दो गुरु लघु हों चवालिस, दोहा नामित 'श्वान'
सूत्र: २ गुरु + ४४ लघु = कुल ४६ अक्षर
परिभाषा:
दो गुरु लघु हों चवालिस, दोहा नामित 'श्वान'
लिखना नहीं सरल 'सलिल', लिखकर कर पहचान..
दो गुरु दो गुण 'श्वान' के, जाग्रति औ' ईमान.
शेष चवालिस लघु मिला, रच दोहा गुणवान.
२ गुरु तथा ४४ लघु मात्राओं के संयोजन से बने दोहे को 'श्वान' कहा जाता है.
इस दोहे में मात्र दो मात्राएँ होती हैं जिन्हें द्वितीय तथा चतुर्थ चरण के अंत में अर्थात प्रथम व द्वितीय पद के अंत में रखा जाता है, शेष सभी अक्षर लघु होने से यह दोहा पढने में सरल किन्तु रचने में जटिल होता है.
ब्रज तथा भोजपुरी में ऐसे दोहे अल्प हैं किन्तु हिन्दी की खड़ी बोली में लगभग नहीं हैं.
इस अनुष्ठान के सहभागी अंतिम ५-६ प्रकार के दोहे हिन्दी की खड़ी बोली में रचकर इस अभाव को दूर करें.
उदाहरण:
१.
समय-समय रस बिन बहुत, समय-समय रसखान.
मचल-मचल सब कुछ चखत, घर-घर घुसकर श्वान.
- आचार्य रामदेव लाल 'विभोर'
२.
जगदव गत हिय-पतन-कृति, कलित प्रकृति-दृग कोर.
बिटप-बिटप पर लद सुमन, कि सित लसित हर ओर. -डॉ. राजेश दयालु 'राजेश'
३.
कदम-कदम पर अगम जग, जगमग-जगमग देख.
बहक-फिसल मत, बच 'सलिल', अजब-गजब विधि-लेख..-सलिल
४.
अमल-विमल हर-हर लहर, कलकल सलिल-निनाद.
विधि-हरि-हर प्रमुदित विहँस, हरकर हर अवसाद. -सलिल
५.
अनिल अनल क्षिति जग 'सलिल', सकल सृजन-शुभ मूल.
कण-कण निरख-परख सतत, मत कह कमतर धूल..
६. तन-मन-धन सब कुछ 'सलिल', गुप-चुप रहकर वार.
अजर-अमर निज वतन-रज, हँसकर सर पर धार..
७.
छन-छन छन-छनन छन, थिरक-थिरक घनश्याम.
लिपट-लिपटकर चमक सँग, खिल-खिल पड़ें सुनाम..
श्वान दोहे को सिद्ध करने के बाद हम आगामी श्रृंखलाओं में दो ऐसे दोहों की चर्चा करेंगे जो पदांत में गुरु-लघु नियम का पालन नहीं करते.
विगत कक्षा के पत्राचार में श्री श्याम सखा 'श्याम' ने एक अर्धाली का उल्लेख किया था. दोहा गाथा का आरम्भ करते समय हमने दोहों के इतिहास तथा दोहा द्वारा इतिहास या व्यक्तियों के जीवन में परिवर्तन की चर्चा का क्रम छेड़ा था जो पाठकों के रुच न लेने पर क्रमशः बंद कर दिया. यदि यह क्रम चलता रहता तो शायद यह दोहा भी उसमें आता...अस्तु,
संत कबीरदास जी से तो हर हिन्दीभाषी परिचित है. कबीर की साखियाँ सभी ने पढी हैं. कबीर पशे से जुलाहे थे किन्तु उनकी आध्यात्मिक ऊँचाई के कारण मीरांबाई जैसी राजरानी भी उन्हें अपना गुरु मानती थीं. जन्मना श्रेष्ठता, वर्णभेद तथा व्द्द्वाता पर घमंड करनेवाले पंडित तथा मौलाना उन्हें चुनौतियाँ देते रहते तथा मुँह की खाकर लौट जाते. ऐसे ही एक प्रकांड विद्वान् थे पद्मनाभ शास्त्री जी.
उन्होंने कबीर को शास्त्रार्थ के लिए ललकारा तथा कबीर को नीचा दिखने के लिए उनकी शिक्षा-दीक्षा पर प्रश्न किया. कबीर ने बिना किसी झिझक के सत्य कहा-
चारिहु जुग महात्म्य ते, कहि के जनायो नाथ.
मसि-कागद छूयो नहीं, कलम गही नहिं हाथ.
अर्थात स्वयं ईश्वर ने उन्हें चारों युगों की महत्ता से अवगत कराया और शिक्षा दी. उन्होंने न तो स्याही-कागज को छुआ ही, न ही हाथ में कभी कलम ली.
पंडित जी ने सोच की कबीर ने खुद ही अनपढ़ होना स्वीकार लिया सो वे जीत गए किन्तु कबीर ने पंडितजी से पूछा कि उन्होंने जो ज्ञान अर्जित किया है वह पढ़कर समझा या समझकर पढ़ा?
पंडित जी चकरा गए, तुंरत उत्तर न दे सके तो दो दिन का समय माँगा लेकिन दो दिन बाद भी उत्तर न सूझा तो कबीर से समझकर पढ़नेवाले तथा पढ़कर समझनेवाले लोगों का नाम पूछा ताकि वे दोनों का अंतर समझ सकें. कबीर ने कहा- प्रहलाद, शुकदेव आदि ने पहले समझा बाद में पढ़ा जबकि युधिष्ठिर ने पहले पढ़ा और बाद में समझा. पंडित जी ने उत्तर की गूढता पर ध्यान दिया तो समझे कि कबीर सांसारिक ज्ञान की नहीं परम सत्य के ज्ञान की बात कर रहे थे. यह समझते ही वे अपना अहम् छोड़कर कबीर के शिष्य हो गए.
हम भाई श्याम सखा 'श्याम' के आभारी हैं कि उन्होंने इस प्रसंग की चर्चा का अवसर प्रदान किया.
शेष फिर...
************************
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
23 कविताप्रेमियों का कहना है :
दोहे के बारे मे रोचक जानकारी मिली एवम् सभी दोहे भी अत्यन्त सुंदर भाव लिए हुए है.
हिंदयुग्म को आभार इस बेहतर प्रस्तुति के लिए.
आचार्य जी
अभी चार दिनों से प्रवास पर थी, पठानकोट गयी हुई थी। आते ही दोहे की कक्षा में झांका, नया गृह कार्य मिल चुका था। लेकिन खुशी थी कि अभी तक किसी ने भी अपना पाठ तैयार नहीं किया था। इसलिए अपने दोहे लिख रही हूँ शायद मेरे दोहे पढकर शन्नो जी की भी नींद खुले। -
अजब-गजब परिसर बहुत
अलग-अलग सब लोग
उथल-पुथल नहिं करि कबहुँ
जुड़त-जुड़त जब योग।
सुरग-नरक मम मन बसहुँ
दिखत करत जब ध्यान
जतन जपन तुम नित करहुँ
रहियत मन अभिमान।
सलिल जी को दोहों का बहुत अच्चा ज्ञान है. बधाई.
दोहेके बारे में ज्ञानवर्धक ,नई जानकारी मिली .आभार
अजित जी!
'श्वान दोहा' के सटीक उदाहरणों हेतु बधाई. आप दोहे के पूरे २३ प्रकारों पर हाथ साधिये.
प्रयास यह भी करें कि हिंदी कि खड़ी बोली का प्रयोग करें.
कर सकें तो राजस्थानी या मारवाडी में भी प्रयास करें.
दोहा-ध्वजवाहिका ऐसा करने में समर्थ है, यह मैं भली-भाँति जानता हूँ.
विनोद जी, मंजू जी!
आपका दोहा कहाँ है? जल्दी लाइए, सभी को प्रतीक्षा है.
शामिख जी!
कुछ उर्दू दोहे (अपने या औरों के) लाइए तो मजा बढ़ जायेगा.
सभी दोहे बहुत ही बेहतरीन लगे, आभार्
आचार्य जी ,
एक श्वान दोहा लिखने का प्रयत्न किया है, कृपया देखियेगा.
सुन नटखट गिरधर वचन, तरसन जन, हरि और !!
बरबस थिरकत अचल मन, बरस नयन चहुँ और !!
प्रणाम गुरुदेव,
अति कार्य रत होने से विवशता थी इसीलिये मैं कक्षा में बिलम्ब से आयी. एक श्वान दोहा लिखने का प्रयास किया है:
सखियन मन सिमरन करत, हुलसित मन अति होत
पलकन अटकत झरत जल, मिलन न फिर जब होत.
अजित जी,
घर में शादी थी तो उसके पहले से ही नींद का हिसाब-किताब बिगड़ चुका है और नींद पूरी ही नहीं हो पाती है. अब कुछ दिन खूब तबियत भर कर सोऊँगी. सोचा इस बार आपको मैदान मार लेने दूं और आपकी दिली तमन्ना पूरी हो जाये. कक्षा में आपने न केवल पहल की दोहा लिखने की वल्कि ख़ुशी है देखकर की आपने इतने अच्छे दोहे लिखे हैं. तो लीजिये, इस बार आपने बाजी मार ली. बधाई! और पूजा जी, आप भी कम नहीं हैं. Goodnight.
शन्नो पूजा अजित ने, साध लिया है श्वान.
शामिख सदा विनोद औ', मंजु करें रस-पान..
उन्हें बधाई जो रहे, अपना सृजन सँवार.
धन्यवाद उन सभी को, लुटा रहे जो प्यार..
आदरणीय गुरुदेव,
एक और श्वान दोहा लिखा है इस पर भी आपका कमेन्ट आवश्यक है.
खिलत सुमन मधुबन भरत, सुरभि उड़त हर ओर
चहक-चहक कलरव करत, खग कुल उड़ सब ओर.
शाबास.
आचार्य जी
आपके आदेशानुसार कुछ दोहे लिखने का प्रयास किया है लेकिन खड़ी और राजस्थानी भाषा में अपनी महारत नहीं है इसलिए क्षमा चाहती हूँ। आपके अवलोकनार्थ ये दोहे प्रस्तुत हैं -
1 रातों को सोवे नहीं, बोलो ऐसा कौन
तारों से पूछे सदा, क्यूँ चन्दा है मौन?
- भ्रामर
2 भादों में भी मेघ ना, सावन सूखा बीत
बीजों से फूटे नहीं, सूखे माटी रीत। - सुभ्रामर
3 कौन सहारा दे उसे, जो ना जाने प्रीत
कैसे वो मन में बसे, जो ना माने रीत।
- शरभ
4 आधा दे भरतार को, आधे में संतान
पत्नी देती बाँटकर, पूरा सबको मान।
- श्येन
5 वीजा लेते सर झुके, जाऊँ क्यूँ परदेश
देश रहो तो सर उठे, दे दो ये संदेश।
- मंडूक
6 अपनी धरती छोड़ के, जावे जो परदेस
घर का ना वो घाट का, भर ले कैसा भेस।
- मर्कट
7 खान गए थे अमरिका, रीता उनका मान
बोले अपने देश में, रहती सबकी शान।
- करभ
8 मानवता रटते रहे, मार खा गए जीव
एक वायरस बस गया, हिला दयी है नींव।
- नर
9 कब तक डरते खार से, यह तो जीवन सार
खार नहीं तो गुल नहीं, बनते कैसे हार।
- हंस
10 जग ने मुझको क्या दिया, नयन देख बस खोल
जितनी तुझमें साँस है, कितना उसका मौल।
- गयंद
11 लड़की एक किसान की, निरखे धरती बीज
फसल कटें तब धन मिले, मनती उसकी तीज।
- पयोधर।
शेष अगली किश्त में।
वाह...वाह... शानदार और जानदार..साधुवाद.
गुरु जी,
जब हम जागे देर से, ताक रही थी हार
अजित जी मार ले गयीं, फिर बाजी इस बार.
जीत हार में है छिपी, और हार में जीत.
जीत-हार हो सम जिसे, सलिल उसी का मीत..
प्रणाम गुरु जी,
यह दोहा आपके सम्मान में:
देत मनोबल गुरु-वचन, बहुत लगें अनमोल
स्नेहिल अभिव्यक्ति से, दें मिठास वह घोल.
आचार्य जी को प्रणाम करते हुए दो दोहे -
रोज-रोज परिश्रम करे, जीत न आए पास
जीत उसी की होत है, गुरु हो जिसके पास।
भाग्यशाली हम बहुत, मिला आपका साथ
अवसर आएगा कभी, चरण छुएंगे हाथ।
रोज-रोज कोशिश करे, जीत न आए पास
जीत उसी की हो सके, गुरु हो जिसके पास।
परिश्रम = ५ मात्रा,
किस्मतवाले हम बहुत, मिला आपका साथ
अवसर आएगा कभी, चरण छुएंगे हाथ।
भाग्यशाली = ७ मात्रा
कंकर में शंकर लखे, जो वह है गुणवान.
नमन अजित को सलिल का, अंतर हो रस-खान..
गुरु बाँटन की वस्तु ना, उनको सभी समान
हम आदर देते रहें, पदवी बहुत महान.
अजित जी,
आपके दोहे बहुत अच्छे लगे. बधाई!
आचार्य जी
कृपया स्पष्ट करें कि परिश्रम में 5 मात्राएं कैसे हैं क्या श्र को दो मात्रा गिना जाएगा। तथा भाग्यशाली में 7 कैसे हैं? ग्य क्या एक मात्रा ही होगी? यह भी बताए कि संजीदगी में कितनी मात्राएं हो्गी?
डॉ. अजित गुप्ता:
कृपया, स्पष्ट करें कि परिश्रम में 5 मात्राएं कैसे हैं क्या श्र को दो मात्रा गिना जाएगा। तथा भाग्यशाली में 7 कैसे हैं? ग्य क्या एक मात्रा ही होगी? यह भी बताए कि संजीदगी में कितनी मात्राएं हो्गी?
अजित जी !
नमन.
मात्रा संबंधी पाठ देखिये...मात्रा-गणना उच्चारण पर आधारित होती है. 'परिश्रम' बिलते समय 'परि' और 'श्रम' का उच्चारण अलग-अलग नहीं एक साथ किया जाता है. इससे 'श्र' में मिश्रित दो ध्वनियों 'श' तथा 'र' में से 'श' की आधी ध्वनि 'परि' के साथ बोली जाती है. 'परिश्' का संयुक्त उच्चारण ३ मात्राएँ + रम २ मात्राएँ = ५ मात्राएँ.
'भाग्यशाली' में 'भा' दीर्घ है. दीर्घ के बाद संयुक्त अर्धाक्षर (आधा 'ग') 'भा' के साथ मिल कर भी दीर्घ अर्थात २ ही रहेगा. शेष 'यशाली' की ५ मात्राएँ मिल कर कुल ७ मात्राएँ हुईं. संजीदगी में २+२+१+२=७ मात्राएँ हैं. 'सं' में 'स' तथा 'न' की २ ध्वनियों के कारण २ मात्राएँ हैं. सँवारना में 'सँ' का उच्चारण दीर्घ नहीं लघु है, 'न' की ध्वनि स्पष्ट न होने के कारण 'सँ' को १ ही गिनेंगे.
संभवतः समाधान हुआ होगा. आप स्वयं निष्णात हैं. अन्य छात्रों के हित-चिंतन में यह उपयोगी प्रश्न पूछकर आपने सबका भला किया. सबकी और से आभार.
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)