माँ
बुनती है सपनें
किसी भी वक्त दिन हो या रात
बस एक जरा सी झपकी लगी हो
या यूँ ही आँख बंद कर लेटी हो
माँ
की आँखें मुझे
कभी भट्टी सी लगती हैं
जहाँ सपनें फुदकते है लगातार फुटानों की तरह
या कभी सूने झरने सी
जहाँ आंसुओं के बादल पर सपने छाये रहते हैं
सतरंगे इन्द्रधनुष की तरह
बात
कैसी भी हो
आस-पास की
दूर जहान की
अपनों की
परायो की
या ऐसी कोई बात
जिसका ना कोई सिर ना पैर
पा लेती है ठौर माँ की आँखों में
और बदलने लगती है
सपनों में
माँ
के सपनों में आता हूँ मैं
कभी श्रवण की तरह
कभी किसी नालायक की तरह
माँ
सोते-जागते ना जाने
क्या सोचते रहती है?
माँ
कमोबेश रोज़ सुबह की शुरूआत करती है
रात देखे सपने की किस्सागोई से
या कल दोपहर आये ख्वाब की बातों से
तकरीबन हर बार कुछ नया होता है
माँ के सपनों में
कुछ अनोखा
कुछ अनूठा
कुछ अचंभा
कुछ कौतुहल सा
यूनिकवि- मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १३-जुलाई-२००८ / समय : १२;२५ दोपहर / घर
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6 कविताप्रेमियों का कहना है :
सच है।
मेरी माँ भी कभी भी, कहीं भी सपने ले आती है आँखों में। काफी बातें आपने बयाँ कर दी हैं। अंदाज़ पसंद आया।
बहुत अच्छा लिखा है , माँ बुनती है सपने , और फिर सपने बुनना अपनी सन्तान को विरासत में दे देती है |
Waah !! Bahut hi sundar abhivyakti....
Yun bhi yah shabd hi aisa hai,jiske smaran matra se jaise lagta hai maa ki god mil gayi...
बहुत सुंदर भाव लिए है आपकी रचना....
बधाई हो,,,
mera khayaal tha "mother's day" khatam hue kayi saptaah ho gae, lekin abhi hindyugm par chal hi raha hai. badhayi mukesh ji.
माँ यह विषय ही ऐसा है कि भाव विभोर कर देता है |
बधाई |
अवनीश तिवारी
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