हमारे पास कोई विकल्प नहीं था,
टी.वी. के आगे बैठकर लाशें गिनने के सिवा...
गोलियों से छलनी होकर रेशा-रेशा बिखरे कांच के टुकड़े,
चुभो रहे थे मर्दानगी को...
और मूकदर्शक बने रहने के सिवा,
हमारे पास कोई विकल्प नहीं था..
हम कर भी क्या सकते थे,
जब सदी के महानायक के पास भी विकल्प नहीं था...
बायें हाथ में रिवॉल्वर थामे,
वो नहीं कर सकता था,
मौत का सामना,
इसीलिए बंदूक को तकिया बनाकर,
लेनी पड़ी चैन की नींद...
कोई विकल्प नहीं था
उस सफ़ेदपोश के पास,
उस दरवाज़े पर जाकर घड़ियाली आंसू बहाने के सिवा,
जहां नहीं गया था वो पहले कभी
या कोई कुत्ता भी....
विकल्प था उस पिता के पास,
जो जवान बेटे की मौत पर मौन था,
उसने चुप्पी तोड़ी तो भाग गया
दुम दबाकर सफ़ेदपोश,
उन्हीं गलियों से,
जहां कुत्ते भी जाना पसंद नहीं करते....
विकल्प था कुछ ज़िंदा दीवानों के पास,
सो लिखा उन्होंने,
अपने ख़ून से
ज़िंदा रहने का नया इतिहास.....
आप उन्हें किसी भी नाम से बुला सकते हैं,
सालस्कर, संदीप, करकरे...
क्या फर्क पड़ता है....
हमारे पास कोई विकल्प नहीं...
सिवाय मोमबत्तियों की आग सेंक कर गर्म होने के....
भीतर मर चुकी आग को सुलगाने के लिए
हमें अक्सर ज़रूरत पड़ती है,
चंद बेक़सूर लाशों की.....
दरअसल,
चाय की चुस्की,
एफएम का शोर,
ख़बर बेचते अखबार,
थक चुकी फाईलें,
ट्रैफिक का धुंआ,
बोनस का इंतज़ार
वगैरह-वगैरह....
कभी कोई विकल्प ही नहीं छोड़ते,
एक दिन या एक पल भी,
ज़िंदा लोगों की तरह ज़िंदगी जीने का,
ज़िंदा लोग माने....
सालस्कर, संदीप, करकरे...
आप उन्हें किसी भी नाम से पुकार लें...
क्या फर्क पड़ता है....
निखिल आनंद गिरि
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
15 कविताप्रेमियों का कहना है :
Nice composition!
ye nahi kahunga k kavita bahot achhi hai...bhaav, shilp, shaili
bahot umdaa aur asardaar haiN.
bs itna kehtaa hu k sach ko kis hausle se itna qreeb ja kar dekha,socha,parhaa, likkha aapne.
mahanaayak ko revolver se, aur safedposh ko isteefa de kr santosh
karna hi pasand aaya. theek kaha aapne, hmaare svaarth hameiN zinda hi kahaan rehne deti hai.
mera naman svikaar kareiN.
---MUFLIS---
In this saddest moment, I extend my deepest condolence to all those who lost their lives in the Mumbai mayhem. Our thoughts and prayers go out to all of the victims’ families. We can't just say it is an exclusive case of India. Lets stand united and pray together. Lets act towards a peaceful and prosperous world.
बहोत ही बढ़िया टिपण्णी करी आपने बहोत खूब लिखा है आपने ढेरो बधाई आपको...
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कोई विकल्प नहीं था
उस सफेदपोश के पास
उस दरवाजे पर जाकर घड़ियाली आंसू बहाने के सिवा
जहाँ नहीं गया था वो पहले कभी
या कुत्ता भी----
---वाह
आपके ये तेवर कभी ऐसे न थे
समझ सकता हूँ
हालात भी कभी पहले ऐसे न थे।
--देवेन्द्र पाण्डेय।
कोई विकल्प नहीं था
उस सफ़ेदपोश के पास,
उस दरवाज़े पर जाकर घड़ियाली आंसू बहाने के सिवा,
जहां नहीं गया था वो पहले कभी
या कोई कुत्ता भी....
aapka ye kattaksh dil ko sabse jyaada bhaaya ,
विकल्प था उस पिता के पास,
जो जवान बेटे की मौत पर मौन था,
उसने चुप्पी तोड़ी तो भाग गया
दुम दबाकर सफ़ेदपोश,
उन्हीं गलियों से,
जहां कुत्ते भी जाना पसंद नहीं करते....
sheedon ki sahaadat,ko na samajhne waale inhi galion me aawara ghoomte najar aate hain
badhaai sweekaaren giri ji
"कोई विकल्प नहीं था
उस सफ़ेदपोश के पास,
उस दरवाज़े पर जाकर घड़ियाली आंसू बहाने के सिवा,
जहां नहीं गया था वो पहले कभी
या कोई कुत्ता भी...."
क्या कटाक्ष है भाई!!! वाह!!!
ये मोमबत्तियाँ जलाने का वक्त नहीं... एक आग जलनी चाहिये सीने में... निरंतर...
इतनी अच्छी और यथार्थ कविता
नमन है आपकी कलम को
निखिल... अच्छी कविता है... इस ग़ुस्से को बनाये रखना है... जबतक कि हम इस आतंकवाद को गये ज़माने की बात नहीं बना देते...
नाज़िम नक़वी
समस्या को समझने का समय आ गया है यदि अब भी नही सम्भले तो समय जा चुकेगा हम सब के जागने का समय आ गया है कविता अच्छी है
डॉ वेद व्यथित ,फरीदाबाद
भइया,कसम से मैं सिहर उठा पढ़कर.
हैट्स ऑफ़ टू यू!
मुझे लगता है कि किसी भी साहित्यिक रचना का मतलब तभी बनता है जब वो सामाजिक सरोकारों वाली हो,आत्म सुख वाली चीज़ें क्षणिक ही होती हैं.
बेहतरीन पहल है.
उम्मीद है आगे भी लोग अपने कदम इस ओर बढायेंगे.
आलोक सिंह "साहिल"
कोई विकल्प नहीं था
उस सफ़ेदपोश के पास,
उस दरवाज़े पर जाकर घड़ियाली आंसू बहाने के सिवा,
जहां नहीं गया था वो पहले कभी
या कोई कुत्ता भी....
बहुत अच्छा व्यंग्य है, और हमारे पास व्यंग्य के सिवा कोई विकल्प ही नही है, हम कर भी कुछ नही सकते, कुछ समय बाद समाज भूल जाएगा शहीदो को
खून खोलता है ये सोचकर पर कोई विकल्प ही नही है
सुमित भारद्वाज
दरअसल,
चाय की चुस्की,
एफएम का शोर,
ख़बर बेचते अखबार,
थक चुकी फाईलें,
ट्रैफिक का धुंआ,
बोनस का इंतज़ार
वगैरह-वगैरह....
कभी कोई विकल्प ही नहीं छोड़ते,
एक दिन या एक पल भी,
ज़िंदा लोगों की तरह ज़िंदगी जीने का,
बहुत सुंदर ....दिल को छू गई ये पंक्तिया..
निखिल जी ,
विकल्प था उस पिता के पास,
जो जवान बेटे की मौत पर मौन था,
उसने चुप्पी तोड़ी तो भाग गया
दुम दबाकर सफ़ेदपोश,
उन्हीं गलियों से,
जहां कुत्ते भी जाना पसंद नहीं करते....
कुछ ना कर पाने की लाचारी और खामोश रहने की मजबूरी , आपकी कविता जिस विवशता को चीख चीख कर बता रही है, उसे सभी भारतीय महसूस कर रहे हैं, बहुत असरदार शब्दों में आपने उसे ज़ाहिर किया है . यह जज्बा बनाए रखें.
सस्नेह
^^पूजा अनिल
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