आकांक्षा पारे हिन्द-युग्म पर पहली बार शिरकत कर रही हैं। 18 दिसंबर 1976 को जबलपुर में जन्म आकांक्षा ने इंदौर से पत्रकारिता की पढ़ाई की। दैनिक भास्कर, विश्व के प्रथम हिंदी पोर्टल वेबदुनिया से होते हुए इन दिनों समाचार-पत्रिका आउटलुक में कार्यरत हैं। कई साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में कहानी-कविताएं प्रकाशित हो चुकी हैं। आज पढ़िए इन्हीं एक कविता॰॰॰॰
पुरस्कृत रचना
हर जगह मचा है शोर
खत्म हो गया है अच्छा आदमी
रोज आती हैं खबरें
अच्छे आदमी का सांचा
बेच दिया है ईश्वर ने कबाड़ी को
अच्छे आदमी होते कहाँ है
का ताना मारने से कोई नहीं चूकता
विलुप्त होते भले आदमी ने एक दिन
खोजा उस कबाड़ी को
और
मांग की उस सांचे की
कबाड़ी ने बताया
सांचा बिखर गया है टूट कर
बहुत छोटे-छोटे टुकड़ों में
भले आदमी को कभी-कभी
दिख जाते हैं वह टुकड़े
किसी बच्चे के रूप में जो
हाथ थामे बूढे की पार कराता है सड़क
भरी बस में बच्चा गोद में लिए
चढ़ती स्त्री के लिए
सीट छोड़ता युवा
चौराहे पर ट्रेफिक के बीच
मंदिर दिख जाने पर सिर नवाती लड़की
विलुप्त होता भला आदमी खुश है
टुकड़ों में ही सही
जिंदा है भलाई।
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ५, ६॰५, ६॰२
औसत अंक- ५॰८६६६७
स्थान- तीसरा
द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ५, ४, ५॰८६६६७ (पिछले चरण का औसत
औसत अंक- ४॰९५५५
स्थान- छठवाँ
पुरस्कार- कवि गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल' द्वारा संपादित हाडौती के जनवादी कवियों की प्रतिनिधि कविताओं का संग्रह 'जन जन नाद' की एक प्रति।
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13 कविताप्रेमियों का कहना है :
अच्छी कविता....
निखिल आनंद गिरि
अच्छी कविता
पर और अच्छी हो सकती थी
बधाई
विलुप्त होता भला आदमी खुश है
टुकड़ों में ही सही
जिंदा है भलाई।
-- वाह बहुत ही सुंदर |
बधाई
अवनीश तिवारी
aakanksha ji,sabse pahle to badhai.
yah kahna galat hoga ki kavita achhi nahi hai par...aur bhi adhik ki gunjayish thi...
ALOK SINGH "SAHIL"
आप की सोच सुंदर है
भावों की सुंदर अभिव्यक्ति
बधाई
रचना
हाथ थामे बूढे की पार कराता है सड़क
भरी बस में बच्चा गोद में लिए
चढ़ती स्त्री के लिए
सीट छोड़ता युवा
बहुत अच्छी कविता आकांक्षा जी !
आकांक्षा की कविताओं से मेरा पहला परिचय तब हुआ था, जब मैं सफर (NGO) द्वारा आयोजित एक कविता गोष्ठी में कविताएँ सुनने गया था। मुझे आकांक्षा की कविता 'ईश्वर' और 'समझौता' (शीर्षक ठीक से याद नहीं) अब भी याद है। इनकी कविताओं में कई स्थानों पर कविता के तत्व दृष्टिगोचर होते हैं। आशा है कि समय इनकी कविताओं को और पक्का करता जायेगा।
ramnarayan said....
kavita achchi lagi.
thanks.
टुकडों में ही सही............जिंदा है भलाई ....
अच्छी कविता का बहुत ही अच्छा अंत...
बधाई ..
आकांक्षा जी
बधाई स्वीकार करें.
आज अच्छे आदमी की बहुत जरूरत है; आपकी रचना में दर्द है तो संतोष भी है, जो सकारात्मक सोच का परिचायक है. अच्छे लोगों से ही यह दुनिया टिकी हुई है. घबरायें नहीं फर्क इतना है कि अच्छे लोग एकजुट होने में समय लगाते हैं और जो अच्छे नहीं हैं वे बहुत जल्दी एकजुट हो जाते हैं, यही कारण है कि असामयिक घटनायें देखने को मिलती हैं. अच्छे लोग अपने अच्छे अच्छे कार्यों में लगे हुए हैं. मेरा एक शे'र आपको समर्पित है-
यह इंसान ही है जो कभी, मसीहा बन जाया करता है.
यह इंसान ही है जो कभी, दरिन्दा बन जाया करता है.
इसे इंतिहा कहें या कहें, मुअजिज़े़ 'आकुल',
यह इंसान ही है जो कभी, ख़ुदा बन जाया करता है.
पुन: ख़ूबसूरत कविता के लिए बधाई.
'आकुल'
...और भला आदमी कितनी ऐसी-तैसी कराएगा? शैलेश जी कह रहें हैं कि आकांक्षा की कविता में कई स्थानों पर कविता के तत्व दृष्टिगोचर होते हैं। कृपया ज्ञान दें कि कहीं-कहीं का क्या मतलब है? ...और कविता में कविता के तत्व दृष्टिगोचर नहीं होंगे तो किसके होंगे?
miyaan hari josi jara thik se itni bi kavita nhi he ye ha bhav jarur thik he,tora tik se likhye
acchhi kavita hai.
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