गीत कौन सा मैं गाऊँ ?
जग ये जैसे रो रहा है
मातम घर घर हो रहा है .
गीत कौन सा मैं गाऊँ ?
कैसे दुनिया को बहलाऊँ ?
देने सुत को एक निवाला
बिक जाती राहों में बाला .
कौन धान की हांडी लाऊँ ?
भर भर पेट उन्हें खिलाऊँ ?
खेल अनय का हो रहा है
न्याय चक्षु बंद सो रहा है .
कौन प्रभाती राग सुनाऊँ ?
इस धरा पर न्याय जगाऊँ ?
दो कौड़ी बिकता ईमान
’क्यू’ में खड़ा हुआ इंसान .
कौन ज्योति का दीप जलाऊँ ?
मानस को अंतस दिखलाऊँ ?
सत्य सुबकता कोने में
झूठ दमकता पैसे में
कौन कोर्ट का निर्णय लाऊँ ?
झूठ सच का अंतर बतलाऊँ ?
कवि कुलवंत सिंह
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10 कविताप्रेमियों का कहना है :
very good creation
सटीक लिखा है .. खुश होने के लिए कुछ भी नहीं बचा !!
देने सुत को एक निवाला
बिक जाती राहों में बाला
behad khubsurat rachana.hindyugm se abhee-abhee judav huva hai. yahan vakai ek se bad kar ek kavi goshti lagi hui hai .kulvant ji badhaai !
आपकी यह उत्कृष्ट रचना निम्न और निम्न मध्यवर्गीय जीवन के अवसाद को चित्रित करती आग्रहों से दूर वास्तविक जमीन और अंतर्विरोधों के कई नमूने प्रस्तुत करती है।
yatharth prstut karti arthpurn kvita
कौन ज्योति का दीप जलाऊं ...गीत कौन सा मैं गाऊं ..
हर संवेनदशील मन की यही दुविधा है ...!!
क्या खूब कहा है कुलवन्त जी । खेल अनय का हो रहा है, न्याय चक्षु बंद सो रहा है, कौन प्रभाती राग सुनाऊँ ? वाह, वाह !
दो कौड़ी बिकता ईमान ’क्यू’ में खड़ा हुआ इंसान . कौन ज्योति का दीप जलाऊँ ?
सही कहा आज तो यही हो रहा है
बहुत खूब
सादर
रचना
कुलवंत जी आसान शब्दों में सुन्दर कविता के लिए बधाई.
Dear friends..
thanks for your love...
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