प्रतियोगिता की नौवीं कविता की रचयित्री लता हया कविता की मंचीय परम्परा का नामचीन सितारा हैं। एक हिन्दू ब्राह्मण मारवाड़ी परिवार में जन्म लेकर उर्दू अदब के मंचीय खानदान तक पहुँच को आसान बनाने का श्रेय लता को जाता है। अलिफ़ लैला, कृष्णा, कुंती, औरत, अमानत, जय संतोषी माँ, कस्तूरी, कशमकश, अधिकार जैसे कई टी. वी. सिरिअल्स में काम किया। डी.डी -1 पर आने वाले धारावाहिक 'कसक' में, कलर्स पर आने वाले सीरियल 'मेरे घर आई एक नन्हीं परी' और ईटीवी-उर्दू पर आने वाले धारावाहिक 'सवेरा' में भी अभिनय कर रही हैं। इतनी सफलता के बाद भी हया मानती हैं कि इनकी रूह को शायरी से ही सुकून मिला। इनका बचपन जयपुर में गुज़रा।
पुरस्कृत ग़ज़ल
हुकूक अपने समझना मेरी आदत मेरी फितरत है
ये आदत तो ज़माने की निगाहों में बगावत है
ज़रा ज़हरे-सदाक़त पी के देखो तुम भी नक्कादों
यहाँ सुकरात बनना इक सजा है इक हिमाकत है
अकेले दम मैं ये तजवीज़ उनकी मुस्तरद कर दूं
जो ये कहते हैं औरत को पनाहों की ज़रूरत है
दरो-दीवार भी हस्सास हों घर हो तो ऐसा हो
फ़क़त बेजान से कमरों की मुझको क्या ज़रूरत है
मैं सहराओं में इतने अश्क ज़ाया करके आई हूँ
मेरी आँखों को अब बहते हुए पानी से नफ़रत है
हुनर तो भीख मांगे है पहन कर मल्गज़े कपड़े
यहाँ जो बेहुनर बेइल्म हैं उनकी सियासत है
मैं उस तकरीब में शामिल नहीं होती जो बेजा हो
जहाँ तहज़ीब फैशन है ताल्लुक इक तिजारत है
हया हुर्मत भी है, इस्मत भी है, गैरत भी, ज़ीनत भी
यही उसकी हिकायत है, यही उसकी हक़ीक़त है
शब्दार्थ-
हुकूक -हक, ज़हरे-सदाक़त- सच का ज़हर, तजवीज़ -प्रस्ताव, हस्सास- संवेदनशील
मल्गज़े- मैले कुचैले, तकरीब- उत्सव, तिजारत- व्यापार, नक्काद- आलोचक, मुस्तरद- रद्द
पुरस्कार- रामदास अकेला की ओर से इनके ही कविता-संग्रह 'आईने बोलते हैं' की एक प्रति।
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
हुकूक अपने समझना मेरी आदत मेरी फितरत है
ये आदत तो ज़माने की निगाहों में बगावत है
ज़रा ज़हरे-सदाक़त पी के देखो तुम भी नक्कादों
यहाँ सुकरात बनना इक सजा है इक हिमाकत है
urdu ke behtareen shabdon ko khubsurat bhavnaon me piro kar rachi gai kavita ...bahut badhiya gazal...shukriya lata ji...aur badhayi bhi
औरत को कमजोर समझाने वालो - सावधान!
वाह वाह लता जी अपनी ग़ज़ल से रूबरू कराने और प्रेरक सन्देश के लिए तहे दिल से शुक्रिया.
हिंदी युग्म के लिए -
लता जी की गजल पढ़ने का मौका आज मैं पाया
हिंदी युग्म यह करता रहे मेरी इबादत है
बहुत ही सुंदर गजल है।
बधाई।
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सिर पर मंडराता अंतरिक्ष युद्ध का खतरा।
परी कथाओं जैसा है इंटरनेट का यह सफर।
मैं उस तकरीब में शामिल नहीं होती जो बेजा हो
जहाँ तहज़ीब फैशन है ताल्लुक इक तिजारत है
अच्छे तेवर हैं
दरो-दीवार भी हस्सास हों घर हो तो ऐसा हो
फ़क़त बेजान से कमरों की मुझको क्या ज़रूरत है
इस ग़ज़ल की जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है।
अकेले दम मैं ये तजवीज़ उनकी मुस्तरद कर दूं
जो ये कहते हैं औरत को पनाहों की ज़रूरत है
kamaal hai......Lata ji sirf achchi shayra hi nahi...ek behad acchi insaan bhi....ishwar unhe prasanna rakhe
लता जी को हिंदयुग्म में पढ़ना अच्छा लगा।
गज़ल के हर शेर बड़े जोश में हैं।
बहुत लम्बे वक्त मे ऐसी मुकम्मल ग़ज़ल पढ़ने को मिलती हैं कहीं..
ज़रा ज़हरे-सदाक़त पी के देखो तुम भी नक्कादों
यहाँ सुकरात बनना इक सजा है इक हिमाकत है
..गज़ब कहा!!!
जिस ग़ज़ल में एक एक शेर हीरे सी चमक लिए जड़ा हुआ हो वो नायाब तो होगी ही...किसी एक शेर की तारीफ़ करना दूसरे के साथ ना-इंसाफी होगी...एक बेहतरीन ग़ज़ल जो बरसों बरस ज़ेहन पर छाई रहेगी...वाह...जिंदाबाद लता जी वाह...
नीरज
बेहद ख़ूबसूरत गजल...
टीवी सीरियल्स तो कभी हम देखते नहीं...
लेकिन गजल कहने का अंदाज बहुत पसंद आया...
haya ji bahut bahut mubarak ho badhi hi khubsurat ghazal kahi hai aapne!
-Sabir "Ghayal" Datia
-sabirghayal.blogspot.com
-sabir.ghayal@rediffmail.com
haya ji bahut bahut mubarak ho badhi hi khubsurat ghazal kahi hai aapne! sabirghayal
wah wah...bahut acha...marhaba....
I personaly salute you....keep on writing
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