हम अक्टूबर माह की यूनिकवि प्रतियोगिता से जो दूसरी कविता प्रकाशित कर रहे हैं, उसके कवि डॉ॰ मनीष मिश्रा केन्द्रीय उपोष्ण बागवानी संस्थान, लखनऊ ने जैवप्रोद्यौगिकी प्रयोगशाला में वरिष्ठ वैज्ञानिक हैं। इनकी कविताएँ विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं सहित ज्ञानपीठ (समकालीन भारतीय साहित्य) में प्रकाशित हो चुकी हैं। एक काव्य-संग्रह 'हमें चाहिए खिलखिलाहटों की दो-चार जड़ें' प्रकाशित हो चुका है और 'शहर के पड़ोस में दुबली सी नदी रहती है' प्रकाशन-पथ पर है।
पुरस्कृत कविता- उम्र के चालीसवे वसंत में
उम्र के चालीसवें वसंत में-
गिरती है समय की धूप और धूल
फ़र-फ़र करती झरती हैं तरुण कामनायें
थोड़े और घने हो जाते है मौन के प्रायः दीप
फिर, फिर खोजता है मन सताए हुए क्षणों में सुख!
उम्र के चालीसवें वसंत में-
छातों और परिभाषाओं के बगैर भी गुजरता है दिन
सपने और नींद के बावजूद बीतती है रात
नैराश्य के अन्तिम अरण्य के पार भी होता है सवेरा
जीवन के घने पड़ोस में भी दुबकी रहती है अनुपस्थिति!
उम्र के चालीसवें वसंत में-
स्थगित हो जाता है समय
खारिज हो जाती है उम्र
बीतना हो जाता है बेमानी!
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ६॰२५, ५, ६॰५, ५॰२
औसत अंक- ५॰७३७५
स्थान- आठवाँ
द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ६॰५, ६, ५॰७३७५ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ६॰०८
स्थान- दूसरा
पुरस्कार- कवयित्री पूर्णिमा वर्मन की काव्य-पुस्तक 'वक़्त के साथ' की एक प्रति।
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16 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत अच्छा।
"fr fr krti jhrti haiN tarun kaamnaaeiN, thoRhe aur ghane ho jate haiN maun ke praay:dweep" waah! sach ka sachcha bakhaan aur aisi saadgi se! lekin yooN to mt kahiye.. "beetna ho jata hai be.maani"... ye to umr ke iss paRhaav pr sitam hai aapka..... (MUFLIS)
"नैराश्य के अन्तिम अरण्य के पार भी होता है सवेरा "
यह पंक्ति बहुत सुंदर लगी.
"फ़र-फ़र करती झरती हैं तरुण कामनायें"
यह 'फर-फर' शब्द पता नही क्यूँ खटक रहा है. बड़ा अकाव्यात्मक सा
मुहम्मद अहसन
थोड़े और घने हो जाते है मौन के प्रायः दीप
फिर, फिर खोजता है मन सताए हुए क्षणों में सुख!
वयोवृद्ध होने लगे तो क्या हुआ, कुछ वृद्धि ही हुई न!
MANISH JI,badhai swikar karein.
ALOK SINGH "SAHIL"
मनीष जी,
आपकी यह कविता मुझे बेहद पसंद आई। आज कवि महेश चंद गुप्ता 'खलिश' के यहाँ एक काव्यगोष्ठी थी, जिसमें अमेरिका से कवि रिपुदमन पचौरी और राहुल उपाध्याय आये थे, मैंने यही कविता वहाँ पढ़ी। वहाँ भी लोगों ने बहुत पसंद किया। इसी तरह से कविताओं से हमें नवाज़ते रहें।
बहुत बढ़िया कविता रचित हुई है... मर्म भी है... नर्म भी है... सादगी भी है और ताज़गी भी... बधाई...
नाज़िन नक़वी
"फ़र-फ़र करती झरती हैं तरुण कामनायें"
सुंदर चित्रण
ये कविता मुझे बहुत अच्छी लगी....एकदम सीधी और असरदार....
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति
धन्यवाद
आप की कवितायें तो मै हमेशा से पढ़ती आरही हूँ आप बहुत अच्छा लिखते है दूसरी पादान पे आने की बधाई आशा करती हूँ आप हिन्द यग्म पे बने रहेंगे तथा आप की कवितायें पढने का मौका भी मिलेगा
रचना
bahut sunder kavita
"गिरती है समय की धूप और धूल
फ़र-फ़र करती झरती हैं तरुण कामनायें
थोड़े और घने हो जाते है मौन के प्रायः दीप
फिर, फिर खोजता है मन सताए हुए क्षणों में सुख!"
पूरी कविता अच्छी लगी है...मुझे यह पंक्तियाँ सबसे अधिक पसंद आईं...बधाई मनीष जी....
उम्र के चालीसवें वसंत में-
स्थगित हो जाता है समय
खारिज हो जाती है उम्र
बीतना हो जाता है बेमानी!
phir bhi ek nayi suruaat ho jaati
suru ,kavita achchi lagi
dr मिश्रा. 40 saal mein to zindigi shuru'u bhi nahi hoti hai. kaisa nairaashya.
ahsan
बहुत सुंदर...
उम्र के चालीसवें वसंत में-
गिरती है समय की धूप और धूल
फ़र-फ़र करती झरती हैं तरुण कामनायें
थोड़े और घने हो जाते है मौन के प्रायः दीप
फिर, फिर खोजता है मन सताए हुए क्षणों में सुख!
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