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Sunday, May 24, 2009

अंजना की कविताओं की दूसरी किश्त


अंजना बख्शी की कविताओं के केन्द्र में ‌बच्चियाँ, लड़कियाँ, महिलायें और श्रमिकों की जिंदगियों की विसंगतियाँ हैं। इनकी हर कविता समाज के इस अंग की पीड़ा अलग-अलग ढंग से व्यक्त करती है। इनकी किसी भी कविता में विद्रोह नहीं है, बल्कि अपने वर्तमान से बाहर निकलने की पशोपेश है।

'मुनिया-2'

उस वृक्ष की पत्तियाँ
आज उदास हैं
और उदास है
उस पर बैठी वो काली चिड़िया
आज मुनिया
नहीं आई खेलने
अब वो बड़ी हो गई है
उसका ब्याह रचाया जायेगा
गुड्डे-गुड्डी
खेल-खिलौनों
की दुनिया छोड़
मुनिया हो जायेगी
अब उस वृक्ष की जड़-सी स्तब्ध
और हो जायेगी
उसकी जिंदगी
उस काली चिड़िया-सी
जो फुदकना छोड़
बैठी है उदास
उस वृक्ष की टहनी पर।

लड़का-लड़की, छोटा-बड़ा, ऊँच-नीच, अमीर-गरीब के बीच जो सुख-दुख, अधिकार-अनाधिकार का बँटवारा है, उसके लिए कुछ हद तक ये कविताएँ संवेदना प्रकट करती नज़र आती हैं। इनकी कविताएँ कहीं न कहीं हमें यह भी समझाने की कोशिश करती हैं कि समाज के इस उपेक्षित वर्ग का अपनी इन विडम्बनाओं के साथ जीना, उनकी नियति हो गई है। जैसे-

'इंतज़ार'

पौ फटते ही
उठ जाती हैं स्त्रियाँ
बुहारती हैं झाड़ू
और फिर पानी के
बर्तनों की खनकती
हैं आवाज़ें
पायल की झंकार और
चूड़ियों की खनक से
गूँज जाता है गली-मुहल्ले
का नुक्कड़
जहाँ करती हैं स्त्रियाँ
इंतज़ार कतारबद्ध हो
पाने के आने का।
होती हैं चिंता पति के
ऑफिस जाने की और
बच्चों के लंच बाक्स
तैयार करने की,
देखते ही देखते
हो जाती है दोपहर
अब स्त्री का इंतज़ार
होता है बच्चों के
स्कूल से लौटने का
और फिर धीरे-धीरे
ढल जाती है शाम भी
उसके माथे की बिंदी
अब चमकने लगती है
पति के इंतज़ार में
और फिर होता
उसे पौ फटने का
अगला इंतज़ार!!

इसी स्वर की एक और कविता

'मैं'

मैं क़ैद हूँ
औरत की परिभाषा में
मैं क़ैद हूँ
अपने ही बनाए रिश्तों और
संबंधों के मकड़जाल में।
मैं क़ैद हूँ
कोख की बंद क्यारी में।
मैं क़ैद हूँ
माँ के अपनत्व में।
मैं क़ैद हूँ
पति के निजत्व में
और
मैं क़ैद हूँ
अपने ही स्वामित्व में।
मैं क़ैद हूँ
अपने ही मैं में।

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3 कविताप्रेमियों का कहना है :

मुकेश कुमार तिवारी का कहना है कि -

शैलेश जी,

अंजना जी की कवितायें दिल के बहुत ही करीब हैं और कुछ-कुछ अपनी बात सी लगती हैं।
(१) मुनिया-२

चिडिया की उदासी ही बयां कर देती है मुनिया और उसकी परिस्थितियों को, कि किस तरह वो गुड्डे-गुडियों से खेलना छोड़ खामोश हो जायेगी और एक दिन किसी गोद में खिलाने लगेगी कोई गुडिया कच्ची उम्र में।

(२) इंतजार

शायद औरत होना ही इंतजार है, और इस भावना को औरत के दैनंदिनी से बखूबई उकेरा है, कवयित्री ने ।

(३) मैं

कविता में कवयित्री स्व तत्व की खोज में अनुसंधानरत है और कैद को अपने अनुरूप पाते हुये अभिव्यक्ती को विराम देती है।

बधाईयाँ, कवयित्री को और साधुवाद हिन्द-युग्म को।

सादर,

मुकेश कुमार तिवारी

manu का कहना है कि -

आपने इस बार भी स्त्री पर काफी सुंदर लिखा है.....
पर यूं हर प्रकार से कैद में महसूस करना सही नहीं......

rachana का कहना है कि -

नारी की सोच और उसकी दशा के बारे में बहुत सुंदर लिखा है सच यही नारी की स्थिति है
रचना

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