आज पूरी दुनिया पर्यावरण दिवस मना रही है। यह दिवस प्रत्येक वर्ष 5 जून को 1972 से लगातार पर्यावरण के प्रति सजग रहने के लिए मनाया जाता है। भारत में गिद्ध पक्षी का विशेष तरह का पर्यावरणीय महत्व रहा है। पिछले 5-6 वर्षों से उन्हें कहीं देखा गया हो, यह भी कह पाना मुश्किल हो रहा है। यह पूरी दुनिया के पर्यावरण के लिए बहुत अच्छे लक्षण नहीं हैं। आज हम तीन कविताओं के माध्यम से गिद्धों के विलुप्त होने पर बुद्धिजीवियों की चिंता आपके समक्ष लेकर उपस्थित हैं।
पिछले सप्ताह से आप रामजी यादव की कविताएँ पढ़ रहे हैं। रामजी का गिद्धों से बचपन का याराना था। इनकी बाल-स्मृतियों में गिद्ध उसी तरह से समाये हैं, जैसे कि रोज़ का खाना और सोना। रामजी गिद्धों के गायब होने को हमारी सभ्यता पर एक प्रश्नचिह्न मानते हैं।
गिद्ध
मैंने गिद्धों से हमेशा प्यार किया
और भूल गया कि वे खतरे में हैं
जब भी किसी के
ठहाके की लय का अवरोह सुनता हूँ
बार-बार मुझे गिद्ध याद आते हैं
जैसे खाकर अघाये हों वो
और प्रेमालाप के लिए फुर्सत चाहते हों
मेरी नानी के द्वार पर खड़ा
यह विशाल पीपल वृक्ष
अब खो चुका है अपनी हरीतिमा
जैसे गिद्धों ने अपना अस्तित्व खो दिया है
इतना बीड़र है यह पीपल आज कि
एक-एक टहनी गिन सकता हूँ
लेकिन एक भी निशान बाकी नहीं है गिद्धों का
मेरी स्मृतियों में नानी के प्यार की तरह सुरक्षित है
यह (वह) विशाल हरा-भरा पीपल
जब बसंत आता था तो झर जाते थे बूढ़े पत्ते
और कल्ले फूटते थे नए-नए
निकलती जाती थीं ललछौंह पत्तियाँ
छत पर चादर में मुँह डुबाए हम
ढकेल देना चाहते थे सुबह को थोड़ा और पीछे
चिल्लाती थी नानी- उठो रे सौं
करो दतुअन-कुल्ला, देखो कहाँ आया घाम
तब चादर हम और तान लेते थे
कि लो! हम गहरी नींद में हैं
पर धूप तो धूप है नींद में घुस जाती थी
और आप से आप सरक जाती थी चादर गर्दन के नीचे
और दिखाई पड़ता था पीपल जैसे रेखिया उठान
कोई नौजवान खड़ा हो
नई-नई पत्तियों पर रेंगती और फिसलती थी धूप
और संकोच से सेनुराभ हो उठती थीं पत्तियाँ
आह! वहीं पर देखा मैंने सौन्दर्य
उन्हीं से जाना फिदा होना
वहीं से सीखा कि प्यार में रंग फना हो जाता है दोनों का
ऊपर आराम फरमाते जटायु और संपाती के नात-नतेरुआ
हम मिचमिचाते हुए आँखें पूरे होश में आने से
पहले बरबराते
ससुर ई अबहीं लोग हियां बैठे के मुजरा लेते हैं
कि तभी दो डैने पसरते हवा में
और काँप उठता वायुमंडल
फिर एक और ज़रा ऊँचा उड़ता हुआ फिर एक और..........
हम गिनते थे गिद्धों को और शाम को मिलाते थे गिनती
कोई नया आता तो हम उसे पाहुन समझते
गायब हो गये हैं गिद्ध एक-एक कर
जैसे गायब हो गये हैं
मेरे जीवन के भोले और सुन्दर दिन
जैसे गायब हुई चली जाती है जवानी
लेकिन बुढ़ापे की तरह भी कहीं आते नहीं दिखते गिद्ध
अकबका गया हूँ जैसे किसी हाइवे पर
कोई ज़रूरी चीज़ खो आया हूँ दूर कहीं
गायब हो गए हैं गिद्ध
अब डरता हूँ किसी को गाली देने से
अचक्के में किसी धूर्त और मक्कार को कहीं गिद्ध न कह बैठूँ
डरता हूँ कि कोई चालाक गिद्ध की तरह न लग जाय
यह सरासर अपमान होगा गिद्धों का
गायब हो गए हैं गिद्ध कि अब
उदाहरण भी अकेला और उदास कर जाते हैं मुझे
डाँटती थी मामी- अरे! बस अढ़ाई फुलके
कैसे चलोगे जिंदगी की हराई
एक बाँव में ही थक जाओगे तुम तो
बिल्कुल गीध की तरह लजाधुर हो बौरहा!
सात-आठ रोटी खा के जब तक न होगे अडड्ड
कैसे बुद्धि बनेगी मजबूत और बुझेगी न्याव-अन्याव
गीध भी तो कटा आया पंखा और लड़कर गिरा धरती पर
कि थाली में एक ओर रोटी डाल देती मामी
क्या लिया गिद्धों ने दुनिया से!
एक मछली तक न खाया चुराकर
न झपट्टा मारा तालाब में
केवल मरे जानवर खाए मिले जहाँ कहीं
जैसे त्याज्य हो बाकी सब
जैसे सहस्राब्दियों ने ओढ़ ली हो जिम्मेदारी
पर्यावरण को साफ रखने की
और इसी में आनंद पाने लगे हों
ऐसे में कहाँ पता रहा होगा कि आदमी का लालच
कितना विषैला हो चुका है?
और अपनी ही प्रतिबद्धता की भेंट
चढ़ते चले गये होंगे एक-एक कर
किसी के चेहरे पर शिकन नहीं देखता हूँ
नहीं पाता हूँ कहीं अपराध बोध
कि मारा है गिद्धों को किसने
सभी छिपा रहे हैं अपने ज़ुर्म
और घाव दिखा रहे हैं एक-दूसरे को अपने
कोई शै है ऐसी जिससे मुँह चुरा रहे हैं सभी
वही कि जिसने सभी को अमानवीय बना छोड़ा है
गिद्धों के सवाल पर लगातार चुप्पी है
चारों तरफ छाई है वीरानी
अनवरत चला आ रहा है सन्नाटा
चारों तरफ पसर रहा है एक क्रंद्रन
लोगों को पता नहीं है प्रकृति रो रही है चुपचाप
हमारी भाषा में नहीं है पीड़ा और संवेदना
हम भूल गये हैं असहमति और तर्क
और जिंदगी के खिलाफ संकीर्ण नज़रिया है सब तरफ
लड़ाई यहाँ से भी शुरू होनी चाहिए।
-रामजी यादव
मोहम्मद अहसन भारतीय वन सेवा में अधिकारी के तौर पर कार्यरत हैं। जंगल, गाँव, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, नदी-पोखर-तालाब से ये उसी तरह से जुड़े रहे हैं जैसे कि आज का बच्चा कम्प्यूटर और वीडियो गेम से। अहसन पर्यावरण के प्रति सजग रहे हैं। इनका एक संग्रह 'मेरी इक्कीस पर्यावरण कविताएँ' प्रकाशित हुआ है, जिसमें पर्यावरण के प्रति इनकी चिंता व्यापक रूप से दिखलाई पड़ती है। अहसन की कविता 'गिद्ध बैठेंगे कहाँ!' में भी सूक्ष्म तौर पर गिद्धों के गायब होने की ही दास्ताँ हैं, कुछ अन्य कारणों के साथ।
गिद्ध बैठेंगे कहाँ!
तनावर दरख्त झुक गए हैं
पेड़ बूढे गिर रहे हैं;
गिद्ध बैठेंगे कहाँ
और घोंसला अब बनेगा कहाँ
जवां पेड़ों की जमा’अत पस्त है
हौसला हैं पर शाखें नहीं हैं
सिर्फ तने ही तने हैं ,
भाव सारे अनमने हैं
मैं सोचता हूँ
गिद्ध अब बैठेंगे कहाँ !
आसमां बंद है
वायु बोझल है
परवाज़ गिद्धों की होगी कहाँ,
परवाज़ के अंत में
गिद्ध उतरें गे कहाँ, और
बैठेंगे कहाँ !
गाँव में अब डंगर मरते नहीं
या मरते ही दफ़्न हो जाते हैं
किस तरह होती है उन की अंतिम क्रिया
इन सवालों के जवाब अब मिलते नहीं
मैं सोचता हूँ
गिद्ध अब खाएंगे क्या, और
बैठेंगे कहाँ !
-मोहम्मद अहसन
इनकी अगली कविता में पर्यावरण के हर बदलाव की तरह इशारा है और समाधान का निर्देश भी है।
क्यों......???
क्यों बादल टूटा
क्यों नद्दी उबली
क्यों गाँव बहे
क्यों धारे पलटे
क्यों भूमि कटी
क्यों खेत बहे
क्यों पर्वत खिसका
क्यों चट्टान धँसी
क्यों गाँव दबा
क्यों सड़क कटी
क्यों लोग फँसे
क्यों धरती काँपी
क्यों गाँव ढहे
क्यों लोग मरे
क्यों श्मशान पटे
क्यों रेत उड़ी
क्यों तूफ़ान उठे
क्यों बंज़र चीखा
क्यों बीहड़ रोया
क्यों मौसम उलझा
क्यों धरती सूखी
क्यों खेत जले
क्यों फ़सल फुँकी
क्यों भूख उगी
क्यों आग लगी
क्यों जंगल सुलगा
क्यों पशु भागे
क्यों धुँवा उठा
क्यों अम्बर तड़पा
क्यों पेड़ कटे
क्यों जंगल सिसका
क्यों सोते सूखे
क्यों खेती बैठी
क्यों बाग़ कटे
क्यों पुरवे उजड़े
क्यों शहर उगा
क्यों झीलें सूखीं
क्यों पंक्षी भागे
क्यों मेढक दुबके
क्यों कछुवे सहमे
क्यों विष बरसा
क्यों मछली तड़पीं
क्यों ज़हर घुला
क्यों गिद्ध मरे
कुछ तुम सोचो !
कुछ मैं सोचूँ !
-मोहम्मद अहसन
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
अहसन साहब की कविताई से हम काफी पहले से परिचित हैं। हमराही के अलावा यहॉं पर उनकी पर्यावरणीय कविताएं देखकर अच्छा लगा।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
क्यों विष बरसा
क्यों मछली तड़पीं
क्यों ज़हर घुला
क्यों गिद्ध मरे
कुछ तुम सोचो !
कुछ मैं सोचूँ !
सुन्दर दिल तक पहुंचती अभिव्यक्ति-साधुवाद
आओ मिलकर
हम सब सोचें
अब भी ना सोचा
फिर कब सोचेंगे
लुट जाएंगे
मिट जाएंगे
तब सोचेंगे ?
कब सोचेंगे-कब सोचेंगे ?
श्याम सखा
रामजी यादव साहब,
गिद्धों के बहाने आपने कान खींचे हैं कविता में हम सब की निष्ठुरता पर की हम मूक दर्शक बने रहे और अपने में ही मस्त, पर्यावराण का यह हाल हो गया कि ठंड में ठंड पड़ती नही, बारिश में पानी बरसता नही और गर्मी सिर चढकर बोल रही है।
कविता में ग्रामीण बोली वैशिष्ट्य पैदा करती है।
एक अच्छी कविता के लिये पुनः धन्यवाद।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
अहसन साहब,
कुछ और नही कहना..... बस मुरीद हो गया आपका।
क्या लिखा है, खूब लिखा है।
गिद्ध बैठेंगे कहाँ, एक प्रश्न के साथ खत्म होती है और दूसरी सोये पड़े मानस को जगाते हुये कहती है :-
कुछ तुम सोचो !
कुछ मैं सोचूँ !
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
"लड़ाई यहाँ से भी शुरू होनी चाहिए।"
Ramji yadav ki yeh pankti paryavaran ke suraksha ki muhim aur sandesh hai. Gramin achal ki chap dikhayi deti hai.
अहसन -
"क्यों विष बरसा
क्यों मछली तड़पीं"
Is samasya ke hal ke liye samaj ko pehel karni hogi.
mere yeh dohe hai-
" nahi bachegi maa dhara,
nahi hoga pani,
hogi kam zyada varsha,
keh rahe hai gyani."
" kya de nayi pidhi ko,
bachav ki ho pehel,
badle apne ap ko,
samasya ka hai hal."
sari rachnayen marmsparshee hai, badhayi.
Manju Gupta.
giddho ki prajati samapti ki kagar ki aor badh rahi hain ......is disha mein rachna likhkar aapne paryavaran ki aor dhyan aakarshit karvaya hain.
Manav ki chaal,
aur paryavaran ka haal
bakhoobi likha hain aapne.
ati lambi hone ke wajah se neeras bhi ban badi hain beech -beech mein
क्या लिया गिद्धों ने दुनिया से!
एक मछली तक न खाया चुराकर
न झपट्टा मारा तालाब में
केवल मरे जानवर खाए मिले जहाँ कहीं
जैसे त्याज्य हो बाकी सब
जैसे सहस्राब्दियों ने ओढ़ ली हो जिम्मेदारी
पर्यावरण को साफ रखने की
और इसी में आनंद पाने लगे हों
ऐसे में कहाँ पता रहा होगा कि आदमी का लालच
कितना विषैला हो चुका है?
और अपनी ही प्रतिबद्धता की भेंट
चढ़ते चले गये होंगे एक-एक कर
हिन्द युग्म का बहुत-बहुत आभार इतनी सुन्दर रचनाये प्रस्तुत करने के लिये. आम का पेड और उसके बाद पीपल का पेड और गिद्ध पर्यावरण पर सुन्दर प्रस्तुति है. क्या कुछ इस प्रकार के कार्यक्रम भी प्रस्तुत करना सम्भव है कि कविता से हटकर पर्यावरण के लिये ठोस रूप से कुछ किया जा सके? केवल कविताओ से तो पर्यावरण का सुधार होने वाला नही. हम भौतिक सुविधा भोगी आधुनिक सुविधाजनक उपकरणो के प्रयोग से पर्यावरण को अधिक हानि पहुँचा रहे है. अध्ययन ऐसा ही बता रहे है. क्या कविताओ से आगे भी कुछ किया जाना सम्भव है?
क्यों झीलें सूखीं
क्यों पंक्षी भागे
क्यों मेढक दुबके
क्यों कछुवे सहमे
क्यों विष बरसा
क्यों मछली तड़पीं
क्यों ज़हर घुला
क्यों गिद्ध मरे
कुछ तुम सोचो !
कुछ मैं सोचूँ !
हम सोच रहे थे.....
हम सोच रहे है..........
सोचते रहेंगे.........
सोचने के सिवा कुछ नही करेंगे....
सोचने से लिख सकते है.....
एक कविता, आलेख और कहानी भी...
जिनसे मिलती है प्रसिद्धि
कुछ रिद्धि-सिद्धि.
सोचे हुए को करना यदि चाहे.....
होंगे हमारे स्वार्थ प्रभावित
होंगे हमारे भौतिक सुख श्रापित
सोचने मे ही लाभ है.....
हम सब बेनकाब है....
हम सोच रहे थे.....
हम सोच रहे है..........
सोचते रहेंगे.........
सोचने के सिवा कुछ नही करेंगे....
अगली पीढी शायद सोचने के काबिल नही रहेगी.
तनावर दरख्त झुक गए हैं
पेड़ बूढे गिर रहे हैं;
गिद्ध बैठेंगे कहाँ
और घोंसला अब बनेगा कहाँ
रामजी और अहसान साहब की रचनाएँ बहुत बहतरीन है. साथ ही हिन्दयुग्म को मुबारकबाद इतनी अछि रचनाएँ हम पाठकों तक पहुँचने के लिए.
क्या बात है......
दोनों कवि आज एक ही मूड में....?
विषय ऐसा उठाया गया है के कविता-अकविता की तरफ सोचना भी गुनाह सा लग रहा है....
giddh ,,,,,एक khoobsorat और behad jaroori pakshee ,,,,
aksar ही dhyaan में bastaa है,,,,,पर आज तक कभी कुछ likhaa तक नहीं गया hamse,,,,
कुछ karnaa तो दूर की बात है,,,आज teeno rachnaaon को padhaa तो fikr और भी badh गया ,,,,
giddh kahaan baitheinge,,,,
sochtaa हूँ के kaheen bacheinge तो baitheinge..........!!!!!!!!!
अहसान जी ,,,,
zameen का fikra , jamaane का गम, jahaan के gile
दिल-ekharaab को तुम और क्या mitaane चले,,,
Convey my regards to both gentlemen for their respective poems regarding giddhs and coconcerns of humanity today.
Dr.bhoopendra
Rewa M.P
पर्यावरण दिवस पर दोनो कवितायें बहुत सुन्दर हैं य्यादव जी और अहसन साहिब को शुभकामनायें अवं आभार्
सभी सुधी पाठक गण,
कवितायेँ पढने और सराहने का बहुत बहुत धन्यवाद
मनु जी,
बात सिर्फ गिद्धों की ही नहीं है, पिछले ५० सालों में बहुत कुछ खो गया है, कई साल पहले यह दर्द लिखा था ,आज फिर लिख रहा हूँ.
कहाँ गए गिद्ध सब ,कहाँ गई गौरैया
कहाँ गई लूक सब ,कहाँ गई पुरवैया
कहाँ गए ताल पुराने ,कहाँ गए दलदल
कहाँ गए खोह सब ,कहाँ गए जंगल
कहाँ गई नौटंकी ,कहाँ गया आल्हा
कहाँ गई खंजडी , कहाँ गया मजीरा
कहाँ गई हथिया की झड़ी ,कहाँ रात अँधेरी
कहाँ गया मसान घाट ,कहाँ रात अमावस्या
कहाँ गए औघड़ सब ,कहाँ गई काली आंधी
कहाँ गया तारा मंडल ,कहाँ गई पूरणमासी
कहाँ गए भूत सब ,कहाँ गईं चुडैल
कहाँ गए खंडहर सब ,कहाँ साधू बिगडैल
कहाँ गया बूढा बरगद ,कहाँ गया भुतहा घर
कहाँ गए सब काले नट , कहाँ गए सब मुसहर
हमें पर्यावरण पर ध्यान देना ही होगा !
एक अच्छी कविता |
गायब हो गए हैं गिद्ध
अब डरता हूँ किसी को गाली देने से
अचक्के में किसी धूर्त और मक्कार को कहीं गिद्ध न कह बैठूँ
डरता हूँ कि कोई चालाक गिद्ध की तरह न लग जाय
यह सरासर अपमान होगा गिद्धों का
गायब हो गए हैं गिद्ध कि अब
उदाहरण भी अकेला और उदास कर जाते हैं मुझे
रामजी और मोहम्मद अहसन दोनों की कविताओं की व्यापक और ज़रूरी चिंताओं के साथ सहकार और दोनों को बधाई....
हम क्या कर सकते हैं..बस फ़िक्र और विलाप..! क्योंकि यह सच है कि जो कुछ नष्ट हो रहा है, उसके अपराधी हम बस उतने ही हैं कि इसे रोक नहीं पा रहे हैं...
कोई उम्मीद-सी भी नज़र नहीं आती ।
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