मुहम्मद अहसन हिन्द-युग्म का जाना-पहचाना चेहरा हैं। इनका नाम ऐसे पाठकों में शुमार है जो हर कविता पर अपनी सच्ची प्रतिक्रिया देने में विश्वास रखते हैं। आज हम इन्हीं एक कविता अपने पाठकों की नज़र कर रहे हैं।
कविता- नदिया बहिले थोड़ा धीरे, थोड़ा धीरे
हेएए ........ नदिया बहिले थोड़ा धीरे, थोड़ा धीरे
हेएए......... चलै बयार, उड़ें गोरिया के केस
घर मा गाय बियावै, भैया चले रे बिदेस
हेएए ........ नदिया बहिले थोड़ा धीरे, थोड़ा धीरे
हेएए....... खेत मा फूलै चना और घर मा तुलसी
सरसों ऊ रंग बिखारे पीला भावा रे देस
हेएए ........ नदिया बहिले थोड़ा धीरे, थोड़ा धीरे
हेएए........रात मा हम गावैं बिरहा सांझ मा भजना
दिन मा काटें हम दंगल दूर भवे सब कलेस
हेएए ........ नदिया बहिले थोड़ा धीरे, थोड़ा धीरे
हेएए.......... पूजें हम पीपल द्वारे और चढावें पानी
आँख मा बस गयी गोरी, चित्त मा हनुमान गनेस
हेएए ......... नदिया बहिले थोड़ा धीरे, थोड़ा धीरे
प्रथम चरण मिला स्थान- अठारहवाँ
द्वितीय चरण मिला स्थान- बारहवाँ
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
10 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत खूब...एक लोकगीत का प्रवाह लिए हुए ..सुंदर कविता..बधाई!!!
गाँव की मिट्टी से जुड़ा सोंधी खुशबु से पगा मनोहर गीत है .
ajkal sab jgh bhojpuri boli ki byar chal rhi hai .usi byar me yh kvita bhi bdi suhani lgi .
bdhai
aadrniy ahsan sahib aap meri anek gazal men navinta n hone ki tipni karte rahe hain aaj mera man hai poochne ka ki is men naya kya hai,bhav,kahan,lahja ky khin aapko koi naya pan dikh raha hai
shyam sakha shyam
हेएए.......... पूजें हम पीपल द्वारे और चढावें पानी
आँख मा बस गयी गोरी, चित्त मा हनुमान गनेस
ahsan bhaai ,aapka lok geet bada neek ba iiiiiiiiii to khaaskarke
श्याम जी,
ग़ज़ल तो शे'एरो के माध्यम से विचारों की अनंत उड़ान है, लाखों शे'एर, लाखों विचार . अनंत संभावनाएं . इसी लिए नए पण की तलाश.
एक लोक गीत क्या है! आंचलिक परिद्रश्य का मात्र चित्रण भर, लोगो के सुख दुःख. एक छोटी प्रष्ट भूमि पर लिखे जाने वाले गीतों में आप उसी भर की तो अपेक्षा रख सकते हैं जो अगल बगल घाट रहा है, जो लोगों के मन में चल रहा है.
गीत तो कभी भी विचारों के vaahak नहीं रहे , आप इस में aakhir कितना नया पण laaen ge . sher तो आप को saikdon याद hon ge,, कितने giit याद hon ge आप को. 2 या 3 .
और क्या likhuun !
vinod pande ji, neelam ji, shobhna chaure ji
aap sab ka haardik dhanyawaad.
मैं आदरणीय श्याम सखा श्याम जी के प्रश्न से सहमत नहीं था --लिखना चाहता था लेकिन समयाभाव ने नहीं लिखने दिया। जहाँ तक इस गीत का संबंध है मैं मुहम्मद अहसन साहब के उत्तर से सहमत हूँ। आंचलिक परिदृश्य में लिखे जाने वाले गीतों में लोक भाव को ही उजागर किया जा सकता है और यह कम महत्व का काम नहीं है।
लेकिन यह कहना कि गीत तो कभी भी विचारों के वाहक नहीं रहे गलत है। छाया वादी गीतों के बाद अब नव-गीत में हमें तरह-तरह के प्रयोग देखने को मिलते हैं। शेर हों, गीत हों या अतुकांत नई कविता ही क्यों न हो मेरी समझ में ये सभी अलग-अलग विधाएँ हैं और सभी विधाओं पर अलग-अलग विध्वानों ने समय-समय पर अपनी कलम चला कर इनकी सार्थकता सिध्द की है। यह अलग बात है कि हमारी पसंद कैसी है और हम किसको कितना समझ पाते हैं।
devendra ji,
meri vivechna ghalat thi.
geet saamaajik parivartan ke liye chetna jaagrt karne va kranti ke liye vichaaron ke vaahak rahe hain.
saadar
अहसन साहब आज आपकी शायरी का अं नया नदाज़ देखने को मिला है. बहुत खूब.
हेएए ........ नदिया बहिले थोड़ा धीरे, थोड़ा धीरे
हेएए......... चलै बयार, उड़ें गोरिया के केस
घर मा गाय बियावै, भैया चले रे बिदेस
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)