फटाफट (25 नई पोस्ट):

Tuesday, December 15, 2009

मेरे पिता विदेह हैं, कहीं भी मिल सकते हैं उनसे


नवम्बर माह की दूसरी कविता अभिषेक कुशवाहा की है। अभिषेक पिछले कई महीनों से प्रतियोगिता में सम्मिलित हो रहे हैं, लेकिन पहली बार इनकी कविता प्रकाशित हो रही है। उत्तर प्रदेश के चन्दौली जिले के सकलडीहा के रहने वाले अभिषेक वर्तमान में बीएचयू में अध्ययन कर रहे हैं। इसी वर्ष भाषा विज्ञान (आनर्स) से स्नातक पूरा किये हैं। अभी यही से बी॰ एड कर रहे हैं। आगे भाषा विज्ञान में उच्च-अध्ययन करना चाहते हैं। बचपन से ही साहित्य में रूचि है। उपन्यास व कवितायें ज्यादा अच्छी लगती हैं। अज्ञेय व निर्मल वर्मा इनके प्रिय लेखक हैं। कक्षा आठ में थे तब इन्होंने कवितायें लिखनी शुरू की थी। पहली कविता अपने शिक्षक द्वारा पढ़ने के लिये दी गयी एक अंग्रेजी कविता का भावानुवाद थी। साहित्य अमृत, कादम्बिनी, अमर उजाला व विश्वविद्यालय की पत्रिका 'संभावना' में इनकी कवितायें प्रकाशित हुयी हैं। नेट पर अपना ब्लाग “आर्जव” लिखते हैं।

पुरस्कृत कविता- विदेह

मेरे पिता जी पोस्टमैन हैं।

जनवरी के कटीले जाड़े
और जून की भभकती दोपहरी
उनकी सैकड़ों साल पुरानी
मुरचही साइकिल के पहिये की
अनवरत फिरकन को डिगा नहीं पाते हैं।

महीने के अन्तिम सप्ताह में
एक दिन पिता जी बैठते हैं हिसाब करने।
प्रारम्भ में बड़े मग्न होना चाहते हैं
कॉपियों में, डायरियों में
किन्तु
मग्न होने पर हँसती है
फटे होठों के दरारॊं के बीच बैठी धूल
और चीकट जमी उंगलियों के रंग-बिरंगे पोरों से
एक रुपये वाली रीफिल
सरक जाना चाहती है
लेकिन तभी
शर्ट की चार बटनों के काज में
एक अलग रंग का धागा
डांट देता है उसे
जिससे बांह के नीचे, रफू से बना
आस्ट्रेलिया का नक्शा
खिलखिलाकर हँस पड़ता है
और दूसरी तरफ पड़ी पेन्ट की छींटें
थोड़ी उदास होती हैं।

तत्क्षण दरवाजे पर
किसी खटखटाहट की सूचना
श्रवणेन्द्रियां पहुंचाती हैं उनके मस्तिष्क को
और अनगिन शिरायें
एक साथ करती हैं उद्‍घोष--–कोई सेठ तकादादार।

कुछ क्षण बाद वो पुनः लौटते हैं
दूध-दाल–सिलिण्डर आदि के पठारों में,
तभी काटने को उत्सुक
एक मच्छर
फँस जाता है
और मुर्गे की पूंछ-से बालों में
एक हाथ दौड़ आता है,
साथ ही पापा दिखाने लगते हैं
मैक्बेथ की सालीलाकी की झलक
लेकिन तभी उनके मानसिक मंच के
निषिद्ध क्षेत्र में
प्रविष्ट होती है मेरी दुस्साहसिक आवाज
कि कोचिंग और स्कूल की फीस भी
चाहिये, कल अन्तिम तिथि है।

एक लम्बी सांस से
किचन के सामान का बिल
उड़ने को चला है
और टूटी खटिया पर
पिता जी
डायरी बन्द करके
लेट गये हैं
सम्भवतः
सदा के लिये! ! !

तो अब तो वे विदेह हैं! ! ! !
कहीं भी मिल सकते हैं आप उनसे
जैसे
किसी रिक्शेवाले में
किसी दिहाड़ी मजदूर में
किसी सूखा पीड़ित किसान में
किसी भी ठेले खोमचे वाले में
या किसी भी दम तोड़ते व्यक्ति में।


पुरस्कार- विचार और संस्कृति की मासिक पत्रिका 'समयांतर' की ओर से पुस्तक/पुस्तकें।

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)

14 कविताप्रेमियों का कहना है :

Anonymous का कहना है कि -

लेकिन तभी उनके मानसिक मंच के
निषिद्ध क्षेत्र में
प्रविष्ट होती है मेरी दुस्साहसिक आवाज
कि कोचिंग और स्कूल की फीस भी
चाहिये, कल अन्तिम तिथि है।
अभिषेक जी बहुत-बहुत बधाई! इतने सुंदर और संवेदन्शील भाव....तुम्हारी उम्र के युवाओं में ऐसे भाव होना आश्चर्य और अच्छा लग रहा है। बहुत-बहुत शुभकामनाएं!

आलोक उपाध्याय का कहना है कि -

अभिषेक जी सबसे पहले जय भोले भंडारी (सकलडीहा वाले शिवरात्रि के मेले के सापेक्ष)..... मैं क्षेत्रवाद नहीं कर रहा पर बड़ी ख़ुशी हुयी अपने मिट्टी की इतनी सोंधी खुशबू पाकर ...
साथ ही पापा दिखाने लगते हैं
मैक्बेथ की सालीलाकी की झलक
लेकिन तभी उनके मानसिक मंच के
निषिद्ध क्षेत्र में......

प्रविष्ट होती है मेरी दुस्साहसिक आवाज
कि कोचिंग और स्कूल की फीस भी
चाहिये, कल अन्तिम तिथि है।

बहुत खूब...

हाँ एक बहुत ग़ैर ज़रूरी सी सलाह देना चाहूँगा
जिसके लिए माफ़ी चाहता हूँ कि
जब कविता इतनी ज़मीनी हो
"किसी रिक्शेवाले में
किसी दिहाड़ी मजदूर में
किसी सूखा पीड़ित किसान में"

तो शब्द भी उतने ही ज़मीनी होने चाहिए कि जिनके लिए लिखा है वो बेहतर तरीके से सुन सकें और महसूस कर सकें
शायद मैं ग़लत भी हो सकता हूँ .....
डटे रहिये ........ शुभकामनाएं एवं बधाईयाँ

Safarchand का कहना है कि -

बधाई अभिषेक जी. आपने बड़ी सफल अभिव्यक्ति दिया है. मैं आलोक उपाध्याय जी से सहमत नहीं हूँ -- शब्द चयन भी भाव के सर्वथा अनुरूप है...ये हिंदी कविता है, किसी फिल्म का 'लिरिक' नही; 'विदेह' की अवधारणा ही इस कविता का चरम लक्ष्य है जिसमें आप १००% अंक से पास हैं.

सतीश चन्द्र श्रीवास्तव, "सफरचंद"

मनोज कुमार का कहना है कि -

यह कविता सिर्फ सरोवर-नदी-सागर, फूल-पत्ते-वृक्ष आसमान की चादर पर टंके चांद-सूरज-तारे का लुभावन संसार ही नहीं, वरन जीवन की हमारी बहुत सी जानी पहचानी, अति साधारण चीजों का संसार भी है। यह कविता उदात्ता को ही नहीं साधारण को भी ग्रहण करती दिखती है। बहुत-बहुत शुभकामनाएं!

गिरिजेश राव, Girijesh Rao का कहना है कि -

जीय रजा जीय!
इस कविता को कहाँ छुपा रखे थे?
बहुत बहुत बधाई। हम त डेरा के यहाँ कविता भेजना ही बन्द कर दिए लेकिन तुम डटे रहे।
सफरचन्द जी से सहमत। आखिर वो भी हमरे शहर के हैं, क्षेत्रवाद ;)

विनोद कुमार पांडेय का कहना है कि -

आपकी कविता दर्शाती है की काविता की विषय वास्तु हमारे आस पास ही होती है और हमें ज़रूरत है बस शब्द रूप देने की बेहद सुंदर विषय और उसे बेहतरीन शब्दों से सजाया है आपने ..बधाई हो

रज़िया "राज़" का कहना है कि -

वाह!!! एक संवेदना से भरी रचना!! और ईतनी सी उम्र में? आगे तो क्या होगा? आपसे तो बहोत कुछ सीखने को मिलता है। लाजवाब!!!

आलोक उपाध्याय का कहना है कि -

प्रिय अभिषेक
आपकी इस कविता को दुबारा पढ़ने पर मैं अपनी पहली टिप्पणी में "शब्द" को लेकर कहे गए शब्दों को वापस लेता हूँ....लेकिन मेरा तात्पर्य "फ़िल्मी लिरिक" से बिलकुल नहीं था....
आपके इस भावनात्मक लेखनी के हम मुरीद है .....
एक बार फिर से बहुत सारी शुभकामनाएं स्वीकारें | और हिंदी जगत को ऐसे ही अनमोल रतन देते रहें

आलोक उपाध्याय "नज़र"

देवेन्द्र पाण्डेय का कहना है कि -

यह कविता यह सिध्द करने के लिए पर्याप्त है
कि आज के युवा, हिन्दी को समृद्ध बनाने में समर्थ हैं.
सशक्त भाषा शैली, गहरी संवेदना, साथ-साथ आम जन से जुड़ती इस जमीनी कविता की जितनी भी तारीफ की जाय कम है।
--बधाई.. आर्जव के साथ-साथ हिन्द युग्म को भी
जो फिर नई प्रतिभाखोज के अपने उद्देश्य में सफल दिखती है।

M VERMA का कहना है कि -

बेहद संवेदनशील रचना
अत्यंत करीबी और अंतस में उतर जाने वाली रचना.
तो अब तो वे विदेह हैं! ! ! !
कहीं भी मिल सकते हैं आप उनसे
जी हाँ विदेह से कहीं भी मिल सकते हैं. पर मिलने की ख़्वाहिश और --- और फिर विदेह से सही अर्थों में तो विदेह ही मिल सकता है बाकी सब तो दिखावा ही करेंगे
बधाई

Guftugu का कहना है कि -

अभिषेक पहली नजर मे आपकी कविता मुझे अच्छी नहीं लगी लेकिन दूसरी
और तीसरी बार में ये मन पर छाह गयी .मेकबेथ की सलिलाकी,रफू से बना
ऑस्ट्रेलिया का नक्शा जैसे खुबसूरत बिम्ब कुल मिलकर एक सशक्त रचना
मुबारक. स्मिता मिश्रा

Amrendra Nath Tripathi का कहना है कि -

अभिषेक !
आपने बड़ी सुन्दर कविता लिखी है ..
टिप्पणी का रिस्क नहीं लूँगा :)

अभिन्न का कहना है कि -

तो अब तो वे विदेह हैं! ! ! !
कहीं भी मिल सकते हैं आप उनसे
जैसे
किसी रिक्शेवाले में
किसी दिहाड़ी मजदूर में
किसी सूखा पीड़ित किसान में
किसी भी ठेले खोमचे वाले में
या किसी भी दम तोड़ते व्यक्ति में।.........
..............
बहुत ही समृद्ध रचना ,युवा रचनाकार के पास असीम संभावनाएं है जिन पर वह ओर भी बेहतर साहित्य सृजन कर सकते है .मैक्बेथ की सालीलाकी.रफू से बना ऑस्ट्रेलिया का नक्शाजैसे शब्द हिंदी को ग्लोबल बनाने के लिहाज से बहुत ही उपयुक्त है ओर साथ ही साथ रचनाकार के ज्ञान भण्डार के परिचायक भी ,मुबारक बाद के सिवा ओर क्या दे सकते है हम

ismita का कहना है कि -

मग्न होने पर हँसती है
फटे होठों के दरारॊं के बीच बैठी धूल

शर्ट की चार बटनों के काज में
एक अलग रंग का धागा
डांट देता है उसे

जिससे बांह के नीचे, रफू से बना
आस्ट्रेलिया का नक्शा

bahut prabhavit kiya in bimbon nein........achhee rachna k liye badhi.....

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)