू गोंड़ का राज्य कैसे छिन गया उनसे
और छेनी-हथौड़ी आई हाथ में
पत्थर से निकलीं चिंगारियाँ या घट्ठे बन गए
उनका सत्य
एक सम्मानित नागरिक से शूद्र
और स्वतंत्र मनुष्य से सर्वहारा होने तक
कितने किलोमीटर तक चला होगा इतिहास
टूटी होगी कितनी तलवारें
गढ़ा गया होगा कितना झूठ

क्या इसीलिए इतिहास में मिलते हैं
केवल लुटेरों के नाम
कि सच कहने की हिम्मत नहीं थी इतिहासकारों में
क्यों नहीं दर्ज़ हुआ ललतू गोंड़ का नाम इतिहास में
aise prashn jo man ko chetna ko jhinjhod dete hai. mai nahi jaanti thi mai itne mahan rachnakar se mili hoon. nishabd hoo mai. aaj ke agyey hi kah sakti hoo aapko. saadar.

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