दोहों की दीपावली
दोहों की दीपावली, रमा भाव-रस खान.
श्री गणेश के बिम्ब को, 'सलिल' सार अनुमान..
दीप सदृश जलते रहें, करें तिमिर का पान.
सुख समृद्धि यश पा बनें, आप चन्द्र-दिनमान..
अँधियारे का पान कर करे उजाला दान.
माटी का दीपक 'सलिल', सर्वाधिक गुणवान..
मन का दीपक लो जला तन की बाती डाल.
इच्छाओं का घृत जले, मन नाचे दे ताल..
दीप अलग सबके मगर, उजियारा है एक.
राह अलग हर पन्थ की, ईश्वर सबका एक..
बुझ जाती बाती 'सलिल', मिट जाता है दीप.
किन्तु सूर्य का वंशधर, प्रभु के रहे समीप..
दीप अलग सबके मगर, उजियारा है एक.
राह अलग हर पन्थ की, लेकिन एक विवेक..
दीपक बाती ज्योति को, सदा संग रख नाथ!
रहें हाथ जिस पथिक के, होगा वही सनाथ..
मृण्मय दीपक ने दिया, सारा जग उजियार.
तभी रहा जब परस्पर, आपस में सहकार..
राजमहल को रौशनी, दे कुटिया का दीप.
जैसे मोती भेंट दे, खुद मिट नन्हीं सीप..
दीप ब्रम्ह है, दीप हरी, दीप काल सच मान.
सत-शिव-सुन्दर है यही, सत-चित-आनंद गान..
मिले दीप से दीप तो, बने रात भी प्रात.
मिला हाथ से हाथ लो, दो शह भूलो मात..
ढली सांझ तो निशा को, दीप हुआ उपहार.
अँधियारे के द्वार पर, जगमग बन्दनवार..
रहा रमा में मन रमा, किसको याद गणेश.
बलिहारी है समय की, दिया जलाये दिनेश..
लीप-पोतकर कर लिया, जगमग सब घर-द्वार.
तनिक न सोचा मिट सके, मन की कभी दरार..
सरहद पर रौशन किये, शत चराग दे जान.
लक्ष्मी नहीं शहीद का, कर दीपक गुणगान..
दीवाली का दीप हर, जगमग करे प्रकाश.
दे संतोष समृद्धि सुख, अब मन का आकाश..
कुटिया में पाया जनम, राजमहल में मौत.
आशा-श्वासा बहन हैं, या आपस में सौत?.
पर उन्नति लख जल मरी, आप ईर्ष्या-डाह.
पर उन्नति हित जल मरी, बाती पाई वाह..
तूफानों से लड़-जला, अमर हो गया दीप.
तूफानों में पल जिया, मोती पाले सीप..
तन माटी का दीप है, बाती चलती श्वास.
आत्मा उर्मिल वर्तिका, घृत अंतर की आस..
जीते की जय बोलना, दुनिया का दस्तूर.
जलते दीपक को नमन, बुझते से जग दूर..
मातु-पिता दोनों गए, भू को तज सुरधाम.
स्मृति-दीपक बालकर, करता 'सलिल' प्रणाम..
जननि-जनक की याद है, जीवन का पाथेय.
दीप-ज्योति में बस हुए, जीवन-ज्योति विधेय..
नन्हें दीपक की लगन, तूफां को दे मात.
तिमिर रात का मिटाकर, 'सलिल' उगा दे प्रात..
दीप-ज्योति तन-मन 'सलिल', आत्मा दिव्य प्रकाश.
तेल कामना को जला, तू छू ले आकाश..
***********************
आइये! मिलें दोहा परिवार के अगले सदस्य विमल ध्वनि से.
कुंडली, छप्पय, अमृत ध्वनि आदि की तरह विमलध्वनि में भी छः पंक्तियाँ (पद) होते हैं. प्रथम दो पद दोहा ही होता है. ३२-३२ मात्राओं के शेष चार पदों में सोलह-सोलह मात्राओं पर यति होती है.
छंद क्षीरधिकार ॐप्रकाश बरसैयां 'ॐकार' पदांत में तीन लघु होना अनिवार्य मानते हैं जबकि मेकलसुता संपादक कृष्ण स्वरूप शर्मा 'मैथिलेन्द्र' ऐसा कोई बंधन जरूरी नहीं मानते.
बत्तिस मात्री चार पद, सोलह पर यति संग.
हों पदांत में तीन लघु, दोहा-बाद अभंग..
छंद विमल ध्वनि है मधुर, कहीं न हो रस-भंग.
रच-पढ़कर आनंद ले, 'सलिल' काव्य की गंग..
उदाहरण:
१.
चमकत सारस-पंख सित, दमकत भानु प्रचंड.
झज्झज्झज्झहरात झर, झरना झुक भूखंड..
खंडज्ज्ल ढल, धध्धध्धावत, छछ्छछ्छहरत घघ्घघ्घहरत.
बब्बब्बरसत, सस्सस्सरसत, जज्जज्जनहित लल्लल्लहरत..
खख्खख्खनडत, पप्पप्पत्थर, कक्कक्कणकण, सस्सस्सरकत.
मम्मम्माझी, गग्गग्गावत, शस्शस्शफ़री, चच्चच्चमकत..
माझी = केवट, शफरी = मछली. -ॐप्रकाश बरसैयां 'ॐकार'
२.
हौले आवत हुलसकर, भँवरे हुए मतंग.
चुन-चुन कलियों के निकट, लगे जमाने रंग..
रंग जमावत, गुन-गुन गावत, अंग छुवावत करत ठिठोली.
देह दिखावट नैन चलावत, नेह लगावत, धरत बंहोली..
उड़-उड़ जावत, मुड़-मुड़ आवत, इत-उत-धावत, छाँड़त टोली.
तन पुलकावत, मन हुलसावत, रास रचावत, आवत होली.. -शिवशरण दुबे
३.
मात-पिता दोनों गए, हैं जबसे सुरलोक.
अन्धकार सा छा गया, दिखे नहीं आलोक..
कुछ न सुहाता, कुछ नहिं भाता, मन पछताता,पंथ भुलाता.
ध्यान लगाता, ज्ञान भुलाता, नित अकुलाता, रो-खो जाता..
कुछ झुँझलाता, कुछ भरमाता, चैन गँवाता, नैन भिगाता.
उठ-गिर जाता, थक-चुक जाता, मोह लगाता, निठुर रुलाता..
पाठक उक्त २ के अनुसार विमलध्वनि छंद की रचना का प्रयास करें.
****************
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
16 कविताप्रेमियों का कहना है :
जानकारी के साथ साथ सुंदर पठनीय दोहों की प्रस्तुति बहुत अच्छी लगी..सलिल जी का आभार
सार्थक और रुचिकार जानकारी...धन्यवाद!!
manywaar salil ji ke dohe padkar aur vistaar se unke bunaway par jaane ki iccha prabal hui hai.
doha chand ke bare mein koi samagri mil paye to bahut hi abhari rahoongi
sadar
Devi nagrani
गुरु जी,
प्रणाम!
दोहा परिवार के नये सदस्य ' विमल-ध्वनि ' पर एक छंद लिख कर प्रस्तुत कर रही हूँ:
मात-पिता जन्मदाता, नहीं करम पर जोर
ईश्वर के हाथों में, है भाग्य की डोर
अंधकारमय जीवन लगता, असह होता मन का आक्रोश
अंतर रह-रह विचलित होता, दुख का कम नहीं होता कोष
हर पल को होती अकुलाहट, निकलता औरों पर फिर रोष
सब किस्मत का लेखा-जोखा, सोच कर कीजे कुछ संतोष.
दोहों का दीपदान मन को भा गया !
विमल ध्वनी छंद आकर्षक लगा, बस शीघ्र ही कुछ लिखने का प्रयास रहेगा।
आत्मीय देवी नागरानी जी!
वन्दे मातरम.
पुस्तक प्रकाशन पर बधाई.
दोहा-लेखन पर हिन्दयुग्म पर ‘दोहा गाथा सनातन’ शीर्षक से मेरे लिखे लगभग ५५ पाठ लगे हैं. उन्हें देखिये. आपकी सभी शंकाओं का समाधान होगा.
‘divyanarmada.blogspot.com’ पर भी शीघ्र ही दोहा लेखन पर लेखमाला प्रारंभ होगी. आप यहाँ भी सादर आमंत्रित हैं.
साहित्य शिल्पी पर ‘काव्य का रचनाशास्त्र’ शीर्हक लेखमाला भी देखिये. इसमें अलंकारों का परिचय मिलेगा.
नेह नर्मदा में नहा, लें निर्मल आनंद.
शब्द-शब्द में गूँजते, पाएँगी नव छंद..
शन्नो जी !
दोहे को जाँचिये. विमल ध्वनि की प्रथम रचना हेतु बधाई.
अजित जी!
आपकी सहभागिता की प्रतीक्षा है.
सलिल जी इस बार तो एक साथ बहुत से सुन्दर दोहों की जानकारी दी. आभार.
एक विमल ध्वनि छंद बनाने का प्रयास किया है, अच्छा तो नहीं बन पडा है लेकिन बस तुकबंदी जैसा ही है -
ब्लाग जगत में लिख रहे, सब ही ताबड़तोड़
टिप्पणियों की आस में, करते होड़महोड़।
हिन्दयुग्म पर छायी कक्षा,
सबको मिल रहा दोहा ज्ञान
भाँति-भाँति छंदों की चर्चा,
हमको मिल रहा नूतन मान
यहाँ टिप्पणी की हो मंशा,
तुम करो विमलध्वनि का ध्यान
सोलह-सोलह गिनकर मात्रा,
हम करे गुरुजी का गुणगान।
चन्दन से महकें सलिल, चम चम चमके सीप.
मोती सम संजीव हैं, अंतर में सब दीप ..
दीप अलग सबके मगर, उजियारा है एक.
राह अलग हर पन्थ की, सबका ईश्वर एक..
रहा रमा में मन रमा, किसको याद गणेश.
बलिहारी है समय की, दिया जलाय दिनेश..
नन्हें दीपक की लगन, तूफां को दे मात.
तिमिर रात का दूर कर, 'सलिल' उगा दे प्रात..
दीप-ज्योति तन-मन 'सलिल', आत्मा दिव्य प्रकाश.
तेल कामना को जला, छू ले तू आकाश..
अपनी है ये कामना, फैले सलिल प्रकाश.
दोहे ये तारों सदृश, भर जाये आकाश ..
सादर,
इं० अम्बरीष श्रीवास्तव
गुरु जी,
प्रणाम!
आपने कुछ इंगित किया और मेरे दिमाग में कुछ खटका हुआ. फिर मैंने अपने ' विमल ध्वनि ' के छंद की जांच की और अपनी बुद्धि से जो गलत समझा उसे सही किया. किन्तु आपका बिचार जानना बाकी है की मैंने जो किया है वह अब ठीक है की नहीं.
मात-पिता गुजर जाते, नहीं हमारा जोर
लिखता विधान विधाता, पकड़े रहता डोर
अंधकारमय, लगता जीवन, सब कुछ नीरस, भरा आक्रोश
अंतर रह-रह, विचलित होता, है अपार दुख, न घटता कोष
हर पल होती, है अकुलाहट, निकलता रहे, सभी पर रोष
किस्मत का सब, लेखा-जोखा, सोचें ऐसा, न खोयें होश.
प्रणाम आचार्य जी,
एक और नए छंद से परिचय करवाने के लिए आपका आभार. एक उदाहरण बहुत विचित्र सा लगा और हमारे लिए सर्वथा नया सा भी है-
चमकत सारस-पंख सित, दमकत भानु प्रचंड.
झज्झज्झज्झहरात झर, झरना झुक भूखंड..
खंडज्ज्ल ढल, धध्धध्धावत, छछ्छछ्छहरत घघ्घघ्घहरत.
बब्बब्बरसत, सस्सस्सरसत, जज्जज्जनहित लल्लल्लहरत..
खख्खख्खनडत, पप्पप्पत्थर, कक्कक्कणकण, सस्सस्सरकत.
मम्मम्माझी, गग्गग्गावत, शस्शस्शफ़री, चच्चच्चमकत..
- -ॐप्रकाश बरसैयां 'ॐकार'
काव्य का रचना शास्त्र: ३४
'सलिल' काकु वक्रोक्ति में, ध्वनित अर्थ कुछ अन्य.
जब विशेष ध्वनि कंठ की, देती दूजा अर्थ.
तभी काकु वक्रोक्ति हो, समझें-लिखें समर्थ..
'सलिल' काकु वक्रोक्ति में, ध्वनित अर्थ कुछ अन्य.
करे कंठ की खास ध्वनि, जो कवी रचे अनन्य..
जहाँ पर कंठ की विशेष ध्वनि के कारण दूसरा अर्थ ध्वनित होता है वहाँ काकु वक्रोक्ति होती है..
उदाहरण:
१.
भरत भूप सियराम लषण बन सुनि सानंद सहौंगो.
पुर परिजन अवलोकि मातु सब सुख सानंद लहौंगो..
यहाँ पर भरतभूप, सानंद और संतोष शब्दों का उच्चारण काकुयुक्त होने से विपरीत अर्थ निकलता है.
२.
बातन लगाइ सखाँ सों न्यारो कै, आजु गह्यो वृषभानकिशोरी.
केसरी सों तन मंजन कै दियो अंजन आँखिन में बरजोरी..
हे रघुनाथ! कहाँ कहों कौतुक प्यारे गोपाल बनाइ कै गोरी.
छोड़ी दियो इतनो कहि कै, बहुरो फिरि अइयो खेलन होरी..
यहाँ 'बहुरो फिरि अइयो' में काकु ध्वनि होने के कारण अर्थ होता है कि अब कभी न आओगे.
**********************
अजित जी!, शन्नो जी!
प्रयास अच्छा है. और भी रचें.
पूजा जी!
हिंदी का समृद्ध गीति काव्य ऐसे अनेकों रोचक छंदों से संपन्न है. यह तो झलक मात्र है. आप कि लेखनी से नि:सृत प्रसाद की प्रतीक्षा है.
शमिख फ़राज़ जी!, अम्बरीश जी!, विनोद जी!
उत्साहवर्धन हेतु धन्यवाद.
गुरु जी,
उत्साह बढ़ाने के लिये बहुत धन्यबाद. लेकिन कभी-कभी बात का गूढ़ अर्थ समझना अपनी बुद्धि से परे लगता है.
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)