आदत,
धीरे-धीरे पड़ ही जाती है
अब कोई तकलीफ नहीं होती है
मुझे देख कर कोई कितनी भी बातें करे
या फिकरे कसे
वो लोग,
जिनके दिन भर की जुगाली हूँ मैं
जानते हैं मेरी दिनचर्या को
कि कब शाम ढले मैं निकलूँगी बाहर?
क्या पहने हुये?
या घर से कितने पहले उतरूँगी?
कब लौटूँगी देर रात दबे पाँव?
वो लोग,
नहीं आते मेरे घर देखने कि
चूल्हा कब जला था पिछली बार?
क्यों कनस्तरों में रखती हूँ भूख छिपाकर?
बिजली का कट जाना
जहाँ मेरी जान पर आता है
वो,
सोचते हैं यह मेरी पेशागत सहूलियत है
सच तो यह है कि
मेरी परेशानियों का हल
उनकी निगाहों से बचकर गुजरते मेरे धैर्य में है
मुझे भी,
अच्छे नहीं लगते
वो लोग जो उन्हीं में से कोई होते हैं
जिनके साँसों से बदबू आती है
पसीने की नमकीन बू फैली होती है बांहों के दायरों में
दाढ़ी इतनी बढ़ी हुई की चुभन होती हो
तब,
घर की दीवारों में पड़ती दरारें /
बच्चों के फटे यूनीफार्म /
बकाया किराया / राशन का उधार
जकड़ लेते हैं मेरा वजूद वहीं
और,
फिर सब वही होता है
जो बाहर लोग बातें करते हैं
मुझे,
साँसों में गर्माती आँच महसूस होती है
मेरी सिसकियों से
चूल्हा जलने की सरसराहट सुनाई देती
यूनिकवि मुकेश कुमार तिवारी
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11 कविताप्रेमियों का कहना है :
वो लोग,
नहीं आते मेरे घर देखने कि
चूल्हा कब जला था पिछली बार?
क्यों कनस्तरों में रखती हूँ भूख छिपाकर?
बिजली का कट जाना
जहाँ मेरी जान पर आता है
वो,
सोचते हैं यह मेरी पेशागत सहूलियत है
सच तो यह है कि
मेरी परेशानियों का हल
उनकी निगाहों से बचकर गुजरते मेरे धैर्य में है.....दर्द की तहरीरों को इस तरह सुनना आम व्यक्ति के वश की बात नहीं,
मैं अभिभूत हूँ, जाने कब आँखों में कुछ पड़ गया.......या नम हो चली हैं ये !
वो लोग,
नहीं आते मेरे घर देखने कि
चूल्हा कब जला था पिछली बार?
क्यों कनस्तरों में रखती हूँ भूख छिपाकर?
gahan bhav se pripurna marmik rachana.
जो दर्द आपकी इस रचना में उभर कर आया है मुकेश जी वह आँखे भिगो देने वाला है ..जो भोगता है वह जानता है कि भूख की मार कितनी दर्द देने वाली होती है ..बधाई आपको इस भावपूर्ण रचना की ..
अनेकों उपन्यासों व कहानियों का
पुराना घिसा पिटा विषय वस्तु,
साहिर की मशहूर नज़्म 'चकले' और न जाने कितनी नज्मों का विषय.
कविता में भावों व् शब्दों से मौलिकता की कमी झलकती है
ठीक है के कोई दमदार रचना तो नहीं है पर ......
यदि साहिर ने चकले लिख दी तो क्या कोई उसके बाद उस तरह का कुछ न लिखे.....
मनु ठीक कहते हैं..
अगर हम यह कहते है कि साहिर ने चकले लिखकर इस विषय का अन्त कर दिया,फ़िर तो महाभारत,रामायण और अगर इसमें कालीदास ,भवभूति,गालिब मीर और नजीर अकबराबादी को जोड़ दें तो शायद कविता तथा कहानी हेतु कोई विषय बचा ही नहीं है और हमें लिखना बंद कर देना चाहिये,लेकिन गालिब ने लिखा है...अन्दाजे बयां और ,और मुझे तिवारी जी का अन्दाजे-बयां अच्छा लगा
देखिये
वो लोग,
नहीं आते मेरे घर देखने कि
चूल्हा कब जला था पिछली बार?
क्यों कनस्तरों में रखती हूँ भूख छिपाकर?
भई क्या बात है
कनस्तरों में रखती हूँ भूख छिपाकर?
बधाई तिवारी जी लिखते रहें
श्याम सखा ‘श्याम’
is andaaz e bayaan mein kya anokha pan hai!!!
manto ki kayi kahaaniyaan yaad aa rahi hain, khaas kar kaali shalwaar.
बहुत ही मार्मिक.....कितनी त्रासद स्थिति है.....मन बड़ा भारी हो गया...
अति मर्मस्पर्शी एवं प्रभावशाली रचना हेतु साधुवाद आपका.......
कसम ,,, लिखने वाले की,,,,, इसको कविता कहेंगे कया !!!!!!
हेह्हुहू
नया कवि
दिल्ली
साँसों में गर्माती आँच महसूस होती है
मेरी सिसकियों से
चूल्हा जलने की सरसराहट सुनाई देती
बहुत प्रभावशाली रचना है
marmsparshi rachna ke liye badhai
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