पांव के नीचे गगन, सिर पे धरा हो,
इस तरह की सोच भी तो कुछ जरा हो।
क्यों न पश्चिम से उगे सूरज सबेरे,
क्यों न बरसे मोतियों से ये सितारे,
क्यों न इस पागल हवा का थाम आंचल,
बांध दें चुपचाप सब बादल घनेरे।
मिर्च मीठी, मधु चखें तो चरपरा हो,
इस तरह की सोच भी तो कुछ जरा हो ।
क्यों न बरसे बर्फ़ सा अंगार नभ से,
क्यों न लहरें जा समायें, तल में धप से ।
क्यों न बिन बोले भी लगता हो कि जैसे,
हो रही हो बात सबसे जाने कब से ।
शोर से खामोशियों का घर भराब हो,
इस तरह की सोच भी तो कुछ जरा हो ।
पांव का चूसें अंगूठा, पेट भर लें,
तर्जनी से जीभ छू लें प्यास हर लें ।
पेड़ की फुनगी से पंछी की तरह ही;
क्यों न हम भी आज एक परवाज भर लें ।
जिंदगी का फिर नया एक तबसरा हो,
इस तरह की सोच भी तो कुछ जरा हो ।
क्यों न पेड़ों पे फलें कलदार सिक्के,
क्यों न आए हाथ हरदम तीन इक्के ।
क्यों न झूले के बिना ही पींग भरकर;
मार आयें चाँद को दो चार धक्के ।
कोई तो मेरे भी जैसा सिरफिरा हो;
इस तरह की सोच भी तो कुछ जरा हो ।
यूनिकवि- सत्यप्रसन्न
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7 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत ही सुन्दर रचना .......बेहतरीन
बहुत ही सुन्दर रचना
आप की तरह और लोग भी सोचते है लेकिन आपने अपनी सोच को कलम बद्ध किया है.
कल्पना के हवाई किले कविता में साकार हो गये .बधाई .
sundar kalpana
man parsann huaa padhkar
shyam skha
कल्पनाओं के पँख नही होते फिर भी कितनी ऊँची उडान भर लेती हैं क्या जाता है सपने लेने मे सपने लेंगे तभी कुछ कर पायेंगे बहुत सुन्दर रचना बधाई और आभार्
कोई तो मेरे भी जैसा सिरफिरा हो;
इस तरह की सोच भी तो कुछ जरा हो ।
बहुत ही अच्छा सोचा आपने, जितना सोचा उससे बेहतर लिखा भी बधाई ।
आपकी कविता में कल्पना को बहुत ही सुन्दर तरीके से दिखाया गया है.
क्यों न पश्चिम से उगे सूरज सबेरे,
क्यों न बरसे मोतियों से ये सितारे,
क्यों न इस पागल हवा का थाम आंचल,
बांध दें चुपचाप सब बादल घनेरे।
मिर्च मीठी, मधु चखें तो चरपरा हो,
इस तरह की सोच भी तो कुछ जरा
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