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Tuesday, July 21, 2009

पांव के नीचे गगन


पांव के नीचे गगन, सिर पे धरा हो,
इस तरह की सोच भी तो कुछ जरा हो।

क्यों न पश्चिम से उगे सूरज सबेरे,
क्यों न बरसे मोतियों से ये सितारे,
क्यों न इस पागल हवा का थाम आंचल,
बांध दें चुपचाप सब बादल घनेरे।
मिर्च मीठी, मधु चखें तो चरपरा हो,
इस तरह की सोच भी तो कुछ जरा हो ।

क्यों न बरसे बर्फ़ सा अंगार नभ से,
क्यों न लहरें जा समायें, तल में धप से ।
क्यों न बिन बोले भी लगता हो कि जैसे,
हो रही हो बात सबसे जाने कब से ।
शोर से खामोशियों का घर भराब हो,
इस तरह की सोच भी तो कुछ जरा हो ।

पांव का चूसें अंगूठा, पेट भर लें,
तर्जनी से जीभ छू लें प्यास हर लें ।
पेड़ की फुनगी से पंछी की तरह ही;
क्यों न हम भी आज एक परवाज भर लें ।
जिंदगी का फिर नया एक तबसरा हो,
इस तरह की सोच भी तो कुछ जरा हो ।

क्यों न पेड़ों पे फलें कलदार सिक्के,
क्यों न आए हाथ हरदम तीन इक्के ।
क्यों न झूले के बिना ही पींग भरकर;
मार आयें चाँद को दो चार धक्के ।
कोई तो मेरे भी जैसा सिरफिरा हो;
इस तरह की सोच भी तो कुछ जरा हो ।

यूनिकवि- सत्यप्रसन्न

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7 कविताप्रेमियों का कहना है :

ओम आर्य का कहना है कि -

बहुत ही सुन्दर रचना .......बेहतरीन

Disha का कहना है कि -

बहुत ही सुन्दर रचना
आप की तरह और लोग भी सोचते है लेकिन आपने अपनी सोच को कलम बद्ध किया है.

Manju Gupta का कहना है कि -

कल्पना के हवाई किले कविता में साकार हो गये .बधाई .

shyam skha का कहना है कि -

sundar kalpana
man parsann huaa padhkar
shyam skha

निर्मला कपिला का कहना है कि -

कल्पनाओं के पँख नही होते फिर भी कितनी ऊँची उडान भर लेती हैं क्या जाता है सपने लेने मे सपने लेंगे तभी कुछ कर पायेंगे बहुत सुन्दर रचना बधाई और आभार्

सदा का कहना है कि -

कोई तो मेरे भी जैसा सिरफिरा हो;
इस तरह की सोच भी तो कुछ जरा हो ।

बहुत ही अच्‍छा सोचा आपने, जितना सोचा उससे बेहतर लिखा भी बधाई ।

Shamikh Faraz का कहना है कि -

आपकी कविता में कल्पना को बहुत ही सुन्दर तरीके से दिखाया गया है.

क्यों न पश्चिम से उगे सूरज सबेरे,
क्यों न बरसे मोतियों से ये सितारे,
क्यों न इस पागल हवा का थाम आंचल,
बांध दें चुपचाप सब बादल घनेरे।
मिर्च मीठी, मधु चखें तो चरपरा हो,
इस तरह की सोच भी तो कुछ जरा

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