यूनिकवि प्रतियोगिता की अगली रचना की ओर बढ़ते हैं। युवा कवयित्री हरकीरत कलसी 'हक़ीर' असाम में रहती हैं। और हिन्दी के लिए ऑफलाइन और ऑनलाइन दोनों तरह से सक्रिय हैं। सितम्बर माह की यूनिकवि प्रतियोगिता में इनकी कविता 'तखरीव का बादल' प्रकाशित हुई थी। नवम्बर माह की प्रतियोगिता के लिए इन्होंने कुछ क्षणिकाएँ भेजी थी, जिन्हें निर्णायकों ने खूब पसंद किया। क्षणिकाओं ने छठवाँ स्थान बनाया। इस महीने की हंस (राजेन्द्र यादव द्वारा प्रकाशित) पत्रिका में भी इनकी एक कविता 'वज़ूद तलाशती औरत' प्रकाशित हुई है।
पुरस्कृत कविता- क्षणिकायें
(१) जख्म
रात आसमां ने आंगन में अर्थी सजाई
तारे रात भर खोदते रहे कब्र
हवाओं ने भी छाती पीटी
पर मेरे जख्मों की
मौत न हुई...
(२) दर्द
चाँद काँटों की फुलकारी ओढे़
रोता रहा रातभर
सहर फूलों के आगोश में
अंगडा़ई लेता रहा...
(३) टीस
फिर सिसक उठी है टीस
तेरे झुलसे शब्द
जख्मो को
जाने और कितना
रुलायेंगे...
(४) शोक
रात भर आसमां के आंगन में
रही मरघट सी खामोश
चिता के धुएँ से
तारे शोकाकुल रहे
कल फिर इक हँसी की
मौत हुई।
(५) सन्नाटा
सीढ़ियों पर
बैठा था सन्नाटा
दो पल साथ क्या चला
हमें अपनी जागीर समझ बैठा...
(६) वज़ह
कुछ खामोशी को था स्वाभिमान
कुछ लफ्जों को अपना गरूर
दोनों का परस्पर ये मौन
दूरियों की वज़ह
बनता रहा...
(७) गिला
गिला इस बात का न था
कि शमां ताउम्र तन्हा जलती रही
गिला इस बात का रहा के
पतिंगा कोई जलने आया ही नहीं...
(८) दूरियाँ
फिर कहीं दूर हैं वो लफ्ज़
जिसकी आगोश में
चंद रोज हँस पडे़ थे
खिलखिलाकर
जख्म...
(९) तलाश
एक सूनी सी पगडंडी
तुम्हारे सीने तक
तलाशती है रास्ता
एक गुमशुदा व्यक्ति की तरह...
(१०) तुम ही कह दो...
तुम ही कह दो
अपने आंगन की हवाओं से
बदल लें रास्ता
मेरे आंगन के फूल
बडे़ संवेदनशील हैं
कहीं टूटकर बिखर न जायें...
(११) किस उम्मीद में...
किस उम्मीद में जिये जा रही है शमां...?
अब तो रौशनी भी बुझने तेरी लगी है
दस्तक दे रहे हैं अंधेरे किवाड़ों पर
और तू है के हँस-हँस के जले जा रही है...
(१२) सुनहरा कफ़न
ऐ मौत !
आ मुझे चीरती हुई निकल जा
देख! मैंने सी लिया है
सितारों जडा़
सुनहरा कफ़न
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ५॰५, ७॰७५
औसत अंक- ६॰६२५
स्थान- तीसरा
द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ७, ३॰५, ६॰६२५ (पिछले चरण का औसत
औसत अंक- ५॰७०८३३३
स्थान- तीसरा
पुरस्कार- कवि गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल' के काव्य-संग्रह 'पत्थरों का शहर’ की एक प्रति
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18 कविताप्रेमियों का कहना है :
रात आसमां ने आंगन में अर्थी सजाई
तारे रात भर खोदते रहे कब्र
हवाओं ने भी छाती पीटी
पर मेरे जख्मों की
मौत न हुई...
वल्लाह , वो जख्म क्या हुआ जो मिटाए से मिट गया
गिला इस बात का न था
कि शमां ताउम्र तन्हा जलती रही
गिला इस बात का रहा के
पतिंगा कोई जलने आया ही नहीं...
intjaar......
तुम ही कह दो
अपने आंगन की हवाओं से
बदल लें रास्ता
मेरे आंगन के फूल
बडे़ संवेदनशील हैं
कहीं टूटकर बिखर न जायें...
यूँ तो सारी ही अच्छी हैं
पर ये पंक्तियाँ लाजवाब हैं
(६) वज़ह
कुछ खामोशी को था स्वाभिमान
कुछ लफ्जों को अपना गरूर
दोनों का परस्पर ये मौन
दूरियों की वज़ह
बनता रहा...
बहुत अर्थपूर्ण ,उम्दा पंक्तियाँ !!
सन्नाटा,वज़ह ,तलाश,तुम ही कहा दो
दिल की गहराईयों से लिखे शब्द
सुंदर !!!!
"kuchh khamoshi ko tha swabhimaan, kuchh lafzo ko apna guroor...
dooriyo ki vajah banta rahaa" bahot hi prabhaavshali panktiyaaN haiN. Aur aapke dard ki awaaz to shayad unhi hawaaoN mei hi shaamil hai jinke liye aapne likha hai k "badal leiN raasta.." . HawaaoN ka rukh chaahe jitna bhi tez ho, lekin jeet to bs shamma ki hi hogi
usse to hr haal mei bs jalte hi rehnaa hai...apne dard ko apni taaqat bna kar, sankalp bna kar..!!
---MUFLIS---
ज्ञात होता है कि नियंत्रक महोदय ने गलती से "तीसरे" स्थान को "छठा" स्थान लिख दिया है। कृप्या इसे सुधार ले।
हरकीरत जी की हरेक क्षणिका बेहतरीन है, इसलिए किसी एक को उद्धृत करने की मैं गलती नहीं कर सकता । भावों का ऎसा संगम बिरले हीं देखने को मिलता है।
बधाई स्वीकारें।
-तन्हा
आप को जल्दबाजी में टिपण्णी नहीं देना चाहता...चाहे दो दिन बाद ही दूँ ..............पर तसल्ली से अपने घर जाकर..........
कुछ खामोशी को था स्वाभिमान
कुछ लफ्जों को अपना गरूर
दोनों का परस्पर ये मौन
दूरियों की वज़ह
बनता रहा...
कमाल है.... क्या बोलूँ अब मैं हरकीरत जी...
बधाई हो आपको और आपकी कलम को...
उपमों का एसा सुंदर प्रयोग मेने देखा नही कहीं बहुत देर सोचती रही किस के बारे में लिखूं पर समझ न पाई क्यों की सभी बहुत सुंदर है
सादर
रचना
रात आसमां ने आंगन में अर्थी सजाई
तारे रात भर खोदते रहे कब्र
हवाओं ने भी छाती पीटी
पर मेरे जख्मों की
मौत न हुई...
bahut khoob-shyamskha
वाह! क्या पैकेज है जी,सारी की सारी क्षणिकाएं एक से बढ़कर एक.लाजवाब
आलोक सिंह "साहिल"
मिट जाते हैं दर्द
जख्म मुस्करा उठते हैं
शब्दों से जब स्नेह
आप सब इतना
दे जाते हैं....
शुक्रिया आप सब का...
शुक्रिया हिन्द-युग्म....
मिट जाते हैं दर्द
जख्म मुस्करा उठते हैं
शब्दों से जब स्नेह
आप सब इतना
दे जाते हैं....
शुक्रिया आप सब का...
शुक्रिया हिन्द-युग्म....
बहोत ही दर्द भरा है आपकी क्षणिकाओं में हरकीरत जी दिल को छू जाती हैं, तीसरे स्थान के लिए बधाई स्वीकारें.....
मनुज
.
जीवन के प्रायः हर कोमल पक्षों को आपने क्षणिकाओं के माध्यम से बड़ी सहजता से छूने की कोशिश की है। मेरी हार्दिक शुभकामना। मन तो करता है हर क्षणिकाओं के लिए कुछ पँक्तियाँ लिखकर भेजूँ, किनतु ऐसा संभव नहीं है। अतः आपकी रचनाओं को ध्यान में रखकर पेश है-
जख्मे जिगर हमारा भरने लगा है शायद।
नश्तर बतौर तोहफा उसने थमा दिया।।
साथ ही-
दर्द की टीस को संगीत समझ लेते हैं।
मेरी हर हार को भी जीत समझ लेते हैं।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
Email- shyamalsuman@gmail.com
दो दिन बाद भी लिख के क्या कर लूँगा...?
इतना आसान कहाँ होता है तुम्हारे लिखे पर कुछ लिख पाना
Harkirat main to hamesa se kehta raha hun tum lajwab likhti ho tumhen dheron aashish, likhti raho...
Con. N.N.Singh.
har khshaniken lajwab hai.
har panktia jakhmaon ko hara bhara kar deti hai.
shabdon ki chot sambrdana ko jaga deti hai.
aaghat-pratghat sahlate hai dil koq
tab jajbat ubharate hain
kabita phool bankar khil jati hai
jiski khoosaboo hame bhi mal jati hai. kishore kumar jain.fancy bajar guwahati.
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