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Thursday, October 29, 2009

कुहरे के भीतर की बात और शब्दानुकूलित वायुमंडल


दिनेश कुमार शुक्ल की कविताएँ सपाट-बयानी और नारेबाजी से बहुत दूर हैं। इनकी कविताओं को पढ़कर पगडण्डी पर चलने का सुख और सुकूँ मिलता है, और ये पगडण्डियाँ गाँव और गाँव की त्रासदी जैसे सच तक या तो पहुँचती हैं या वहाँ से निकलती हैं। अब इन कविताओं से गुजर कर यदि आप बाज़ारों के शहर में खो जायें तो इसमें कवि का कोई दोष नहीं।

7. कुहरा

जैसे-जैसे होता है सूर्य उदय
कुहरा भी घना और घना होता जाता है
अपनी सफेद नीलिमा में कुहरा
दरअसल आकाश है बरसता हुआ
रेशा-रेशा उड़ता,
जैसे आँचल में
ढँक लेती है माँ अपने शिशु को
कुहरा ढँक लेना चाहता हे गोलमटोल बच्चे-सी पृथ्वी की

अमूर्तन से भरता हुआ संसार को
कुहरा हर चीज़ में
भरना चहता है और अधिक अर्थ
और अधिक आकार

कुहरा छल की रचना नहीं करता न फैलाता है मायाजाल
यह नुकीले कोनों और तीखी रेखाओं को
मद्धम करता हुआ, चुभन को कम करता,
यथार्थ को बनाना चाहता है और अधिक मानवीय

कुहरा संवेदना से गीला कर देता है
भयानक से भयानक बारूद को,
कुहरा प्रकाश को देता है प्रभामंडल
और अग्नि की लपेटों को
बनाता है स्निग्ध,
और जब वह समेट लेता है अपना रूप
तो वापस कर जाता है
धुली-पुँछी,
पहले से अधिक साफ
एक दुनिया

8. भीतर की बात

न बड़ा न छोटा
न खरा न खोटा
आदमी कोई एक समूची चीज़ नहीं
तमाम छोटे-छोटे जीवों का एक समूह है
छोटे-छोटे रागों की एक सिम्फनी,
छोटे-छोटे जीव और राग भी
आपस में न छोटे न बड़े
तभी न आदमी के भीतर
टकराने की आवाज़ें सुनाई देती हैं अकसर,
बड़े शहरों में छोटे-छोटे शहर,
एक-दूसरे के भीतर-बाहर फैले हुए
नन्द नगरी से नार्थ एवन्यू तक
तभी न इतने पहरे और पुलिस
भीतरी टक्कर रोकने के लिए,
राज की बात तो यह कि
हर विचार में घुसे बैठे हैं चार
या उससे भी अधिक विचार
तभी न हर विचार के भीतर मची है धमाचौकड़ी,
खुली-खुली सीधी-सी दिखती है जो बात
जाल बिछा है उसके भीतर
पेचीदा गलियों का
जिनमें भटकते ही जाना है-
इसीलिए लोग
सीधी सपाट बातों के भीतर घुसने से डरते हैं
वे उन बातों को बस मान लेते हैं चुपचाप
और कन्नी काट कर लेते हैं अपनी राह
और फिर उसी राह में भटकते चले जाते हैं...

ऊपर जो कुछ भी कहा गया है
अगर पढ़ रहा है कोई इसे
तो जान ले कि वह खुद भी इतिहास और भूगोल में
एस साथ फैली एक छोटी-सी जीविता आकाशगंगा है
और इतनी छोटी भी नहीं!


9. शब्दानुकूलन

ये बकरियाँ तो आपकी बलिदानी भावना को
समझने से रहीं
इसीलिए ये सींग टकरा ही देती हैं जब तब
और तिस भी जुर्रत
कि इनकी माँ ख़ैर भी मनाती रहती है......


बड़े ढीठ हैं कुछ शब्द
उन्हें आपके गम्भीर साहित्य की
गहराई से डर लगता है
आप जब घसीट कर लाते हैं उन्हें
तो कभी-कभी आपका लिखा सब फाड़ डालते हैं वे

मिला हूँ मैं उन बच्चों से
जो व्यस्क होने से कर देते हैं इनकार
और अपने बच्चों की वयस्कता पर
आँखें फाड़े खड़े रह जाते हैं

मैं जानता हूँ बहुत से मतदाताओं को
जिनके प्राण फड़फड़ाते हैं पोस्टरों की तरह
जब निकट आते हैं चुनाव

जानता हूँ मैं उन दिनों को
जो काटे कटते नहीं बल्कि लोग ही
कटते चले जाते हैं
ऐसे ही दिनों के भीतर भरी-दुपहर
रात फट-फट पड़ती है बारूद-सी

इस शब्दानुकूलित वायुमंडल में
क्या कहूँ मैं आपसे
जब एक शब्द के पास बचता है केवल एक ही अर्थ

आपके स्पष्ट विचारों
और आपकी सफल विभीषिकाओं
की अग्नि में जल रहा है संसार
कौन-सा सत्य अब उद्‍‍भासित करने जा रहे हैं आप!

अब मुझे डर लगता है
सच कहूँ तो आपसे
और अपने आप से

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10 कविताप्रेमियों का कहना है :

मनोज कुमार का कहना है कि -

संवेदन-शून्य हो चुके लोगों की असलियत को उजागर करने के लिए जो आपने यह रचना की है वह आपके सजग चेतना का प्रमाण देती है।

देवेन्द्र पाण्डेय का कहना है कि -

आदरणीय नियंत्रक महोदय-
आप तो ऐसे कविता प्रकाशित कर रहे हैं जैसे निर्धन के हाथ कोई खजाना लगा हो...
अरे, एक-एक कर प्रकाशित करते ताकि पाठकों को पढ़ने-समझने और उन पर अपने विचार लिखने का भरपूर वक्त मिल पाता। इतने गंभीर विषय पर लिखी तीनों कविताओं पर एक साथ टिप्पणी करना मेरे बस की बात नहीं।

विनोद कुमार पांडेय का कहना है कि -

कोहरा और आदमी की विशेषता बहुत ही बढ़िया ढंग से वर्णित किया आपने बहुत बढ़िया लगी आपकी कविता..धन्यवाद!!!

कबीर कुटी - कमलेश कुमार दीवान का कहना है कि -

आपकी कविता कोहरे और भीतर की बात पढ़ी,अच्छी हैं।
कोहरे मे यथार्थ शब्द चित्र उभरा है बधाई।

नियंत्रक । Admin का कहना है कि -

देवेन्द्र जी,

आप एक नहीं एक से अधिक बार पढ़िए और गुनिए। हमारा वादा रहा कि हम खजाना लुटाने में कभी कंजूसी नहीं करेंगे। बस यह समझ लीजिए कि कुबेर का खजाना लग गया है हाथ।

Asha Joglekar का कहना है कि -

कुहरा संवेदना से गीला कर देता है
भयानक से भयानक बारूद को,
कुहरा प्रकाश को देता है प्रभामंडल
और अग्नि की लपेटों को
बनाता है स्निग्ध,
और जब वह समेट लेता है अपना रूप
तो वापस कर जाता है
धुली-पुँछी,
पहले से अधिक साफ
एक दुनिया

बहुत पठनीय और मननीय कविताएँ कुहरा और शब्दालनुकूलित बहुत अच्छी लगी ।

SHYAM1950 का कहना है कि -

DINESH JI aapki rachnayein kisi ko tippani karne ke layak chhodti kahan hain ? pata nahin kya khakar maa ne aapko janam diya tha ..lekin kabhi kabhi falsafa, itihas aur bhoogol rachna par aachhadit ho jate hain jaise "bheetar ki baat" mein.. tab rachna mein se kavita nahin chhan pati..jo bhi ho aapki kavita ka kya kahna.. aapko padne ka ANAND HI ALAG HAI..HUM TO AAPKE ..

देवेन्द्र पाण्डेय का कहना है कि -

९ शब्दानुकूलन
पैरा-पैरा एक कोटेशन की तरह है जी चाहता है-सब याद हो जाय।
शैलेश जी - देखिए पहले पैरा की चौथी पंक्ति में--पर-छूट तो नहीं गया। मेरे खयाल से-तिस पर भी-होना चाहिए।

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

नहीं कुछ भी छूटा नहीं। 'पर' की ज़रूरत नहीं है वहाँ पर

Anonymous का कहना है कि -

हो सकता है मुझे कविता की समझा न हो ,मग र मुझे यह कविता शब्दों ka आडम्बर भर लगी उलझी -उलझी से जैसे कोइ अपनी विद्वता झाड़ रहा हो -एक कहानी थी हूँ इज नोट अफ्रारेड ऑफ़ वर्जिनिया व्लोफ़ जिसमे बॉस के फोन पर फिल्म के बडाई की जानी सुन व् बॉस का उस दिन फिल्म देखने जाने से सभी कर्मचारी वः फिल्म देखने जाते हैं आकर हर छोटा कर्मचारी अपने से बड़े को उसकी बडाई करता है तब बड़े बाबू बॉस के पास जाकर बडाई करने लगते हैं तो बॉस धमाका कर कहता है की फिल्म बकवास थी अब बडे बाबु छोटे को धमकाते हैं कैसी वाहियात फिल्म थी तुम नाहक .वैसे ही लगता है इसे अछि कविता कह सब कविता समझाने का और खुद को पारखी होने का दिखावा कर रहे हैं -वैसे मुझे मुक्ति बोध भि पसन्द नही हुआ इसे मेरी नादानी मान लें
रिया

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