दोहा गाथा सनातन: ४७
यति दस-आठ, आठ-छः पर है त्रिभंगी में
आचार्य संजीव 'सलिल'
यति दस-आठ, आठ-छः पर है त्रिभंगी में,
चरणान्त गुरु औ' जगण वर्जित है.
चार चरणों का छंद, मोहे मन रसिकों का,
पाई न उधार करी कीर्ति अर्जित है.
छन्द लय रस बिम्ब भाव कथ्य भाषा को,
साधना-सँवारना 'सलिल' न सहज है.
शब्द-ब्रम्ह की कृपा से सिद्ध होता है छंद,
शारदा के चरणों की छंद पग-रज है..
त्रिभंगी एक मात्रिक छंद है.
इस छंद में दस-आठ तथा आठ-छः पर यति होती है.
बत्तीस मात्रा के हर चरण के अंत में गुरु आवश्यक है.
यह छंद चार चरणों का होता है तथा इसमें जगण (ज भा न = लघु गुरु लघु) वर्जित होता है.
उदाहरण:
१.
रसराज-रसायन, तुलसी-गायन,
श्री रामायण मंजु लसी.
शारद शुचि-सेवक, हंस बने बक-
जन-कर-मन हुलसी हुलसी..
रघुवर-रस-सागर, भर लघु गागर,
पाप-सनी मति गई धुल सी.
कुंजी रामायण के परायण,
से गयी मुक्ति-राह खुल सी..
२.
रस-सागर पाकर, कवि ने आकर,
अंजलि भर रस-पान किया.
ज्यों-ज्यों रस पाया, मन भरमाया,
तन हर्षाया, मस्त हिया..
कविता सविता सी, ले नवता सी,
प्रगटी जैसे जला दिया.
सारस्वत पूजा, करे न दूजा,
करे 'सलिल' ज्यों अमिय पिया..
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कविताप्रेमी का कहना है :
प्रस्तुत उदाहरण बहुत ही बढ़िया लगे...सुंदर भाव साथ ही साथ बढ़िया ज्ञानवर्धक जानकारी..आभार सलिल जी
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