अखिलेश श्रीवास्तव हिन्द-युग्म के जुलाई 2009 के यूनिकवि हैं और कविताओं की बेहतर परख रखने वाले एक प्रबुद्ध पाठक भी हैं। सितम्बर माह की प्रतियोगिता में इनकी कविता ने दूसरा स्थान बनाया है।
पुरस्कृत कविता
उठा लाये बच्चन की सिरहाने रखी कुछ
जीवनियाँ
महादेवी की बदलियों से ले ले
थोड़ा नीर
बिस्मिल की ग़ज़लों से
मिल जायेगी चिंगारी
और धूमिल से
माँग लेंगे
उनकी कनस्तर की पेंदी का आटा।
पूर्वज कर गए हैं व्यवस्था
कर्णधारो आओ
सब मिल सेंकते हैं हिंदी की रोटी।
नंगे हो कर माननीय बनो
और करो
भाषा से व्यधिचार।
गर टकरा गए आम जन से
तो घुड़क देना उसे
दिखा देना अपने शरीर पर
साटे डिग्रीयों के कागज।
शलाका पुरुषों
रेल को कहो लौहपथगामिनी
ग्लोबल वार्मिंग को कहो भुवन भभूका
अवनी अगन या तप्त उर्मिका
इक सबद भी न अपनाना
अंग्रेजी का
जलते रहो सौतिया डाह से।
आस पास की हवाओं में
मत लेने देना हिंदी को साँस
उसे जिलाए रखो वेंटिलेटर पर
ताकि लूट सको
उसके जिन्दा होने का श्रेय।
नित निकलना निविदायें
हिंदी को क्लिष्ट करने का
आम आदमी गर आम हिंदी बोले
तो सुना देना
जीभ से शब्दकोश पलटने की सजा।
भाषा पंडितो
मनाओ हिंदी पखवारा
श्राद्ध के दिन में
कभी न आने देना हिंदी का नवरात्र।
सुना है
खासते हुए मरे थे जयशंकर
जिद बहुत छोटी सी थी
नहीं खायेंगे वो दवाइयाँ
जिनके नाम पर्चे पर
लिखे गए हो अंग्रेजी में।
पुरस्कार- डॉ॰ श्याम सखा की ओर सेरु 200 मूल्य की पुस्तकें।
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12 कविताप्रेमियों का कहना है :
पूर्वज कर गए हैं व्यवस्था
कर्णधारो आओ
सब मिल सेंकते हैं हिंदी की रोटी।
Hindi ke bazarikaran par ek behtareen prstuti..aaj bhasha ka samman karane ke bajay log isese paia kamane par jyada jor de rahe hai....bahut sundar kavita...hindiyugm me sthan to banana hi tha...bahut bahut badhayi akhilesh ji..
आप की कविता ने तो सोचने पर मजबूर कर दिया सच है जो भी लिखा है .नई सोच है उत्तम लिखा है
बधाई
रचना
हिन्दी के तथा कथित विद्वान जो हिन्दी के नाम पर माल पूये और स्कॉच उड़ाते हैं उनका ही यह हाल है,बहर हाल भला हो फिल्म व ती वी चैनल का जो जैसी भी हो हिन्दी का प्रसार तो कर रहे हैं,इनके कारण ही हिन्दी बंगला देश,लंका ,पाकिस्तान तथा n r i के बीच फल फूल रही है
shyaam akhaa
हिन्दी के तथा कथित विद्वान जो हिन्दी के नाम पर माल पूये और स्कॉच उड़ाते हैं उनका ही यह हाल है,बहर हाल भला हो फिल्म व ती वी चैनल का जो जैसी भी हो हिन्दी का प्रसार तो कर रहे हैं,इनके कारण ही हिन्दी बंगला देश,लंका ,पाकिस्तान तथा n r i के बीच फल फूल रही है
shyaam akhaa
व्यंग्य के तत्व की मौजूदगी के तेवर और अद्भुत परिहास बोध आपकी रचना में एक ताक़त भरता है। यहां यथार्थ विस्तृत विवरणों में नहीं, व्यंजनाओं, संकेतों और परिहास की तहों में है। यदि इसे हताशा का संवेदनशील दस्तावेज कहूं तो अतिशियोक्ति नहीं होगी।
नये अंदाज मे और नयी सोच के साथ बहुत सुन्दर कविता अखिलेश जी को बहुत बहुत बधाई
कभी अगर रंगमंच पर निर्देशन करने का सुअवसर प्राप्त हुआ तो निश्चय ही इस रचना को आप कि अनुमति से जिवंत करूँगा ...बेहतरीन ....
बधाई स्वीकारें हमारी तरफ से ....
"सुना है
खासते हुए मरे थे जयशंकर
जिद बहुत छोटी सी थी
नहीं खायेंगे वो दवाइयाँ
जिनके नाम पर्चे पर
लिखे गए हो अंग्रेजी में।"
वाह क्या बात ..है
अखिलेश जी हार्दिक बधाई! अच्छे और नेक विचार हिंदी का प्रचार और प्रसार सरल और बोलचाल के रूप प्रयोग करने से ही होगा. बहुत सुंदर कविता है.
कविता की इतनी प्रसंशा के लिए आप सब का धन्यवाद.पहले भी कविता मुझे अच्छी जान पड़ी थी पर आप सब का प्यार पाकर यह मीठी हो गयी है.
आलोक की टिप्परी से अभिभूत हूँ. कवी के तौर पर उमने प्रतिभा है ही इतनी भावभीनी प्रशंशा का हिरदय भी . अगर सब्द कविता से निकल कर रंगमच तक चढ़ पाए तो उपलब्धि हिन्दयुग्म की होगी मेरी नहीं क्योकि आलोक जैसे लोग यही विराजते है.
मनोज ज के रूप में युग्म को इक सुधि पाठक मिला है जो सिर्फ कवियों मीर ग़ालिब बताने में यकीं नहीं rakhta बल्कि रचनाकार का कान पकड़ कर बेहर भी टीक karata है.
आप सभी का आभार.
खासते हुए मरे थे जयशंकर
जिद बहुत छोटी सी थी
नहीं खायेंगे वो दवाइयाँ
जिनके नाम पर्चे पर
लिखे गए हो अंग्रेजी में।
sundar kavita ke liye badhai
कविता में गज़ब की सोच छिपी हुई है.
उठा लाये बच्चन की सिरहाने रखी कुछ
जीवनियाँ
महादेवी की बदलियों से ले ले
थोड़ा नीर
बिस्मिल की ग़ज़लों से
मिल जायेगी चिंगारी
और धूमिल से
माँग लेंगे
उनकी कनस्तर की पेंदी का आटा।
“आओ सब मिल सेंकते है हिन्दी की रोटी” आपने चंद उदाहरण प्रस्तुत कर अपनी ही रोटी सेकी है, हिन्दी की नहीं. जय शंकर प्रसाद जी की जिद को हिन्दी के तथाकथित कट्टरपन से जोड़ना भी तर्कसंगत न होगा. हम भी हिन्दी की उपासना, साधना, सेवा आदि में लगे हैं तो इसका अर्थ यह भी नहीं है कि यह अपने आप आगे बढ़ने में सक्षम नहीं. हम हिन्दी के साथ केवल इस लिए जुड़े हैं कि यह हमारी माँ की तरह है. हम इसके साथ रहकर स्वयं को गौरवशाली अनुभव करते हैं. जो हिन्दी दिवस या हिन्दी सप्ताह आप मनाते हैं वह वास्तव में हिन्दी उत्सव है. बड़े बड़े कलाकार हिन्दी फिल्मों के माध्यम से खूब धन कमा रहे हैं मगर आप जब भी उनका साक्षात्कार लेते हैं तो वह अंग्रेजी ही बोलते हैं. यह कितनी विडम्बना है कि जिस माँ के कारण ये लोग इतने प्रसिद्ध और धनवान हुए उसी को ही भूल गए. अगर कोई बड़ा होने के बाद अपनी माँ कि सुध नहीं लेता तो इससे माँ का महत्व तो कम नहीं हो जाता. अगर आप ज़रा गौर करें तो पता चलेगा कि हिन्दी वह नहीं जो आपकी और हमारी कविता में देखने को मिलती है. ये वह भी नहीं है जो बड़े बड़े शब्दकोशों में दिखाई देती है. हिन्दी तो वह जुबां है जो इस मुल्क और दुनिया के ज़र्रे ज़र्रे में फ़ैल चुकी है. ये वह बयार है जिसकी ठंडक में आप और हम सांस लेते हैं. अपनी बात कहते हैं और दूसरों की सुनते हैं. अश्विनी कुमार रॉय
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