ऊँड़स ली तू ने जब साड़ी में गुच्छी चाभियों वाली
हुई ये जिंदगी इक चाय ताजी चुस्कियों वाली
कहाँ वो लुत्फ़ शहरों में भला डामर की सड़कों पर
मजा देती है जो घाटी कोई पगडंडियों वाली
जिन्हें झुकना नहीं आया, शजर वो टूट कर बिखरे
हवाओं ने झलक दिखलायी जब भी आँधियों वाली
भरे-पूरे से घर में तब से ही तन्हा हुआ हूँ मैं
गुमी है पोटली जब से पुरानी चिट्ठियों वाली
बरस बीते गली छोड़े, मगर है याद वो अब भी
जो इक दीवार थी कोने में नीली खिड़कियों वाली
खिली-सी धूप में भी बज उठी बरसात की रुन-झुन
उड़ी जब ओढ़नी वो छोटी-छोटी घंटियों वाली
दुआओं का हमारे हाल होता है सदा ऐसा
कि जैसे लापता फाइल हो कोई अर्जियों वाली
लड़ा तूफ़ान से वो खुश्क पत्ता इस तरह दिन भर
हवा चलने लगी है चाल अब बैसाखियों वाली
बहुत दिन हो चुके रंगीनियों में शह्र की ’गौतम’
चलो चल कर चखें फिर धूल वो रणभूमियों वाली
{4 X मुफ़ाईलुन}
-गौतम राजरिशी
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
26 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत खूब ..बहुत खूब ..
पूरी रचना लाजवाब है पर ये पंक्ति तो बस पूछिये मत .............
"भरे-पूरे से घर में तब से ही तन्हा हुआ हूँ मैं
गुमी है पोटली जब से पुरानी चिट्ठियों वाली"
बधाई स्वीकारें हमारी तरफ से
bhut khoobsurat bhav...badhai.
आपकी इस शनदार ग़ज़ल में विषय को गहराई में जाकर देखा गया है और इसकी गंभीरता और चिंता को आगे बढ़या गया है।
बरस बीते गली छोड़े, मगर है याद वो अब भी
जो इक दीवार थी कोने में नीली खिड़कियों वाली
सोचा भी ना था....
के इतने दिन बाद हिंद युग्म की कविता वाला पेज खुल जाएगा..
और सामने होगी गौतम की गजल...वो भी फोन रखते ही,,,,,
.........
ये भी क्या इत्तेफाक नहीं है मेजर.....?????
लड़ा तूफ़ान से वो खुश्क पत्ता इस तरह दिन भर
हवा चलने लगी है चाल अब बैसाखियों वाली
....
पढता हूँ ...बार बार...
और सोचने लग जाता हूँ
बहुत दिन हो चुके रंगीनियों में शह्र की ’गौतम’
चलो चल कर चखें फिर धूल वो रणभूमियों वाली
कहाँ देते हैं आप तखल्लुस...?
आप हम से ज्यादा बेतख्ल्लुस है मेजर साहिब....
चलो चल कर चखें फिर धूल वो रणभूमियों वाली,,,,,,,,,,,,,,,
ये लाइन अजीब सा कर रही है दिल को ...
पर देखा जाएगा...
चलो 'गौतम', वहीं पर जो चमन वीरान है तुम बिन
अभी भी चाह वादी को है खूं की सुर्खियों वाली
कहाँ वो लुत्फ़ शहरों में भला डामर की सड़कों पर
मजा देती है जो घाटी कोई पगडंडियों वाली ..
बहुत बढ़िया....
ऊँड़स ली तू ने जब साड़ी में गुच्छी चाभियों वाली
हुई ये जिंदगी इक चाय ताजी चुस्कियों वाली
ताजगी बनी रहे
कहाँ वो लुत्फ़ शहरों में भला डामर की सड़कों पर
मजा देती है जो घाटी कोई पगडंडियों वाली
बिलकुल सही
लाजवाब रचना ..!!
Gautam raajrishi ki kavita ke liye badhaaee sweekar karen. Patrika ka yahi star banaaye rakhen.(RAVI)
गौतम भाई के ग़ज़लों के बारे में कहना इतना आसान नहीं है ... अपने देश की मिट्टी की खुशबु की बातें कितने करीने से उन्होंने की है वो देखते ही बनता है... हर शे'र अगर कहूँ के खुद के मुकम्मल ग़ज़ल है तो कतई गलत ना होगा.... बहुत बहुत बधाई
अर्श
बहुत अच्छी गज़ल
मेजर साहब को यहाँ देख कर मन प्रसन्न हो गया।
भरे-पूरे से घर में तब से ही तन्हा हुआ हूँ मैं
गुमी है पोटली जब से पुरानी चिट्ठियों वाली"
poori tarah se hindustani gajal.
badhiya laga padhkar.
मेजर साहब,
अब कैसी तबियत है आपकी। जब गोली लगने की खबर सुनी थी तो बड़ा सदमा लगा था। फिर जब पता चला कि जख्म गहरा जरूर है लेकिन चिंता की कोई बात नहीं है तो साँस में साँस आई।
अभी बस आपके हालचाल पूछने आया हूँ।
गज़ल पढने के बाद फिर से टिप्पणी करूँगा।
-विश्व दीपक
जिन्हें झुकना नहीं आया, शजर वो टूट कर बिखरे
हवाओं ने झलक दिखलायी जब भी आँधियों वाल
गौतम जी के ठीक होते ही जैसे ब्लाग जगत की रोनक फिर से लौट आयी है। उनकी जिन्दादिली को सलाम है
बहुत दिन हो चुके रंगीनियों में शह्र की ’गौतम’
चलो चल कर चखें फिर धूल वो रणभूमियों वाली
पूरी गज़ल लाजवाब है। गौतम जे को बहुत बहुत बधाई और आशीर्वाद्।हमारे बीच यूँ ही हंसते गाते रहें
मैं अभी हिंदी युग्म पर नया हूँ इसलिए कुछ दिन आप लोगों को सिर्फ सुनना या पढ़ना चाहता था मगर आपकी गजल पढ़कर रहा नहीं गया. सभी आपको मेजर साहब बोल रहें हैं इसलिए बिना कुछ जाने ही उनका अनुसरण करता हूँ और वाह वाह वाह वाह करने को मजबूर हो जाता हूँ.सारे शेर एक से एक उम्दा और अंतरात्मा को छूने वाले हैं. बहुत बहुत बधाई.
बधाई
मेजर अब तो कलम के भी
भरे-पूरे से घर में तब से ही तन्हा हुआ हूँ मैं
गुमी है पोटली जब से पुरानी चिट्ठियों वाली
बरस बीते गली छोड़े, मगर है याद वो अब भी
जो इक दीवार थी कोने में नीली खिड़कियों वाली
खिली-सी धूप में भी बज उठी बरसात की रुन-झुन
उड़ी जब ओढ़नी वो छोटी-छोटी घंटियों वाली
दुआओं का हमारे हाल होता है सदा ऐसा
कि जैसे लापता फाइल हो कोई अर्जियों वाली
कमप्यूटर की बेअदबी से पंक्ति अधूरी रह गई
मेजर साहिब कह रहा था कि अब तो आप कलम के भी जांबाज शूरमा हो चले हैं एक चुटकला है कि फ़ौज में सिपाहियों की भरती के लिये साक्षात्कार में
सवालकर्ता- नौ नीम
जवान- जी शायअद ६०
सवालकर्ता-फ़ेल नेक्स्ट
२-सवालकर्ता-नौ नीम
ज्वान- ७० -फ़ेल नेक्स्ट
सवालकर्ता- नौ नीम
जवान- ६९
शाबास तकरीबन सही है गोली पास वाले दुश्मन को तो लगेगी
हां एक दो निशाने थोडे इधर-उधर है जैसे
भरे-पूरे से घर में तब से ही तन्हा हुआ हूँ मैं
गुमी है पोटली जब से पुरानी चिट्ठियों वाली
यहां अगर- गुम हुई पोटली....शाय्द और करीब हो जाएगा
आपके स्वस्थ होने पर सकून हुआ,ईश्वर आपको दीर्घ व स्वस्थ जीवन दे इस दुआ के साथ सिमट्ता हूं
खिली-सी धूप में भी बज उठी बरसात की रुन-झुन
उड़ी जब ओढ़नी वो छोटी-छोटी घंटियों वाली
आह! मासूमियत की पराकाष्ठा
बहुत दिन हो चुके रंगीनियों में शह्र की ’गौतम’
चलो चल कर चखें फिर धूल वो रणभूमियों वाली
इस शेर के बारे में कुछ भी कहने की ज़रूरत नहीं है। आप क्या हैं और क्या कर रहे हैं, यह जगजाहिर है। मैं तो बस आपको सलाम हीं कर सकता हूँ।
गज़ल के बाकी शेर भी कमाल के हैं।
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक
ऊँड़स ली तू ने जब साड़ी में गुच्छी चाभियों वाली
हुई ये जिंदगी इक चाय ताजी चुस्कियों वाली
.....मासूम , खनकते से ख्याल
दीप की स्वर्णिम आभा
आपके भाग्य की और कर्म
की द्विआभा.....
युग की सफ़लता की
त्रिवेणी
आपके जीवन से आरम्भ हो
मंगल कामना के साथ
आपके सेह्तेआब होने की खबर सुनकर अच्छा लगा. और यह शे'र भी
ऊँड़स ली तू ने जब साड़ी में गुच्छी चाभियों वाली
हुई ये जिंदगी इक चाय ताजी चुस्कियों वाली
पूरी ग़ज़ल पढने के दौरान लगा की गौतम की लिखी है ...तब तक नाम नहीं पढ़ा था ...ग़ज़ल के अंत में नाम पढ़ा तो पता चला ये तो गौतम ही हैं ....कुछ पंक्तियाँ जो आपकी उपस्थिति का अहसास कराती रहीं ....
कहाँ वो लुत्फ़ शहरों में भला डामर की सड़कों पर
मजा देती है जो घाटी कोई पगडंडियों वाली
और
भरे-पूरे से घर में तब से ही तन्हा हुआ हूँ मैं
गुमी है पोटली जब से पुरानी चिट्ठियों वाली
puraani chithiyon का पता दे कोई hamko भी ....
बहुत sundar ग़ज़ल ....
saare asraar asardaar hai... raha nahi gaya .... laut kar aaunga!! Sirf aapki gazlon ke liye!!!
गोतम जी नमस्कार ,मै यह बिल्कुल नई हु ,अभी पदना शुरु किया है मैने ,आपका लेखन तो दिल पर छ्प गया हे,
हर शब्द मै यथार्थ का मर्म हे
जिन्हें झुकना नहीं आया, शजर वो टूट कर बिखरे
हवाओं ने झलक दिखलायी जब भी आँधियों वाली
भरे-पूरे से घर में तब से ही तन्हा हुआ हूँ मैं
गुमी है पोटली जब से पुरानी चिट्ठियों वाली
भाव पुर्ण पन्क्तिया है , धन्यवाद
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)