प्रतियोगिता की तेरहवीं कविता के रचनाकार चन्द्रकांत सिंह हिन्द-युग्म से काफी समय से जुड़े रहे हैं, लेकिन पहली बार इनकी कविता प्रकाशनार्थ चयनित हुई है। 1 जून 1984 को सोनभद्र (उ॰प्र॰) में जन्मे चन्द्रकांत जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली से एम॰ फिल की पढ़ाई कर रहे हैं। कविता-लेखन और योग में रुचि रखने वाले युवा कवि चंद्रकांत की कविताएँ ‘वाक्’, ‘समय-सरोकार’, ‘शब्दयोग’, ‘युद्धरत आम आदमी’ में प्रकाशित हो चुकी हैं।
कविता- कठिन होता है
कितना कठिन होता है
कविता में हँसना
कविता में रोना
कविता में गाना
कविता में सोना
कविता में जागना
हथलगी देखी
मुंहलगी देखी
दिल्लगी देखी
अब नहीं चाहता कुछ देखना
बन जाना चाहता हूँ
कब्र के ऊपर उगती घास
बदल जाना चाहता हूँ
दुनिया की सबसे महीन चीज में
जिसे निकियाना धकियाना
आसान न हो
न हो
न हो
जिसे खाक में मिला पाना
ज़रूरी है कि मैं कविता बन जाऊँ
अपने समय की तेज कविता
सच को
झूठ को
काली को
पीली को
नीली को
उसके होनेपन के साथ
खोलकर रख देने वाली कविता
कैसे मैं बन पाऊंगा कविता
क्या संभव है कि मैं बन सकूं
जीती जागती कविता
सब कुछ तो बिकता है
दियासलाई
दु:साध्य दवाई
लैनू मलाई
नकली भाई
इस लेनदेन के व्यापार में
खाली हाथ लिए टहलता हूं
आश के जुगनुओं की टिमटिमाहट के बीच
परान जलाता हूं
खुद को पकाता हूं
खाता हूं बासी भात
अगले ही पहर
काम की तलाश में
यहाँ से वहाँ फिरता हूं मारा मारा
हकासा पियासा
हालत से पस्त हूं
दिल से मस्त हूं
अब तो चाहता हूं
खुद को दफन कर दूं
शब्दों की क्यारी में
खुद की रोपूं मैं पौध
काम आसां नहीं
जान जा सकती है
बैठे बिठाए
अकड़ सकते हैं पैर
दो डग चलना भी नागवार हो सकता है
जो भी हो
चाहे मैं मारा जाऊं
चाहे हार जाऊं समर
नहीं परवाह अब
नहीं
नहीं परवाह
चलता ही जाऊंगा
कंकड़ीली राह पर
बिल्कुल अकेले
दोनों अपने हाथ फेंके
आज मैं जान चुका हूं
हां पहचान चुका हूं
कूबत हो आदमी में
अंतिम सांस तक भिड़ने की क्षमता हो
तो नहीं
बिल्कुल नहीं
मुश्किल है कविता में ढलना
एक बार कविता में जाने के बाद
आदमी बदल देता है
बहुत कुछ
जिसे बदलना
नामूमकिन सा दिखता है
दुनियावी बाजार में
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6 कविताप्रेमियों का कहना है :
हां पहचान चुका हूं
कूबत हो आदमी में
अंतिम सांस तक भिड़ने की क्षमता हो
तो नहीं
बिल्कुल नहीं
मुश्किल है कविता में ढलना
एक बार कविता में जाने के बाद
आदमी बदल देता है
बहुत कुछ
जिसे बदलना
नामूमकिन सा दिखता है
दुनियावी बाजार में
भाई चंद्रकांत जी आपकी आत्मविश्वास और भावनाएँ बहुत अच्छी लगी..जिंदगी में कविता का महत्व और उसका वास्तविक रूप एक बड़े ही अनोखे अंदाज में दर्शाया है..सरल और सहज शब्दों के द्वारा एक सुंदर अभिव्यक्ति का होना पाया जाता है आपकी इस कविता में..हमारी ओर से आपको हार्दिक बधाई..निरंतर लिखते रहिए...धन्यवाद
आपने कविता के माध्यम से भाव प्रदर्शन करने के अंदाज में बहुत कुछ कह दिया है और एक प्रेरक सन्देश के साथ समापन भी किया है. बधाई.
मैं आपसे सहमत हूँ.
"आदमी बदल देता है
बहुत कुछ
जिसे बदलना
नामुमकिन सा दिखता है"
भाई चंद्रकांत जी, कविता उसी क्षण से संवाद करने लग जाती है, जबसे उसके मूल विचार मन में अठखेलियाँ करने लगते हैं..वाकई कविता, ठीक उन्हीं अर्थों के सापेक्ष रच पाना इतना आसान नहीं जिन अर्थों ने उद्वेलित क्या होता है लेखनी उठाने को..प्रारंभ से ही आपके आत्मविश्वास का कायल रहा हूँ, लेखन तो आपका प्रखर है ही..
दिलचस्प, भाषिक बेफिक्री, अनुभवों की सांद्रता।
मुश्किल तो कतई नहीं लगा -कविता में-आपने सब कर ही तो लिया
कितना कठिन होता है
कविता में हँसना
कविता में रोना
कविता में गाना
कविता में सोना
कविता में जागना
हथलगी देखी
मुंहलगी देखी
दिल्लगी देखी
कविता की व्यथा के माध्यम से आत्मविसर्जन का यह सफ़र व्यष्टि से समष्टि के सफ़र की तरह लगा..
अब नहीं चाहता कुछ देखना
बन जाना चाहता हूँ
कब्र के ऊपर उगती घास
बदल जाना चाहता हूँ
दुनिया की सबसे महीन चीज में
जिसे निकियाना धकियाना
आसान न हो
देख रहा हूँ एक निरभ्र सूर्य को उदित होते..काव्याकाश मे..
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