प्रतियोगिता की पाँचवी प्रस्तुति हिन्द-युग्म में पहली बार शिरकत कर रहे रोहित रूसिया है। 26 अक्टूबर 1973 को जन्मे रोहित की रूचि मूल रूप से नई कविता, नव गीत और ग़जलों में है। विभिन्न साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित भी हो चुकी हैं। वर्तमान में मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन जिला इकाई छिंदवाड़ा में प्रबंध मंत्री हैं और दवा व्यवसाय में विगत 15 वर्षों से संलग्न हैं।
पुरस्कृत कविता
सपने खुली आंखों के सपने नहीं होते
दिल जिनमें दरीचें ना हो अपने नहीं होते
बचपन का मेरा ख्वाब कहीं खो गया ऐसे
कुछ सीपियों में ज्यों कभी मोती नहीं होते
खुशियों के कारोबार पे करता है जो यकीं
ये झूठ है कि गम उसे सहने नहीं होते
हर शख्स जहां भीड़ में तन्हा सा रहता है
बेशक वो मकां होंगे कभी घर नहीं होते
मुस्कान चलो बांट दे कुछ इस जहां में हम
सजदे को खुदा-बुत ही जरूरी नहीं होते
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ८, ३, ६, ५॰५
औसत अंक- ५॰६२५
स्थान- दसवाँ
द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ४, ७॰५, ५॰६२५ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ५॰७१
स्थान- पाँचवाँ
पुरस्कार- कवयित्री पूर्णिमा वर्मन की काव्य-पुस्तक 'वक़्त के साथ' की एक प्रति।
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20 कविताप्रेमियों का कहना है :
kiyaa baat hai dear bouth aacha post hai
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कविता का एक शेर --हर शख्स जहाँ भीड़ में तन्हा है,बेशक वो मकां होगे कभी घर नही होगे बहुत अच्छा लगा. बधाई!
bahut sundar
खुशियों के कारोबार पे करता है जो यकीं
ये झूठ है कि गम उसे सहने नहीं होते
बहुत सुन्दर!
सत्यता को दर्शाती निम्न पंक्तियाँ बेहद पसंद आई...
बचपन का मेरा ख्वाब कहीं खो गया ऐसे
कुछ सीपियों में ज्यों कभी मोती नहीं होते
ये शे'र कहीं पढा़-पढा़ सा लगा यूँ सारे अशआर अच्छे बन पडे़ हैं, बधाई पाँचवें स्थान के लिए।
बधाई पाँचवे स्थान के लिए
कवित बहुत ही अर्थपूर्ण है और बहुत प्रभावित करती है
धन्यवाद
मुस्कान चलो बांट दे कुछ इस जहां में हम
सजदे को खुदा-बुत ही जरूरी नहीं होते
सरल शब्द सुंदर भाव मनोरम ग़ज़ल
सादर
रचना
मुस्कान चलो बांट दे कुछ इस जहां में हम
सजदे को खुदा-बुत ही जरूरी नहीं होते
वाह! बहुत खूब लिखा है.
अच्छी गज़ल है।
-देवेन्द्र पाण्डेय।
हर एक शेर बहुत खुबसूरत है...
अच्छा लगा..
मुस्कान चलो बांट दे कुछ इस जहां में हम
सजदे को खुदा-बुत ही जरूरी नहीं होते
बहुत उम्दा शे’र रोहित जी..
बधाई...
खुशियों के कारोबार पे करता है जो यकीं
ये झूठ है कि गम उसे सहने नहीं होते
sabse jyaada yahi pasand aaya hume
खुशियों के कारोबार पे करता है जो यकीं
ये झूठ है कि गम उसे सहने नहीं होते
वाह क्या लिखा है
सुमित भारद्वाज
बचपन का मेरा ख्वाब कहीं खो गया ऐसे
कुछ सीपियों में ज्यों कभी मोती नहीं होते
आपके लेखन का कायल हो गया
उम्दा शेर, आस पास बिखरी हुई बातों से निकले हुवे
पहली बार हिन्दयुग्म पर आने की बधाई....ग़ज़ल की रफ्तार बड़ी प्यारी है...
पहली बार हिन्दयुग्म पर आने की बधाई....ग़ज़ल की रफ्तार बड़ी प्यारी है...
सहज और प्रवाहमय, पुरस्कार के लिए बधाई!
वाह ! सरलता से कही बात है |
यह ग़ज़ल बिकुल सरल और संतुलित लगी |
बधाई |
-- अवनीश तिवारी
मुस्कान चलो बांट दे कुछ इस जहां में हम....वाह बहुत खूब!
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