अभी कुछ दिनों पहले सुभाष नीरव की बेटी ऋचा के ब्लॉग 'नये कदम नये स्वर' से होकर गुजरना हुआ। वहाँ बहुत से नये कवि-पौधों की क्यारियाँ थीं। मेरी कोशिश रही है कि समकालीन कविता से भी उन मोतियों को चुनकर हिन्द-युग्म के काव्याकाश में टाँक दूँ, जिनसे कविता का आँगन कभी सूना नहीं पड़ता। ऐसी ही एक युवा कवयित्री अंजना बख़्शी की कविताओं पर नज़र गई और थोड़ी देर के लिए शब्द-मोह जग गया। लगा कि इनकी अन्य कविताएँ भी पढ़नी चाहिए और जो बेहतरीन हो उसे अपने पाठकों की नज़र करनी चाहिए। अंजना बख्शी से संपर्क साधा। तो दोस्तो, जिस तरह से पिछली बार हमने आपको हरेप्रकाश उपाध्याय के संग्रह 'खिलाड़ी दोस्त तथा अन्य कविताएँ' से कविताएँ पढ़वाई थी, इस बार मैं आपको अंजना के संग्रह 'गुलाबी रंगों वाली वो देह' से कुछ कविताओं का रसास्वादन करवाऊँगा।
बहुत लम्बा-चौड़ा परिचय अंजना ने हमें भेजा है, उसमें से यह तय कर पाना बहुत मुश्किल है कि क्या छोड़ें क्या बतायें। फिर भी, इतना बता देना ज़रूरी है कि 5 जुलाई 1974 को दमोह (मध्य प्रदेश) में जन्मी अंजना एम. फिल. (हिन्दी अनुवाद), एम.सी.जे. (जनसंचार एवं पत्रकारिता) तक की शिक्षा प्राप्त करने के बाद जेएनयू, दिल्ली से हिन्दी अनुवाद में पीएचडी कर रही हैं। लम्बे समय से कविता-लेखन में सक्रिय अंजना के लिए पत्र-पत्रिकाओं में छपना बहुत पुरानी बात हो गई है। और बहुत आसान भी। अब तो इनकी कविताओं का नेपाली, तेलेगू, उर्दू, उड़िया और पंजाबी भाषाओं में अनुवाद होता है। ‘कादम्बिनी युवा कविता’ पुरस्कार 2006, डॉ. अम्बेडकर फैलोशिप सम्मान, युवा प्रतिभा सम्मान 2004 इत्यादि से सम्मानित अंजना ने ग्रामीण अंचल पर मीडिया का प्रभाव, हिंदी नवजागरण में अनुवाद की भूमिका, अंतरभाषीय संवाद, संपादन की समस्याएं, पंजाबी साहित्य एवं विभाजन की त्रासदी आदि विषयों पर छोटे-छोटे शोधकार्य भी किये हैं। कविता, कहनी, आलेख, लघुकथा, साक्षात्कार, समीक्षा एवं फीचर-लेखन आदि लेखन-विधाओं में बराबर हस्तक्षेप रखनेवालीं अंजना अभिनय भी करती हैं। नुक्कड़-नाटकों, मेलों, उत्सवों, कार्यशालाओं के माध्यम से लोगों को जगाती भी हैं। देश भर के आकाशवाणी केन्द्रों से इनकी रचनाओं का प्रसारण हुआ है। अनुवाद भी करती हैं (पंजाबी से कुछ चुनी हुई रचनाओं का हिन्दी में अनुवाद, अंग्रेजी से हिन्दी में कुछ आलेखों का अनुवाद, डॉ॰ आर॰ डी॰ एस॰ मेहताब के पंजाबी उपन्यास 'वे वसाए' का हिन्दी अनुवाद)। 'समकालीन अभिव्यक्ति', नई दिल्ली में संपादन सहयोग के साथ-साथ 'मसि-कागद' के 'युवा विशेषांक' (जनवरी 2005) का अतिथि संपादन भी किया।
अंजना बख्शी की कविताओं पर टिप्पणी करते हुए भारत की प्रसिद्ध हिन्दी कवयित्री अनामिका कहती हैं-
"अंजना बख्शी सपनों और स्मृतियों की एक छोटी-सी गठरी के साथ जेएनयू आई थीं। अब इस गठरी में संसार बँधा है- अपनी समस्त विडम्बनाओं की लहालोट के साथ! बहुत सारे श्रमसिद्ध चरित्र इन्होंने उकेरे हैं- आठ वर्षीय यासमीन/बुन रही है सूत/जिसके रूँएँ के मीठे जहर का स्वाद/नाक और मुँह के रास्ते उसके शरीर में/घर कर रहा है......अब्बा का अस्थमा, अम्मी की तरह...... एक्सरे।
दीनू मोची, बस में गाती गुड़िया, भेलू की स्त्री, केले बेचती लड़की, बल्ली बाई, जिस्म बेचती रामकली, अख़बार बेचता बच्चा, भुट्टा बेचती लड़की, कचरा बीनता अधनंगा बच्चा, ईंट ढोती औरत......श्रमदोहन वाले इस बाज़ार के पार जो अंतरंग-सा कोना है, उसमें 'मुनिया' का बचपन अपनी माँ और बाबा से कई जटिल प्रश्न पूछता नजर आता है- 'मेरे हाथों से चपेटे/छुड़ाकर तुम्हें क्या मिला माँ/रोज जला करते मेरे हाथ/रोटियाँ सेंकते.....सब्जी में नमक भी/हो जाता था ज्यादा/तब मिर्च-सी/लाल हो जातीं तुम्हारी आँखें'
वंचितों के प्रति उनकी अगाध सहानुभूति, सहज भाषा और संवेदनशील लोकसंदर्भ इनकी काव्य-यात्रा के पाथेय बनेंगे, यही उम्मीद है।"
अंजना बख्शी की कविताओं में उपस्थित दर्द और दर्द ढोतीं औरतें नई नहीं है। हम इसी मंच पर तमाम कवयित्रियों की कविताओं में उनकी झलक पा चुके हैं। इससे यह बात भी कहीं न कहीं सिद्ध होती है कि समय ज़रूर आगे खिसका है लेकिन उपेक्षितों से दर्द और विडम्बना तनिक भी अलग नहीं हुए हैं। शायद तभी अंजना की 'यासमीन' का सच हम सबका देखा-सुना-समझा सच है।
'यासमीन'
आठ वर्षीय यासमीन
बुन रही है सूत
वह नहीं जानती
स्त्री देह का भूगोल
ना ही अर्थशास्त्र,
उसे मालूम नहीं
छोटे-छोटे अणुओं से
टूटकर परमाणु बनता है
केमिस्ट्री में।
या बीते दिनों की बातें
हो जाया करती हैं
क़ैद हिस्ट्री में।
नहीं जानती वह स्त्री
के भीतर के अंगों
का मनोविज्ञान और,
ना ही पुरूष के भीतरी
अंगों की संरचना।
ज्योमेट्री से भी वह
अनभिज्ञ ही है,
रेखाओं के नाप-तौल
और सूत्रों का नहीं
है उसे ज्ञान।
वह जानती है,
चरखे पर सूत बुनना
और फिर उस सूत को
गोल-गोल फिरकी
पर भरना
वह जानती है
अपनी नन्ही-नन्ही उँगलियों से
धारदार सूत से
बुनना एक शाल,
वह शाल, जिसका
एक तिकोना भी
उसका अपना नहीं।
फिर भी वह
कात रही है सूत,
जिसके रूँये के
मीठे ज़हर का स्वाद
नाक और मुँह से
रास्ते उसके शरीर में
घर कर रहा है
वह नहीं जानती
जो देगा उसे
अब्बा की तरह अस्थमा
और अम्मी की तरह
बीमारियों की लम्बी लिस्ट
और घुटन भरी ज़िदंगी
जिसमें क़ैद होगा
यासमीन की
बीमारियों का एक्सरे।
अंजना की कविताएँ शिल्प के तौर पर बहुत मज़बूत नहीं हैं। लेकिन कई कविताओं में सोच का नया सिरा ज़रूर मिल जाता है। जैसे हमें 'गुलाबी रंगों वाली वो देह' में औरत के टूटे-फूटे, कई भागों में बँटे व्यक्तित्व की नई दास्ताँ नज़र आती है।
'गुलाबी रंगों वाली वो देह'
मेरे भीतर
कई कमरे हैं
हर कमरे में
अलग-अलग सामान
कहीं कुछ टूटा-फूटा
तो कहीं
सब कुछ नया!
एकदम मुक्तिबोध की
कविता-जैसा
बस ख़ाली है तो
इन कमरों की
दीवारों पर
ये मटमैला रंग
और ख़ाली है
भीतर की
आवाज़ों से टकराती
मेरी आवाज़
नहीं जानती वो
प्रतिकार करना
पर चुप रहना भी
नहीं चाहती
कोई लगातार
दौड़ रहा है
भीतर
और भीतर
इन छिपी
तहों के बीच
लुप्त हो चली है
मेरी हँसी
जैसे लुप्त हो गई
नाना-नानी
और दादा-दादी
की कहानियाँ
परियों के किस्से
वो सूत कातती
बुढ़िया
जो दिख जाया करती
कभी-कभी
चंदा मामा में
मैं अभी भी
ज़िंदा हूँ
क्योंकि मैं
मरना नहीं चाहती
मुर्दों के शहर में
सड़ी-गली
परंपराओं के बीच
जहाँ हर
चीज़ बिकती हो
जैसे बिकते हैं
गीत
बिकती हैं
दलीलें
और बिका करती हैं
गुलाबी रंगों वाली
वो देह
जिसमें बंद हैं
कई कमरे
और हर
कमरे की
चाबी
टूटती बिखरती
जर्जर मनुष्यता-सी
कहीं खो गई!
इनकी कविताओं की अगली खेंप>>>>
प्रस्तुति- शैलेश भारतवासी
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7 कविताप्रेमियों का कहना है :
सुन्दर कविताएँ
अंजना बख़्शी को पढना अच्छा लगा। दूसरी खेप का भी इंतजार है। मुलायम सूत का बिम्ब दोनों ही कविताओं में आता है, जो ध्यान खींच रहा है। अगली खेप के बाद कुछ विस्तार से लिखूंगा।
बहुत सुन्दर मार्मिक रचनाएँ
सोचने पर विवश करती हैं
शैलेष जी,
सुश्री अंजना बख्शी जी को बधाईयाँ, और शैलेष जी आपको भी खुबसूरत रचनाओं से परिचित करवाने के लिये।
(१) "यास्मिन" एक प्रतीक के रूप में धीरे धीरे अपनी पहचान बना लेती है फिर अपने आस-पास की ही कोई लड़की में बदल आती है। कविता के आगे बढते एक रिश्ता जुड़ने लगता है यास्मिन से और यही एक कविता की सफलता है। अब्बा, अम्मी की बीमारियों के बहाने गरीबी के दर्द सहज ही महसूस किया जा सकता है और बाल-श्रम कितने भी नारों के बाद विद्यमान है बदनुमा दाग सा हमारी सभ्यता के मुँह पर।
(२)गुलाबी रंगों वाली देह जो बिका करती है और फिर टूटा करती है बंद कमरों में जिनकी ताली की खोज में बाजार अटा रहता है हमारे आज को सामने ले आती है।
कवियत्री को अनेकों बधाईयाँ और हिन्द-युग्म को भी।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
dono hi rachnaaye achchhee lageen....
bahut bahut badhaai...
anjna ji ki kavitayen jivan or samaj se ek sath takrati hain... unka jivan jesa hai vo kam hi logon tak sampreshit ho raha ha... kavitaon ke marfat.
me samajta hoon ki unko kavi hone ka koi abhiman nahi hai... ek achchi kavi hain... me unko pirnam to kar sakta hoon...
ravindra swapnil prajapati
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