हम
जो कि
छुप के, पीते हैं सिगरेट
ताकि हमारी स्वस्थ्य संस्कृति के
फेफड़ों में
भर न जाये
ज़हरीला धुआँ
हम
जो कि
नारी की गरिमा
मेंटेन करने में
बढ़ा लेते हैं
अपना ब्लड प्रेशर
उनके उघाड़ूपन की
करते हैं भर्तस्ना
और
मोबाइल में रखते हैं
उनकी ब्लू फिल्में
मूड बनाने के लिए
प्रेम की पवित्रता
बनाये रखने के लिए
आए दिन करते हैं
लाइव एक्शन
हम
जो कि
अपने हर बेवकूफाना फैसले को
सच साबित करने के लिए
देते हैं हवाला
जनरेशन गैप का
और
मुँह बंद कर देते हैं
बाप का
बूढ़ा कह कर
हम
वही हम
आज
धर्म के डाक्टरों
इंजीनियरों से
यह अपील करते हैं
,,,,,,,,
इससे पहले कि
हमारे ब्रांडेड कंधे
संस्कृति के बोझ से
चरमरा के टूट जायें
आदमी को आदमी से जोड़ने वाला पुल
भरभरा के गिर जाये
कुछ करो
,,,,,,,,,अब कुछ करो
कि जब मैं फेफड़े भर साँस लूं
तो
किसी परंपरा के टूटने का डर न सताये
कवि- मनीष वंदेमातरम्
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10 कविताप्रेमियों का कहना है :
हम
जो कि
नारी की गरिमा
मेंटेन करने में
बढ़ा लेते हैं
अपना ब्लड प्रेशर
उनके उघाड़ूपन की
करते हैं भर्तस्ना
और
मोबाइल में रखते हैं
उनकी ब्लू फिल्में
मूड बनाने के लिए
अच्छी कविता है. धर्म के ठेकेदारों से कह दो कि वही आगे आये"जिसने पाप न किया हो जो पापी न हो"
इससे पहले कि
हमारे ब्रांडेड कंधे
संस्कृति के बोझ से
चरमरा के टूट जायें
आदमी को आदमी से जोड़ने वाला पुल
भरभरा के गिर जाये
कुछ करो
बहुत सुन्दर और सार्थक सन्देश देती रचना के लिये मनीश जी को बधाई
bahute acche, accha prachaar he lekin kabita nahi he yaad rakhana,,,, hahahaha,,,
आज कल हिन्दयुग्म के कवि गण 'कंडोम', 'विआग्रा', 'ब्लू फिल्म' आदि शब्दों का प्रयोग बहुतायत से कर रहे हैं. लगता है कविताओं को सशक्त बनाने का ज़ोरदार प्रयास जारी है.
-मुहम्मद अहसन
अंतिम पंक्तियाँ ठीक लगीं...
जब से सुना है
चाँद पर मकां बनने वाले हैं
मुझे उसका चेहरा
आधी खुली खिड़की सा, दिखता है।
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--ऐसी छणिकाएं लिखने वाले कवि से पाठक और अच्छी कविता की उम्मीद करते हैं।
--देवेन्द्र पाण्डेय।
antim panktiyon ne achhe ishare diye ..
इससे पहले कि
हमारे ब्रांडेड कंधे
संस्कृति के बोझ से
चरमरा के टूट जायें
आदमी को आदमी से जोड़ने वाला पुल
भरभरा के गिर जाये
कुछ करो
बहुत ही सुन्दर लेखन प्रस्तुति के लिये आभार्
व्यंगात्मक कविता में समाज को संदेश दिया है. बधाई
सिर्फ इन्हीं पंक्तियों में कविता नज़र आई. इस के अलावा कोई बहुत मुश्किल से ही इसे कविता कह सकता है. क्योंकि शब्द कवितामय नहीं हैं.
कि जब मैं फेफड़े भर साँस लूं
तो
किसी परंपरा के टूटने का डर न सताये
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