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Friday, July 31, 2009

कुँठाएँ झुलसी हैं ईर्ष्या की दाह से


पिछले महीने हम आपका परिचय युवा कवि जितेन्द्र दवे से करवा चुके हैं। इस बार फिर इन्होंने शीर्ष 20 में स्थान बनाया है।

रचना- कुंठाएं

कागज़ पर पड़ी
उल्टी-सीधी रेखाएं
लक्ष्य-विहीन

अस्त-व्यस्त
दर्प से ग्रस्त
एक-दूसरे को
दबाने-काटने को उतारू

कुंठा से सनी
न उभर पाती
न ही उभरने देती
दूसरों के आस्तित्व को

इसी जद्दोजहद में
नहीं ढल पाती
किसी सुन्दर कृति में

सृजन की आंच की बजाय
जो झुलसी हैं
ईर्ष्या की दाह से
लिए हुए दर्द
एक-दूसरे को न निगल पाने का


प्रथम चरण मिला स्थान-पाँचवाँ


द्वितीय चरण मिला स्थान- उन्नीसवाँ

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12 कविताप्रेमियों का कहना है :

Shamikh Faraz का कहना है कि -

बहुत ही खूबसूरत कविता है. बहुत ही बढ़िया. जितनी तारीफ की जाये कम हैं. उम्दा दिखाई देती है इस कविता में

सोच कागज़ पर पड़ी
उल्टी-सीधी रेखाएं
लक्ष्य-विहीन

अस्त-व्यस्त
दर्प से ग्रस्त
एक-दूसरे को
दबाने-काटने को उतारू

कुंठा से सनी
न उभर पाती
न ही उभरने देती
दूसरों के आस्तित्व को

इसी जद्दोजहद में
नहीं ढल पाती
किसी सुन्दर कृति में

सृजन की आंच की बजाय
जो झुलसी हैं
ईर्ष्या की दाह से
लिए हुए दर्द
एक-दूसरे को न निगल पाने का

Disha का कहना है कि -

बहुत ही सुन्दर और गहराई लिये हुई रचना

Harihar का कहना है कि -

सृजन की आंच की बजाय
जो झुलसी हैं
ईर्ष्या की दाह से
लिए हुए दर्द
एक-दूसरे को न निगल पाने का
आत्मचिन्तन की दिशा में एक बहुत सुन्दर रचना ।

Manju Gupta का कहना है कि -

कुंठाओं का सर्जन लाजवाब है ,बधाई

rachana का कहना है कि -

ईर्ष्या की दाह से
लिए हुए दर्द
एक-दूसरे को न निगल पाने का
सृजन करने के बजाये आज कल लोग इर्षा में ज्यादा लगे रहते हैं
आप की बात सही है
अच्छा लिख है आप ने
रचना

manu का कहना है कि -

hindi wala system kaam nahi kar rahaa hai....
par aapki rachanaa bahut-bahut pasand aayee....
sahi kahaa hai aapne..

Shailesh का कहना है कि -

बहुत अछ्छा उदहारण पेश कर के समझाया है..बेहद सुन्दर चित्रण..

शुक्रिया.. इतनी सुन्दर कविता पढने का मौका देने के लिए..

सादर
शैलेश

सदा का कहना है कि -

कागज़ पर पड़ी
उल्टी-सीधी रेखाएं
लक्ष्य-विहीन

बहुत ही बेहतरीन प्रस्‍तुति आभार्

दिपाली "आब" का कहना है कि -

इसी जद्दोजहद में
नहीं ढल पाती
किसी सुन्दर कृति में

सृजन की आंच की बजाय
जो झुलसी हैं
ईर्ष्या की दाह से
लिए हुए दर्द
एक-दूसरे को न निगल पाने का


इस कविता के सन्दर्भ में क्या कहूँ, जुबान सिल गई है, कितनी सच्ची बात को कितनी आसानी से आपने कह दिया. बधाई.

अमिता का कहना है कि -

सृजन की आंच की बजाय
जो झुलसी हैं
ईर्ष्या की दाह से
लिए हुए दर्द
एक-दूसरे को न निगल पाने का

बहुत ही सुंदर कविता है बधाई स्वीकार करें.
अमिता

Jitendra Dave का कहना है कि -

सभी सुधी पाठकों सहित साहित्य-अनुरागियों और हिंद-युग्म को आभार. आपकी प्रतिक्रियाएँ मुझे और भी बेहतर लिखने की प्रेरणा देंगी.

Akhilesh का कहना है कि -

dave sahab
accha likha hai aapne.

ik hi prateek se poori rachna rach ker aap prabhavit kerte hai.

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