प्रतियोगिता की सोलहवीं कविता के रचयिता साबिर 'घायल' का जन्म मध्य प्रदेश के दातिया शहर में एक किसान मुस्लिम परिवार में हुआ। मूलरूप से भिंड ज़िले की लहार तहसील के ग्राम लपवाहा के निवासी हैं। साहित्य इन्हें विरासत में नहीं मिला क्योंकि इनके परिवार का साहित्य या शायरी से कभी कोई संबंध नहीं रहा। इसकी शुरूआत इनसे ही ही हुई है। इन्हें शायरी का शौक बहुत कम उम्र में ही लग गया था लेकिन शेर कहने की सलाहियत अभी कुछ सालों से ही पैदा हुई है। जिसे ये लगातार सुधारने की कोशिश कर रहे हैं।
इन्होंने बी.कॉम तक शिक्षा ग्रहण की है। वर्तमान में ये एक रियल एस्टेट कंपनी के सी एम डी हैं जो हाइयर डेवेलपर्स लिमिटेड के नाम से जानी जाती है।
कविता- ग़ज़ल
कौन सुनता है मेरी फरियाद इस सरकार में।
हसरतों की लाश लेकर जाऊँ किस दरबार में।
कौन कहता है की हम आज़ाद-ओ खुद मुख्तार हैं,
बिक रहे हैं कितने युसुफ आज भी बाज़ार में।
जिन को पढ़ कर खौल उठता है लहू इंसान का,
ऐसी ख़बरें छप रही हैं रोज़ ही अखबार में।
इस व्यवस्था को हवा का एक झोंका चाहिए,
क्या बचा बाकी है अब इस रेत की दीवार में।
जब मिलेंगे देख लेंगे जंग के मैदान में,
ज़ोर कितना है तुम्हारी ज़ुल्म की तलवार में।
ऐसे रहबर अब नहीं चाहिए "घायल" हमें,
काफ़िले को छोड़ कर चल दे जो मझधार में।
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7 कविताप्रेमियों का कहना है :
इस व्यवस्था को हवा का एक झोंका का चाहिए,
क्या बचा बाकी है अब इस रेत की दीवार में।
जो व्यवस्था हवा के एक झोंके के सामने कमजोर साबित हो..उसका ढह जाना ही बेहतर है..
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल है..
ऊपर वाले शेर मे एक ’का’ एक्स्ट्रा सा लगता है
संदेशों से सराबोर शेरों से सजी ग़ज़ल लिखने के लिए घायल जी को धन्यवाद्.
१-२ मात्राओं की अधिकता या टाइपिंग की गलतियाँ लगती हैं लेकिन एक से ज्यादा बार पढ़कर ठीक उच्चारण से वो कमियां दूर हो जाएँगी. ग़ज़ल का भाव और संदेश इतना प्रेरक और काबिले तारीफ है कि छोटी-मोटी गलतियों को नजरंदाज किया जा सकता है.
तहे दिल से शुक्रिया और बधाई.
संदेशों से सराबोर शेरों से सजी ग़ज़ल लिखने के लिए घायल जी को धन्यवाद्.
१-२ मात्राओं की अधिकता या टाइपिंग की गलतियाँ लगती हैं लेकिन एक से ज्यादा बार पढ़कर ठीक उच्चारण से वो कमियां दूर हो जाएँगी. ग़ज़ल का भाव और संदेश इतना प्रेरक और काबिले तारीफ है कि छोटी-मोटी गलतियों को नजरंदाज किया जा सकता है.
तहे दिल से शुक्रिया और बधाई.
ऐसे रहबर अब नहीं चाहिए "घायल" हमें,
काफ़िले को छोड़ कर चल दे जो मझधार में।
या तो
ऐसा लिखें
या फ़िर
ऐसे रहबर अब नहीं चाहियें
एक तो ये लिखे ए नहीं दूसरे ये पर बिदीं लगाए बहुवचन हेतु
ए या ये के लिये भाई संज्ञा है अत: ई आना चाहिये भायी
भाई को जलेबी बहुत भायी- यहां भायी क्रिया ह अत: ई नहीं यी आता है यह व्याकरण का नियम है ।वैसे हम जल्द बाजी में लिख समझ लेते है
इस व्यवस्था को हवा का एक झोंका का चाहिए,
क्या बचा बाकी है अब इस रेत की दीवार में।
वाह..बहुत खूब..भाई ग़ज़ल बहुत ही बढ़िया लगी..बधाई स्वीकारे!!!
लहू उबल उबल कर अब तो ठंडा भी हो चुका ...संवेदनाएं शून्य होती जा रही है ...इन घटनाओं की पुनरावृति से ...
बहुत खूब घायल जी
अच्छी रचना है
ऐसा ही लिखते रहें ,बधाई हो
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