प्रतियोगिता की आठवीं कविता के रचनाकार रवि कांत 'अनमोल' पहली बार हिन्द-युग्म पर शिरकत कर रहे हैं। 10 सितंबर 1976 को पठानकोट में जन्मे अनमोल ने जनाब राजेंद्र नाथ 'रहबर' से कविता लिखने की समझ विकसीत की है। एम.ए, (हिन्दी, गणित), बी.एड., पी.जी.डी.सी.ए. आदि डिग्रियों से सुसज्जित अनमोल को पंजाबी, हिन्दी, संस्कृत, उर्दू, अंग्रेजी इत्यादि भाषाओं का ज्ञान है। फिलहाल ये शिक्षण एवं लेखन में सक्रिय हैं।
पुरस्कृत कविता- याद आ रहे हैं
लकड़ी के ये खिलौने, दिल को लुभा रहे हैं
बचपन के दिन सुहाने, फिर याद आ रहे हैं
बचपन जहां पे बीता, वो घर यहीं कहीं है
वो रीछ वो मदारी, बंदर यहीं कहीं है
बच्चे कहीं पे मिल के, हल्ला मचा रहे हैं
बचपन के दिन सुहाने, फिर याद आ रहे हैं
नादान से वो सपने, छुटपन में जो बुने थे
किस्से बड़े मज़े के, दादी से जो सुने थे
किस्से वो याद आ कर, फिर गुदगुदा रहे हैं
बचपन के दिन सुहाने, फिर याद आ रहे हैं
भाई ने प्यार से ज्यूं, आवाज़ दी है मुझको
काका ने जैसे कोई, ताक़ीद की है मुझको
ऐसा लगा पिताजी मुझको बुला रहे हैं
बचपन के दिन सुहाने, फिर याद आ रहे हैं
ये किसकी गुनगुनाहट, लोरी सुना रही है
जैसे कि माँ थपक के, मुझको सुला रही है
क्यूं नींद में ये आँसू, बहते ही जा रहे हैं
बचपन के दिन सुहाने, फिर याद आ रहे हैं
प्रथम चरण मिला स्थान- सातवाँ
द्वितीय चरण मिला स्थान- आठवाँ
पुरस्कार- विवेक रंजन श्रीवास्तव 'विनम्र' के व्यंग्य-संग्रह 'कौआ कान ले गया' की एक प्रति।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
12 कविताप्रेमियों का कहना है :
bachpan ki purani yadon ki sunder abhivyakti .
क्यूं नींद में ये आँसू, बहते ही जा रहे हैं
बचपन के दिन सुहाने, फिर याद आ रहे हैं
waah.... bachpan yaad aa gaya...
Badhayi.
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
बचपन को कोई नहीं भूल पाता........बहुत ही सुन्दर रचना
बचपन के खिलौनों की चाह पता नहीं क्यों आज भी होती है .मट्टी के बर्तन और बुढा बुढ़िया ,और लाल टोपी पहने गुड्डा आज भी बहुत याद आता है आप की कविता मुझे माझी में ले गई .धन्यवाद
अच्छी कविता के लिए बधाई
सादर
रचना
wah bhai, bahut hi sundar saras kavita. mazaa aa gaya. badhaayi.
क्यूं नींद में ये आँसू, बहते ही जा रहे हैं
बचपन के दिन सुहाने, फिर याद आ रहे हैं
shukriya ek achchi kavita ki prastuti ke liye
बचपन जहां पे बीता, वो घर यहीं कहीं है
वो रीछ वो मदारी, बंदर यहीं कहीं है
वाह अनमोल जी ! बचपन की याद ताजा की ।
दूर देश रहने पर यह याद और भी ताजा हो जाती है
बहुत ही अच्छी कविता है ......... एक बहुत अच्छा प्रवाह है, कोमल शब्दों का प्रयोग कविता को और भी खूबसूरत बना रहा है ........... बधाई
आप सभी ने इस गीत को जो आशिर्वाद दिया उसके लिए धन्यवाद।
अनमोल
ek behtareen lay hai is geet me..bhav paksh bhi umda hai ..gun gunane ko ji chahta hai ... badhai aap ko ....
ये किसकी गुनगुनाहट, लोरी सुना रही है
जैसे कि माँ थपक के, मुझको सुला रही है
बहुत ही बेहतरीन लिखा है बधाई ।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)