सरसी में है सरसता, लिखकर देखें आप.
कवि मन की अनुभूतियाँ, जातीं जग में व्याप..
इस लेखमाला में हम दोहे के सभी प्रकारों से परिचित होने के साथ-साथ दोहा परिवार के अन्य छंदों (रोला, सोरठा, कुंडली, दोही, उल्लाला, तथा बरवै) से भी मिल चुके हैं. दो पदों तथा चार चरणों वाले छंदों की इस कड़ी में अगला छंद है सरसी. इस मात्रिक छंद को कबीर या समुन्दर भी कहा गया है. 'छंद क्षीरधि' के अनुसार सरसी के दो प्रकार मात्रिक तथा वर्णिक हैं.
क. सरसी छंद (मात्रिक)
सोलह-ग्यारह यति रखें, गुरु-लघु से पद अंत.
घुल-मिल रहए भाव-लय, जैसे कांता- कंत..
मात्रिक सरसी छंद के दो पदों में सोलह-ग्यारह पर यति, विषम चरणों में सोलह तथा सम चरणों में ग्यारह मात्राएँ होती हैं. पदांत सम तुकांत तथा गुरु लघु मात्राओं से युक्त होता है.
उदाहरण:
१.
काली है यह रात रो रही, विकल वियोगिनि आज.
मैं भी पिय से दूर रो रही, आज सुहाय न साज..
-ॐप्रकाश बरसैंया 'ओमकार'
२.
आप चले रोती मैं, ये भी, विवश रात पछतात.
लेते जाओ संग सौत है, ये पावस की रात..
-ॐप्रकाश बरसैंया 'ओमकार'
३.
पिता गए सुरलोक विकल हम, नित्य कर रहे याद.
सकें विरासत को सम्हाल हम, तात! यही फरियाद..
-सलिल
४.
नव स्वप्नों के बीज बो रही, युव पीढी रह मौन.
नेह नर्मदा का बतलाओ, रोक सका पथ कौन?
--सलिल
५.
छंद ललित रमणीय मधुर हैं, करो न इनका त्याग.
जान सीख रच आनंदित हों, हो नित नव अनुराग..
-सलिल
दोहा की तरह मात्रिक सरसी छंद के भी लघु-गुरु मात्राओं की विविधता के आधार पर विविध प्रकार हो सकते हैं किन्तु मुझे किसी ग्रन्थ में सरसी छंद के प्रकार नहीं मिले. यह लेखमाला समाप्त होने पर सरसी के प्रकारों पर शोध का प्रयास होगा.
ख. वर्णिक सरसी छंद:
सरसी वर्णिक छंद के दो पदों में ११ तथा १० वर्णों के विषम तथा सम चरण होते हैं. वर्णिक छंदों में हर वर्ण को एक गिना जाता है. लघु-गुरु मात्राओं की गणना वर्णिक छंद में नहीं की जाती.
उदाहरण:
१.
धनु दृग-भौंह खिंच रही, प्रिय देख बना उतावला.
अब मत रूठ के शर चला,अब होश उड़ा न ताव ला.
-ॐप्रकाश बरसैंया 'ओमकार'
२.
प्रिय! मदहोश है प्रियतमा, अब और बना न बावला.
हँस प्रिय, साँवला नत हुआ, मन हो न तना, सुचाव ला.
-ॐप्रकाश बरसैंया 'ओमकार'
३.
अफसर भरते जेब निज, जनप्रतिनिधि सब चोर.
जनता बेबस सिसक रही, दस दिश तम घनघोर..
-सलिल
४.
'सलिल' न तेरा कोई सगा है, और न कोई गैर यहाँ है.
मुड़कर देख न संकट में तू, तम में साया बोल कहाँ है?
-सलिल
५.
चलता चल मत थकना रे, पथ हरदम पग चूमे.
गिरि से लड़ मत झुकना रे, 'सलिल' लहर संग झूमे.
-सलिल
ध्यान दें कि सरसी में लघु-गुरु की संख्या या क्रम बदलने के साथ लय भी बदल जाती है.
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10 कविताप्रेमियों का कहना है :
दोहे और उसके विविधता के बारें में बहुत ही सुंदर जानकारी जो अत्यन्त रोचक और ज्ञानवर्धक है साथ ही साथ बीच बीच में जो उदाहरण हैं वो बहुत ही बढ़िया, बार बार पठनीय है आचार्य जी को बहुत बहुत धन्यवाद जिनके सराहनीय प्रयास से हमें ऐसे अमूल्य जानकारी मिल पाती है..
गुरुदेव
सादर प्रणाम!
कक्षा का अपना कुछ गृह-कार्य कर लिया है मैनें. लेकिन यह चारों दोहे सरसी के मात्रिक छंद में लिखे हैं.
अविरल, सरस नर्मदा लेती, सबके पाप समेट
इसके जल से सींचें फसलें, भरती सबके पेट.
जल-तरंग में भरा हुआ है, जीवन का आभास
जीवन-मरण दोनों जगत में, हैं आवास-प्रवास.
बहुत धन्य है जीवन उनका, जो रहते हैं पास
तट पर करता बैठ मनन जो, जीवन आये रास.
आँचल फैला बहती जाती, चलता रहे प्रवाह
वेगवती सलिला के आगे, नत हो जाती राह.
व़ाह शन्नो जी, कमाल कर दिया। अब तो आप निपुण हो गयी है, बहुत ही श्रेष्ठ सरसी दोहों के लिए बधाई। गुरुजी मैं भी कक्षा में कुछ देर से आयी हूँ, इसलिए कुछ छूट चाहिए। बस एकाध दिन में दोहा प्रस्तुत करने का प्रयास करूंगी।
अजित जी,
बहुत धन्यबाद की आपने मेरे दोहों को सराहा, और मेरा हौसला बढ़ाया. और फिर आप कहाँ और किससे कम हैं जी? इतने अच्छे-अच्छे दोहे लिखे हैं आपने तो पहले और फिर करेंगी. आपको कक्षा में देखकर बहुत अच्छा लगता है. पर हमारे और साथी कहाँ गुम हो जाते हैं अचानक कभी-कभी?
और अभी तो गुरु जी के फैसले का भी इंतज़ार है बेसब्री से अपने दोहों के बारे में.
गुरु जी,
प्रणाम!
आज मैं ४ वर्णिक सरसी छंद लिखकर लाई हूँ जिन्हें कक्षा में अब प्रस्तुत कर रही हूँ:
गैरों से तो बस गैरत मिले, और अपनों में छिड़े जंग
कभी - कभी कुछ रिश्ते भी, कर देते हैं सबको तंग.
पीर दांत में जब उठी, दूभर हो गये दो कौर
जब काया ना हो आपे में, तो सूझे ना कुछ और.
फूल-पात सब बहते हैं इसमें, और कंकर पत्थर से टकराती
बहती रहे अनवरत पल-पल, नदिया कल-कल शोर मचाती.
सूरज की किरणें उतरें भू पर, तो स्वर्ण रंग सा बन जातीं
फ़ैल नर्मदा के आँचल पर, वह अपनी आभा बिखरातीं.
आचार्य जी
दो सरसी मात्रिक छंद प्रस्तुत हैं।
दीवाली तो पास आ रही, घर में ना है धान
सूख गयी है खेती बाडी, बची हुई बस जान।
कौन राम तुम कब आओगे, रावण चारो धाम
दीप आस का आंगन धर के, ढूंढू अपने गाम।
शन्नो जी के संग अजित जी, सरसी रचतीं आज.
बहुत बधाई है दोनों को, सधा सृजन शुभ काज..
सरसी बरसी पावस जैसे, आनंदित मन-प्राण.
'सलिल' संग पाषाण हो गए, पल में मिल सम्प्राण..
प्रणाम! गुरु जी,
सरसी के दो दोहे और लिखे हैं :
१. 'मात्रिक' सरसी छंद
रोम-रोम पुलकित सा मेरा, ह्रदय कहे आभार
पढ़कर वचन मैं आपके इन, वचनों पर बलिहार.
२. 'वर्णिक' सरसी छंद
शब्द - चयन से गात बना, और पड़ी भाव से जान
इस सरसी की तब रचना हुयी, है मिला गुरु से ज्ञान.
गुरु जी,
एक और 'मात्रिक' सरसी छंद लिखकर प्रस्तुत है:
सलिल पियन को हम-सब तरसत, महिमा का ना छोर
सलिल बिना जीवन नहीं और, त्राहि मचे सब ओर.
आचार्य जी को दिवाली की हार्दिक बधाई.
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