अमरईया की छाँव से
पूरब के एक गाँव से
सोंधे शीतल बाबूजी
जेठ में लूह की धार से
सावन की पड़ती फुहार से
नरम गरम बाबूजी
दरवाजे पर लटके ताले से
आँगन में लगे जाले से
सुरक्षा की मजबूत कड़ी बाबूजी
गीतों में लोक गीत से
सदियों से चली आ रही रीत से
कभी न बदले बाबूजी
परीक्षा के प्रश्न पत्र से
विद्यालय के नए सत्र से
सदा डराते बाबूजी
उबलते पानी पर रखे ढक्कन से
भाड़ में भुनते मकई के दानों से
बड़-बड़ करते बाबूजी
गर्म तावे पर मक्खन से
मुट्ठी में बर्फ के टुकड़े से
पिघल जाते बाबूजी
जर जर पात से
अपनों की घात से
टूट गए बाबूजी
बेटे की उपेक्षा से
बँटवारे की समस्या से
बिखर गए बाबू जी
वृद्धा आश्रम की गलियों में
टूटी सी टाली में
गुजर गए बाबूजी
कवयित्री- रचना श्रीवास्तव
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
एक सुन्दर कविता. शब्दों को बहुत ही खूबसूरती से पिरोया गया है. कहीं भी ले में कमी नहीं लगी और खासतौर पर अंत सुन्दर तरीके से बयां किया गया है.
वृद्धा आश्रम की गलियों में
टूटी सी टाली में
गुजर गए बाबूजी
मुझे आपकी इस कविता को पढ़कर आलोक श्रीवास्तव जी की एक ग़ज़ल याद आ रही है.
घर की बुनियादें दीवारें बामों-दर थे बाबू जी
सबको बाँधे रखने वाला ख़ास हुनर थे बाबू जी
तीन मुहल्लों में उन जैसी कद काठी का कोई न था
अच्छे ख़ासे ऊँचे पूरे क़द्दावर थे बाबू जी
अब तो उस सूने माथे पर कोरेपन की चादर है
अम्मा जी की सारी सजधज सब ज़ेवर थे बाबू जी
भीतर से ख़ालिस जज़बाती और ऊपर से ठेठ पिता
अलग अनूठा अनबूझा सा इक तेवर थे बाबू जी
कभी बड़ा सा हाथ खर्च थे कभी हथेली की सूजन
मेरे मन का आधा साहस आधा डर थे बाबू जी
बहुत ही भाव पूर्ण कविता है सच्चाई बताती हुइ रचना.
जर जर पात से
अपनों की घात से
टूट गए बाबूजी
बेटे की उपेक्षा से
बँटवारे की समस्या से
बिखर गए बाबू जी
वृद्धा आश्रम की गलियों में
टूटी सी टाली में
गुजर गए बाबूजी
जर जर पात से
अपनों की घात से
टूट गए बाबूजी
बेटे की उपेक्षा से
बँटवारे की समस्या से
बिखर गए बाबू जी
वृद्धा आश्रम की गलियों में
टूटी सी टाली में
गुजर गए बाबूज
बहुत ही मार्मिक रचना है शायद ये पहले भी पढी है बधाई
आज के समाज का सच उपमेय -उपमानों को लेकर कविता में बाँधा है . बधाई.
अपनों की घात से
टूट गए बाबूजी
बेटे की उपेक्षा से
बँटवारे की समस्या से
बिखर गए बाबू जी
वृद्धा आश्रम की गलियों में
टूटी सी टाली में
गुजर गए बाबूजी
बहुत सुंदर कविता बधाई स्वीकार करें.
तकनीकी रूप से कविता दोषपूर्ण है. न यह मुक्त छंद हो पाई न बंद छंद. ३-३ पंक्तियों के बंद बनाने की कोशिश की गयी है लेकिन सब की लय और वेग व दिशा अलग अलग. सभी बन्दों की अंतिम पंक्ति का व्याकरण भी अलग अलग है. कविता जल्दी में लिखी गयी प्रतीत हो रही है.
-मुहम्मद अहसन
बेटे की उपेक्षा से
बँटवारे की समस्या से
बिखर गए बाबू जी
भावपूर्ण कविता !
बिखर गए बाबू जी बहुत ही मार्मिक प्रस्तुति आभार्
आप सभी के शब्दों का धन्यवाद
रचना
आप की कविता में नई उपमाएं है जो कविता को सुंदर बनती है
परीक्षा के प्रश्न पत्र से
विद्यालय के नए सत्र से
सदा डराते बाबूजी
बधाई
महेश
Rachna ji ki rachnaa mein
Phir jee uthtee
Babuji.
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Shamikh Faraz saheb ne Alok Srivastava gi gazal bhi achii hai,
lekin "guzar gaye Babujii" kaa wazan jyaadaa hai...Alok ke Babujii unhi ke Babuji hain, jabki Rachnaa ji ke Babuji sab ke hain.
Badhaai
mera tao bus itna kahena gujar gaye hai babujee kitni koshish tumneki kitni koshish hamne ki babujee ko bachane ki par himmmat na kar paye babujee. jab bhi jo chaha bo hame kar gaye babujee mata jee ko binaa mile chle gaye babujee mata unhe jagati rahi par udhh na sake babujee bas ab babujee kapyar hamare sath hai ab maa hamare sath hai BHOOPESH SHRIVASTAVA VIDISHA
M.P.
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