प्रतियोगिता की अगली कविता के रचयिता मुकुल उपाध्याय हिन्द-युग्म के लिए बिलकुल नये हैं। पाठकों के िलए जो संदेश इन्होंने लिख भेजा है, हम उसे अक्षरशः प्रकाशित कर रहे हैं-
"मेरी पहचान पहाड़ की है। लगभग 30 साल के इस जीवन में मैंने सबसे महत्त्वपूर्ण दिन अपनी मातृभूमि अल्मोड़ा, उतरांचल में बिताएं हैं ....नहीं बिताएं नहीं जियें हैं.....हाँ पिछलें 3 सालों से दिल्ली में एक विज्ञापन-कंपनी में कॉपी राइटर के तौर पर काम करते हुए वास्तव में जीवन बिता रहा हू।. घर में साहित्यिक माहौल नहीं था पर जीवन अपने विभिन्न रूपों में भरपूर बिखरा था....जो शायद अन्दर कहीं जमा होता चला गया और समय-समय पर कविताओं, कहानियों में प्रतिध्वनित होता रहा। जीवन में लगातार मिली मुश्किलों ने संवेदनशील बनाया तो अपने आसपास बिखरी कवितायेँ महसूस कर सक। गुलज़ार साहब के गीतों, नज्मों को सुन-सुन कर व प्रेमचंद, शरतचंद की कहानियों को पढ़-पढ़ कर साहित्यिक अंतर्द्रष्टि विकसित हुई। गुलज़ार साहब को अपने गुरु के रूप में महसूस करता हूँ क्यूँकि मुझे लगता है कविताओ को महसूस करना मैंने उन्ही के गीतों से सीखा है। मैं कविता को पहले जीने फिर लिखने में यकीन रखता हूँ। कविता मेरे लिए जीवन के रास्तों में आगे बढ़ने पर पीछे बनते चले जाते पदचिह्न की तरह है। मेरी भावनाओ के पदचिह्न जिन्हें मैंने जिया है। पिछले 10 सालों से ज़्यादा समय से लिख रहा हूँ पर अब तक बस 100 के आसपास नज्में, मुट्ठी भर गीत, मुट्ठी भर लघु कथाएँ व कालेज के दौरान कुछ कहानियों का नाट्य रूपांतरण व निर्देशन किया है...पत्र पत्रिकाओ में बहुत कम छपा हूँ, अपने पाठक मित्रो, दोस्तों और आसपास के लोगों के हृदय में तुलनात्मकरूप से ज्यादा। अब तक का सबसे बड़ा साहित्यिक पुरुस्कार अपनी एक कविता 'सोंधी खुशबू' के पाठ के दौरान गुलज़ार साहब की मुस्कुराहट और दुआ के रूप में मिले हैं। बाकी आपकी दुआ से सब ठीक ठाक है...."
पुरस्कृत रचना- चुप सी रहती हो
तुम कैसी खीज उतारती हो
बेगुनाह गैस के चूल्हे पर
जब सब्जी जल जाती है तुम्हारी
और तुम्हें कितना गुस्सा आता है
जब आटा वो गीला हो जाता है तुम्हारा
तेज़ हवा जब छू कर निकलती है तुम्हें
तुम्हारा दुपट्टा सरका जाती है
कमीज़ तुम्हारी हवाओं में लहरा जाती है
तुम उस पर भी कुछ बुदबुदाती हो मुंह ही मुंह में
पर तुम कितनी चुप सी रहती हो
कुछ भी नहीं कहती हो उनको
जो पूछते है तुमसे
घर से बस बहार ही निकलने पर
कहाँ जाती हो?
क्यूँ?
किसलिए?
तुम उन से तो कभी कुछ नहीं कहती हो!
उन मान्यताओं, परम्पराओं,धर्म और समाज को
जिन्होंने तुम्हें
तुम्हारे ड्राइंग रूम का शो-पीस भर बना कर रख दिया है
जिन्होंने तुम्हें तुम्हारी रसोई का बर्तन
चारपाई पर पड़ा बिस्तर
और किसी खूंटी पर टंके तौलिये के माफ़िक
सुविधाजनक बना दिया है
तुम उन से तो कभी कुछ नहीं कहती हो !
तुम उनसे कभी कुछ क्यूँ नहीं कहती हो?
नल से कहती हो, पानी से कहती हो
झाड़ू से कहती हो, कूड़े से कहती
सुई-धागे, कील-हथौड़े से कहती हो
परदे, चादर, गद्दे, लिहाफ़
सर्फ़, साबुन, दाग
सबसे झगड़ती हो
राशन, नून, तेल, चाय, शक्कर
जीरा, अजवाइन, आटे-दाल
सब पे बिगड़ती हो
और कभी-कभी तो मैंने तुम्हें
जली हुई रोटी को
हाँ रोटी को!
ओह शिट! कहते हुए भी सुना है
कहो ना मैंने सच ना कहा है ?
गैस सिलेंडर ने खाई है सुबह-सुबह गलियाँ तुम्हारी
वक़्त से पहले जब गैस ''हवा'' हुआ है
कभी साड़ी पे, कभी सेंडिल पे सवार रहती हो
कभी पायल, कभी झुमके से नाराज़ रहती हो
बालों पे झुंझलाती हो कंघे को आँख दिखाती हो
घर, दीवार, खिड़की, रौशनदान
सूरज, बादल, हवा, पानी
गीत, गजल, नज़्म, कहानी
सबने सुनी हैं झिडकें तुम्हारी
पर जहाँ बोलना होता है तुम्हें इतना भर
कि उन्हें सुनाई दे सके
तुम कितनी चुप सी रहती हो!
तुम उनसे कभी कुछ क्यूँ नहीं कहती हो?
प्रथम चरण मिला स्थान- नौवाँ
द्वितीय चरण मिला स्थान- नौवाँ
पुरस्कार- समीर लाल के कविता-संग्रह 'बिखरे मोती' की एक प्रति।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
32 कविताप्रेमियों का कहना है :
मुकुल जी,
ढेरों बधाईयाँ कविता पाठक से संवाद करती हुई आगे बढती जाती है।
एक गृहिणी कि नियति का हालातों / परिस्थितियों से संवाद करते हुये निम्न पंक्तियों ने इस कविता को वैशिष्ट्य प्रदान किया है :-
तुम कितनी चुप सी रहती हो!
तुम उनसे कभी कुछ क्यूँ नहीं कहती हो?
हिन्द-युग्म को अपने सद्प्रयास के लिये साधुवाद !
पत्रिका-गुंजन
जीतेन्द्र चौहान और मुकेश कुमार तिवारी की एक साहित्यिक पहल.......
mukul mere yar ..kab se intezar tha ki tumhari rachana kab ayegi yahaan .. nazm ke bare main kya kahun .. jante hi ho kya kahunga...waise bhi nazmon ko jeene walon ko chupchap jeene dena chahiye ...unke sath bakbak nahi karni chahiye ..hehe
aur jeevan parichay bhi tumahar [jisse main waqif to hun hi ..lein yahan padhna alag laga . } kaafi achha laga ...hehe ...
badhai ..rachana ke puraskrit hone par ......... baki baten phon par ... hehe
एक स्त्री की कुछ ना कह पाने की दशा को बहुत ही सुन्दरता के साथ वर्णित किया है.
बधाई
hehaheha ee ka kabitaa hai baabu !
yeke kabita kahan,,,,,,, murkhaataa he
निःसंदेह,बहुत ही बढिया
नई सोच के साथ कविता में नारी का रसोई की वस्तुओ से सकारात्मक संबंध सहनशक्ति के साथ दर्शाया है .नारी संस्कारी होने के कारण किसी से कुछ नही कहती है .
बधाई .
नई सोच के साथ कविता में नारी का रसोई की वस्तुओ से सकारात्मक संबंध सहनशक्ति के साथ दर्शाया है .नारी संस्कारी होने के कारण किसी से कुछ नही कहती है .
बधाई .
comment karana sikho jabarjasti ki tarif mut karo
good one! kafi dino baad hindyugm par aai... aur achcha laga kuch fresh padhe ko mila....ek home-maker ke liya kavita likhi aapne..... jo wastvikta mein neglected hai...
हाय, कैसी कैसी कवितायेँ अब हम पढने लगे
पढ़ के मस्तिष्क की धमनियों को सहलाने लगे
गुलज़ार साहब क्यूँ मुस्कुराए वो ही जानें पर
उन की मुस्कुराहट के क्या क्या अर्थ हम लगाने लगे
-हाय, कैसी कैसी कवितायेँ अब हम पढने लगे
पढ़ के मस्तिष्क की धमनियों को सहलाने लगे
गुलज़ार साहब क्यूँ मुस्कुराए वो ही जानें पर
उन की मुस्कुराहट के क्या क्या अर्थ हम लगाने लगे
-मुहम्मद अहसन
घरेलू स्त्री की चिडचिडाहट को दर्शाता ..
एक अच्छा लेख...
अनाम जी,
यदि लेख पसंद ना आया हो तो भी आपको अपनी आई.डी. से कमेन्ट करना चाहिए..
:)
aur agli dafaa wo 'सोंधी खुशबू'
awashay padhnaa chaahoongaa...
ahsan mera dost achchi comment.
manju to bas unam chah rahi hai. in ko pata hi nahi hai comment kya hote hai
manju aapko seekh deta hu bas inam k liye comment na karo bal k sahi tippadi karna seekho. inam chahiye bas aur koi matlab nahi
ahasan sir ..sirf mukul ki kavitaon ne aap ki dhamniyon ka ye hal kiya .. gajaanan manwav "mikutibodh " jais elogon ko padhenge to kya hoga...hehehe
baharhaal ..gulzar saab sirf muskuraye nahi the ...main aur mukul dono hi gulzar saab ke sath tha aur unhone kahaa tha. "achhi nazmen kahte ho .. " .. isliye musukurane ka arth yahi lijiye ..aur nahi ..
आपकी कविता का concept बहुत अच्छा है. बहुत ही ख़ूबसूरत बात कही. अंत बहुत अच्छा दिया है.
घर, दीवार, खिड़की, रौशनदान
सूरज, बादल, हवा, पानी
गीत, गजल, नज़्म, कहानी
सबने सुनी हैं झिडकें तुम्हारी
पर जहाँ बोलना होता है तुम्हें इतना भर
कि उन्हें सुनाई दे सके
तुम कितनी चुप सी रहती हो!
तुम उनसे कभी कुछ क्यूँ नहीं कहती हो?
साथ ही मुझे कुछ कमिया भी नज़र आई. जैसे मुझे लगा कि यह लाइन
"गैस सिलेंडर ने खाई है सुबह-सुबह गलियाँ तुम्हारी"
जितना मैंने पढ़ा है उससे यही अंदाज़ लगाया है कि सीधे तौर पर शायरी में इस तरह से नहीं कहना चाहिए. बल्कि इस बात को कुछ इस तरह से भी कहा जा सकता है जैसे
"गैस सिलेंडर ने भी सुबह-सुबह तुम्हारी नाराज़गी देखी है बता रहा था मुझे".
इसी तरह से आपने एक लाइन लिखी
"ओह शिट! कहते हुए भी सुना है" मेरे लिहाज़ से यह भी ठीक नहीं है क्योंकि आपने एक तरफ नारी को बहुत कमज़ोर बताया है और दूसरी तरफ इस तरह की लाइन से कुछ modern लग रही है.
यह मेरा यानि हिन्दयुग्म के एक छोटे से पाठक का नजरिया है. यह किसी विशेषज्ञ की राय नहीं है.
पर जहाँ बोलना होता है तुम्हें इतना भर
कि उन्हें सुनाई दे सके
तुम कितनी चुप सी रहती हो!
तुम उनसे कभी कुछ क्यूँ नहीं कहती हो?
कितना कुछ दिया आपने बिना कुछ सुने खामोश दिल की बातों को बेहतरीन प्रस्तुति के लिये बधाई ।
Mein chup si rehti hoon.
Bas bejaan Vastuoon se kuch kehti hun,
Mujhe yeh insaan kya samajh paega
mein khud ko samajh na saki hun |
देखो भाई गुनी जनों आप सभी का शुक्रिया. अब भाई जिन मित्रों तक मेरी भावना पहुंची उनका शुक्र गुजार तोह रहूँगा ही और जिन सजन्नो को इस अदरक में स्वाद नहीं आया उनके लिए मैं चाहूँ तोह भी क्या कर कर सकता हूँ. आप का भी शुक्रिया ! ठीक तोह है स्वप्निल भाई अब इन अहसन सर सरीखे लोग तंगडी ना मारे तो चलने की जिद भी कैसे पैदा हो किसी ने कहाँ भी है ना भाई निंदक नियरे राखिये.....हर सफल शायर की जिंदगी में ऐसे सैकडों टंगखिचिये लोगो की दरकार होती है. अहसन भाई मेरी जिंदगी (कविता) में कोई क्यूँ मुस्कुराया उसको गुदगुडी उठी थी या के मेरे सींग निकल आये थे इस सब पर लिख कर आपने जिस सहितियिक सरोकार का परिचय दिया है उससे आपको बगेर देखे भी आपकी समझ और व्यकित्व का परिचय मिलता है . बेहतर ना होता आप कविता के बाबत ही बात करते उसी की बखिया उधेरते खैर....आपके के ये तंज मुझे रंज ना दे फूल बने ये शूल और खुशबू दे. आप ऐसी बाते नहीं करते तो मुझे नीद से जगायेगा कौन....बहुत आलसी हूँ आशा करता हूँ आपकी ये बाते मेरे जीवन का आलस दूर करेंगी.एक और मित्र ने बताया की विचार अच्छा है पर मैं फलां बात फलां तरीके से कह सकता हूँ तो मित्र आपकी सलाह के लिए शुक्रिया पर सनसेट के रंग सबके लिए अपने अलग-अलग कैफियत लाते है...मेरी कैफियत आपसे जुदा हो सकती है फिर भी आपने मुझे जोबताने की कोशिश की शुक्रिया.....खैर आप सभी लोग जिन्होंने मुझे समझा और अपने कमेन्ट लिख कर इज्ज़त दी तहे आपका तहे दिल से शुक्रिया.
रोज्मरा की ज़िन्दगी से प्रतीकों को उठा कर .. एक होम मेकर के दुःख को बहुत सुन्दरता से कहा है आपने .. बधाई
मुकुल,
१- "आपने जिस सहितियिक सरोकार का परिचय दिया है उससे आपको बगेर देखे भी आपकी समझ और व्यकित्व का परिचय मिलता है" आप को उद्ध्रत कर रहा हूँ
तो आप मेरी समझ औ व्यक्तित्व तक पहंच गए, और बहुत जल्दी.
आप के अपने परिचय में मुझे एक ओढी हुई शालीनता और स्व प्रदर्शन की बू आ रही थी. आप का उत्तर पढ़ कर अपने आप को सही पाया.
२-मैं आशा करता हूँ आप भविष्य में बहुत अच्छी अच्छी कवितायेँ लिखें गे जो भाव प्रधान हों गी तथा जिन में प्रभाव पैदा करने के लिए shit ऐसे गैर संस्कारी शब्दों की आवश्यकता नहीं पड़े गी, उन में और अधिक मधुरता हो गी.
३- किसी भी कविता का सब से बड़ा समीक्षक स्वयं वह कवी होता है जिस ने लिखा है.
आप को प्रशंसा के लिए किसी और की ओर देखने की आवश्यकता नहीं रहे गी.
४- जो शामिख ने कहा उस को दूसरे शब्दों में यूं कहा जा सकता है ki कविता और कहानी के संवादों में कहीं कुछ अंतर होना चाहिए
-मुहम्मद अहसन
कवि को अपनी कविता मे जिने दे भाषा का भदेस न करे ,प्रयोग वादी और नयी कविताए जब लिखनी सुरु हुइ तो कवियो ने आम जन कि बोलचाल वाली भाषा मे लिखना शुरु किया ,अग्येय,धुमिल और सर्वेश्वर कयी कवियो ने अपनी कयी कालजयी कविताए लिखी.मन्ग्लेश डबराल कि कविताए भी भाषा कि सुध्दता से ज्यादा उसके कथ्य और सम्प्रेशणियता पर जोर देती है.थोडा सा हिन्दी भाषा के इतिहाश पर भी गौर करे, आज जो भाषा हिन्दी के रूप मे हमारे सामने है दरशल वह कयी सभ्यताओ के सन्क्रमण का परिणाम है. मौजुदा समय कि बात करे तो फ़िल्म और टेलीविजन कि भाषा ने एक नयी परिपाटी कि शुरुवात कि है तो भयी उसमे कविता लिखना बुरा नही . अच्छी कविता है अच्छा प्रयाश है ,टिप्पणी कारो के लिये एक बात कहुन्गा नामवर सिह बनने के लिये बहुत अध्ययन कि जरुरत है
a nice presentation;a shade of gulzar-lehza shows ,here;nontheless remember,gulzaar saahib also has mastered behr=rhythm,and that also shows in his peoms;you need to work on that part;keep up the good work;read critically ,the known writers;rest will come with time
meri duaaen aap ke saath hain
"कवि को अपनी कविता मे जिने दे भाषा का भदेस न करे ,प्रयोग वादी और नयी कविताए जब लिखनी सुरु हुइ तो कवियो ने आम जन कि बोलचाल वाली भाषा मे लिखना शुरु किया ,अग्येय,धुमिल और सर्वेश्वर कयी कवियो ने अपनी कयी कालजयी कविताए लिखी.मन्ग्लेश डबराल कि कविताए भी भाषा कि सुध्दता से ज्यादा उसके कथ्य और सम्प्रेशणियता पर जोर देती है.थोडा सा हिन्दी भाषा के इतिहाश पर भी गौर करे, आज जो भाषा हिन्दी के रूप मे हमारे सामने है दरशल वह कयी सभ्यताओ के सन्क्रमण का परिणाम है. मौजुदा समय कि बात करे तो फ़िल्म और टेलीविजन कि भाषा ने एक नयी परिपाटी कि शुरुवात कि है तो भयी उसमे कविता लिखना बुरा नही . अच्छी कविता है अच्छा प्रयाश है ,टिप्पणी कारो के लिये एक बात कहुन्गा नामवर सिह बनने के लिये बहुत अध्ययन कि जरुरत है"
बिलकुल सही फरमाया , तभी शाएद इस पैराग्राफ में उच्चारण और व्याकरण की इतनी अधिक गलतियां हैं.
मुहम्मद अहसन
अहसन साहब मेरे जीवन परिचय में आपको एक ओढ़ी हुई शालीनता और स्व प्रदर्शन की बू पहले ही आ गई थी....और फिर आगे चल कर मेरे प्रतिउत्तर को पढ़ कर आपका मेरे सम्बन्ध में ये शक सही निकला. अरे वहा ! साहब आप एक कवी व आलोचक, होने के साथ-साथ एक मनोविद भी है ये जान कर सिर्फ मुझे ही नहीं. सभी कवी व पाठक समाज को प्रसन्नता होगी..... अहसन साहब समस्त हिन्दयुग्म समाज के सम्मुख में आप से एक बात जानना चाहूँगा की....क्यूँ कर आपके द्वारा मेरे जीवन परिचय में इतना गहरा उतरने की ज़रुरत महसूस हुई .धयान दीजियेगा ! इतना गहरे उतरने कि, जहाँ से आपको मेरा वास्तविक 'मैं' क्या है. मुझ में कितनी खूबियाँ हैं (ओढ़ी हुई शालीनता, स्व प्रदर्शन) की बू मिल सकी. अरे कविता पढ़ते उसके बाबत करते. आप मेरे व्यक्तिव को समझ ने में जुट गए...और इतना ही नहीं मुझे तो छोड़िए गुलज़ार साहब क्यूँ मुस्कुराये,और उनके मुस्कुराने के क्या मानी रहे होंगे,आप यहाँ तक गुस गए अरे साहब मेरी इस कविता का गुलज़ार साहब के मुस्कुराने से भला क्या सम्बन्ध हो सकता था . इसके अलावा भी तो मेरे द्वारा कुछ लिखा गया हो सकता है जो पूरा ना सही आंशिक रूप से ही सही अच्छा भी हो सकता है. और उस पर कोई दिल चाहे तो स्नेह से मुस्कुरा भी सकता है फिर उन कोई में गुलज़ार साहब भी हो सकते है. आप भी! वैसे आप भी क्या कर सकते है हम लेखक सरीखे लोगों को कई बार कुछ ज्यादा ही सोचने की बीमारी लग जाती है.
अहसन साहब जैसा की आप जानते ही होंगे हिन्दयुग्म के मांगे जाने पर मेरे द्वारा ये जीवन परिचय लिखा व भेजा गया,जिसमें वो (हिन्दयुग्म) किसी भी प्रकार की एडिटिंग व काट-छांट करने के लिए स्वतंत्र था. पर उनके द्वारा ये शब्द-सह प्रकाशित कर दिया गया गया. इस लिए आपकी ओढ़ी हुई शालीनता, स्व प्रदर्शन वाली बात मान भी लूँ तो मैं आपका पहला दोषी नहीं हूँ. जिन्होंने मेरे इस बू युक्त परिचय और निर्णायक मंडल जिन्होंने मेरी शिट युक्त कविता को यहाँ अंतिम १० में ८ स्थान दिया, आपके पहले दोषी तय होते है......तो यदि आपको आपनी बात में ज़रा सी भी सच्चाई का यकीन है तो आपको हिन्दयुग्म का गरेबान ना सही उनकी ओर उंगली उठाने का साहस तो करना ही चाहिए.....वो अलग बात है जहाँ आपको बू मिली संभवतः वहां मेरी बतों में हिन्दयुग्म को कोई खुशबू मिली हो. तभी मेरा परिचय उनके द्वारा मेरे शब्दों में जस-का-तस रख दिया गया...खैर इस बात का दावा नहीं कर रहा...आपने आगे लिखा है की मैं भविष्य में अच्छी-अच्छी कविताये लिखूंगा भावप्रधान होने के साथ साथ जिस में प्रवाह पैदा करने के लिए शिट जैसे गैर संसकारी शब्द का प्रयोग नहीं होगा. तो सर मेरा ये मानना है की कविता अपने शब्द खुद तय करती है कविता का विचार,भाव अपनी अपनी अभिव्यक्ति के लिए शब्दों का चुनाव खुद ही कर लेता है हम जो खुद को कवि,लेखक आदि आदि समझ कर इतराए फिरते है वास्तव में अपनी भावनाओ की नौकरी भर करते है भाव अपने को व्यक्त करने के लिए जिस शब्द की ज़रुरत महसूस करते है हम अपने अनुभव के शब्द कोष से उसे उस शब्द की ज़बान भर देते है. निमित मात्र भर है हम कविता खुद अपनी शक्ल ओ सूरत , अपना रंग ओ रूप,व कद तय करती है ओ शिट! मेरे लिए कोई गैर संसकारी या भद्दा शब्द नहीं है ये मेने जहाँ पर प्रयोग किया है पूरे यकीन के साथ स्वत स्फूर्त इस्स्तेमल किया है
स्वत स्फूर्त इस्स्तेमल किया है इसे प्रयोग करने वक़्त ही मैंने महसूस किया था की ये मेरी कविता की भावना को बेहतर व्यक्त कर रहा है और विचार की धार तीखी कर रहा है और हाँ सौंदर्य भी. अगर मेरा दौर और विषय मेरी कविताओ के शब्दों में नहीं रिफ्लेक्ट होता तो मेरी कविता कभी समाज का दर्पण नहीं हो सकती और साहित्य समाज का दर्पण है यह बात बहुत पहले ही हमारे साहित्यकारों द्वारा महसूस की गई है. '' किसी भी कविता का सब से बड़ा समीक्षक स्वयं वह कवी होता है जिस ने लिखा है.'' ऊपर लिखे आपके इन सर्वथा सत्य विचारों के आधार पर ही में यहाँ आपनी कविता की समीक्षा प्रस्तुत कर रहा हूँ मेरा मकसद ना स्व प्रदर्शन है ना यहाँ में किसी कोई सीख देने की कोशिश कर रहा हूँ. आप और आपके सायों के अंधेरों में छुप कर बोलने वालों के लिए जिनके पास आपके जितना सहस भी नहीं के उजाले में आ कर सीधे मुझ बात कर सके और अपने शब्दों के लिए लिए जवाब देह रहे...उन लोगों के सम्मुख में में अपनी कविता के कपड़े उतार रहा हूँ ताकि आप देख सके की मेरी कविता की देह भूसे की नहीं है. ये अँधेरे में मारा गया तीर नहीं है. एक और उद्धरण रखने की जुर्रत करूँगा यदि में आपसे कहूँ की ये चड्डी शब्द कितना ख़ूबसूरत है! तो शायद आप और आपका सहितियिक समाज मेरा क्या हाल करेगा अभी कल्पना कर पाना मुमकिन नहीं.पर यदि में कहूँ की ''जंगल-जंगल बात चली है पता चला है, चड्डी पहन के फूल खिला है, फूल खिला है'' (रचनाकार गुलजार ) तो शायद ये आपके होठो पर सज जाये. और शायद ये आपने गुनगुनाया भी हो. तो
है'' (रचनाकार गुलजार ) तो शायद ये आपके होठो पर सज जाये. और शायद ये आपने गुनगुनाया भी हो. तो शब्दों का इस्त्तेमाल आप तय मत कीजिये इसे कविता ही खुद ही तय करेंगी. इसके बाद और क्या कहना शेष रहता है. ''....आप को प्रशंसा के लिए किसी और की ओर देखने की आवश्यकता नहीं रहे गी.'' आप के इस बात का क्या जवाब दूं सर प्रसंशा का तो हर कवि भूखा होता है और शायद प्रसंशा ही वो लुब्रिकेंट है जो इस कवि रुपी मशीन के पुर्जों का घर्षण कम कर उसे गतिमान रखता. तो मुझे भी इसकी आवश्यकता तो रहती ही है लेकिन हिन्दयुग्म में कविता भेजने के लिए मेरा सिफ ये ही मकसद नहीं था अपना वजन तुलवाना था मुझे. (जो शामिख ने कहा उस को दूसरे शब्दों में यूं कहा जा सकता है की कविता और कहानी के संवादों में कहीं कुछ अंतर होना चाहिए )
शमिख ने जो कहा उस पर में अपनी सोच स्पष्ट कर चूका हूँ आप आपनी आवाज़ में रोज़ पैदा करने के लिए कृपया शमिख के स्वर को अपने साथ शामिल करने की कोशिश नहीं करे तो अच्छा रहे.
शमिख ने जो कहा उस पर में अपनी सोच स्पष्ट कर चूका हूँ आप आपनी आवाज़ में रोज़ पैदा करने के लिए कृपया शमिख के स्वर को अपने साथ शामिल करने की कोशिश नहीं करे तो अच्छा रहे. एक बात यहाँ पर शमिख को भी कहना चाहूँगा की मेरी कविता की नारी कमज़ोर नहीं है मध्य वर्गीय नारी है जो जहाँ बोलना होता है वहा नहीं बोलती घर की निर्जीव चीजों पर आपना गुस्सा निकलती है, और वो पुराने मूल्यों के साथ मोर्डन होते समाज में जी रही है इस लिए कभी-कभी उस के मुह से गुस्से में ये सीखी हुई ज़बान ओ शिट ! निकल जाता है. जहाँ तक कविता के कविता और कहानी के संवादों का अंतर है वो छंद मुक्त कविता का अवलोकन कीजिये और मेरी कविता के पुल से गुजरिये तो शायद कुछ महसूस हो. और ना भी हो तो इतनी ज़रा सी बात के लिए हाय-हाय मत कीजिये प्लीज !
''हाय, कैसी कैसी कवितायेँ अब हम पढने लगे
पढ़ के मस्तिष्क की धमनियों को सहलाने लगे
गुलज़ार साहब क्यूँ मुस्कुराए वो ही जानें पर
उन की मुस्कुराहट के क्या क्या अर्थ हम लगाने लगे
-हाय, कैसी कैसी कवितायेँ अब हम पढने लगे
पढ़ के मस्तिष्क की धमनियों को सहलाने लगे
गुलज़ार साहब क्यूँ मुस्कुराए वो ही जानें पर
उन की मुस्कुराहट के क्या क्या अर्थ हम लगाने लगे''
(मोहमद अहसन द्वारा मुकुल उपाध्याय पर लिखी कविता )
और कविता कहने के लिए मेरी मुर्खता से बेहतर विषय आप के आस पास मौजूद है ज़रा आपने आस-पास नज़र डालिए! यही वो रचना है जो आपका साहित्यिक सरोकार प्रर्दशित करती है . अनुज शुक्ल ने जहाँ मेरी कविता के संधर्भ में अपनी समझ व्यक्त की है और सच्चे प्रमाणों (अग्येय,धुमिल और सर्वेश्वर कयी कवियो ने अपनी कयी कालजयी कविताए लिखी.मन्ग्लेश डबराल कि कविताए भी भाषा कि सुध्दता से ज्यादा उसके कथ्य और सम्प्रेशणियता पर जोर देती है.) के साथ अपना पक्ष रखा है पर कोई भी तार्किक पक्ष ना प्रस्तुत करते हुए उन्हें इबारत और उचारण सिखने की सलाह देते हैं. अगर आप भाग्यवश कबीर के ज़माने में रहे होते तो शायद आज कबीर की रचनाओ में उचारण और मात्राओ की सटीकता देखने को मिलती .और आलोचक नहीं कहते की कबीर की भाषा खिचड़ी भाषा थी. आशा करता हूँ आपको मेरी बाते स्पस्ट हुई होंगी. आप मुझ से इत्तेफाक रखे ये ज़रूरी नहीं, लेकिन क्यूँ की ये बहुत सकारात्मक लेखन नहीं है इस लिए मेरी और आपकी भलाई इसी में ही है की इसे ज़ल्द ही एक सकारात्मक अंत दे दिया जाये. आघे आपकी मर्ज़ी
hey Mukul,
Amazing.......... Very expressive.Would like to read some more like - " Ek pyali chai ki"
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