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शब्दहीन हूँ ख़ुद के लिए आज उस तरह
थी निरुत्तर इक दिन मैं सब को जिस तरह
किए उन्होंने प्रश्न तेरे जाने पे किस तरह
ख़ुद मैंने भी न पूछे तुझसे उस तरह
......विश्वास मेरा मुझे कहता है इन जैसी नहीं हूँ मैं ||
जब जा रही थी जां तब तो कोई न आया
जा रहा था प्यार तो अपनों ने भी रुलाया
शोक मनाने लेकिन चौथे हर कोई आया
यही रोये सारे के मैंने क्यों न बचाया
......ये कहते मुझको 'अपनी', पर उनकी कहाँ हूँ मैं ||
अब लोग कहे न जता उसे अब-भी लगाव है
इस दुनिया में घाव के बदले सब देते घाव है
तू भी जफा कर, खेल के जैसा खेला वो दांव है
मैं सोचूँ के ये प्यार कहाँ, ये तो अहंभाव* है
......मेरा 'अहम्'* ये सुनकर कहने लगा के 'तुझे में नहीं हूँ मैं' ||
क्यों सब कहते मैं हार गई, उसकी ये जीत है
जो भागे है वो आगे है, दुनिया की रीत है
कैसे समझाऊँ ये दौड़ नहीं ये मेरी प्रीत है
जो खुश है वो मेरी हार में, मेरी भी जीत है
......फिर भी जिद है तो लो सुन लो के, हार गई हूँ मैं ||
प्रीत हुई इक बार मन में अब ये कैसा क्लेश
प्रीत हो जब कोई लगे भला वरना रखते हैं द्वेष ?
गणित ये जग समझ न पायी, जाने कैसा ये पेंच
मैं तो न बदलूँ , बदले दुनिया, चाहे बदले ईश
......प्रीत कहे इस जग में क्या अब कहीं नहीं हूँ मैं ? ||
~RC
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अहंभाव=ego
अहम्=conscience/zameer
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16 कविताप्रेमियों का कहना है :
अच्छी कोशिश है |
लेकिन -
किए उन्होंने प्रश्न तेरे जाने पे किस तरह
ख़ुद मैंने भी न पूछे तुझसे उस तरह
इसका क्या अर्थ है ?
प्रीत हुई इक बार मन में अब ये कैसा क्लेश
प्रीत हो जब कोई लगे भला वरना रखते हैं द्वेष ?
गणित ये जग समझ न पायी, जाने कैसा ये पेंच
मैं तो न बदलूँ , बदले दुनिया, चाहे बदले ईश
ये अन्य छंदों से अलग है और नही जमती |
ऐसा लगता है कि जबरदस्ती में रचना लिखी जा रही है |
आपके आगे की अच्छी रचनाओं की प्रतीक्षा में ...
-- अवनीश तिवारी
ना जता उसे, न बता उसे, अब-भी लगाव है
इस दुनिया में घाव के बदले सब देते घाव है
तू भी जफा कर, खेल के जैसा खेला वो दांव है
मैं सोचूँ के ये प्यार कहाँ, ये तो अहंभाव* है
......मेरा 'अहम्'* ये सुनकर कहने लगा के 'तुझे में नहीं हूँ मैं' ||
अब लोग कहे मैं हार गई, उसकी ये जीत है
जो भागे है वो आगे है, दुनिया की रीत है
कैसे समझाऊँ ये दौड़ नहीं ये मेरी प्रीत है
जो खुश है वो मेरी हार में, मेरी भी जीत है
......फिर भी जिद है तो लो सुन लो के, हार गई हूँ मैं ||
रचना प्रभावी है...
उपरोक्त पंक्तियों ने अत्यधिक प्रभावित किया..
rachna achchhi lagi pahli panktiyan bahut achchhi lagi-kiyeunhone..........us tarha bahut achhi badhai
जब जा रही थी जां तब तो कोई न आया
जा रहा था प्यार तो अपनों ने भी रुलाया
शोक मनाने लेकिन चौथे हर कोई आया
यही रोये सारे के मैंने क्यों न बचाया
......ये कहते मुझको 'अपनी', पर उनकी कहाँ हूँ मैं ||
बहोत ही बढ़िया जख्म उकेरा ..भाव्बिभोर कर दिया आपने ,बहोत खूब उम्दा लेखन ,आपको ढेरो बधाई ...
जब जा रही थी जां तब तो कोई न आया
जा रहा था प्यार तो अपनों ने भी रुलाया
शोक मनाने लेकिन चौथे हर कोई आया
यही रोये सारे के मैंने क्यों न बचाया
......ये कहते मुझको 'अपनी', पर उनकी कहाँ हूँ मैं ||ये पंक्तिया शेष कविता से अलग थलग लगीं मुझे क्योंकि शेष में जन मौत नहीं दरसता और मौत के बाद हार जीत का क्या फर्क
इस दुनिया में घाव के बदले सब देते घाव है-घाव के बदले तो घाव मिलेगा ही हाँ कहतीं प्यार के बदले भी देते घाव हैं तो कुछ और बात होती-पूरी कविता कनफूजन में लिखी गयी लगाती है -आबिद
"..shabdheen hu khud ke liye aaj uss tarah.." bahut achhi shuruaat kee, aisa sanket aaya k kavita mn ko aandolit karegi, lekin samveg ki g`tee banae nahi rkh paaeeN aap, shayad jo kehna tha wo jhatpat se kehne ka prayaas kiya, kavita kehne ki jaise rasm hi nibhana thi aapko..And to conclude..'phir b zid hai to sun lo k haar gayi hu maiN.." achha hai... Aur Aabidji ki baat pr bhi dhyaan dengi aap, prerna milegi.. ShubhkaamnaaeiN ---MUFLIS---
आप की कविता का हर छंद अपने आप में सुंदर है
ना जता उसे, न बता उसे, अब-भी लगाव है
इस दुनिया में घाव के बदले सब देते घाव है
तू भी जफा कर, खेल के जैसा खेला वो दांव है
मैं सोचूँ के ये प्यार कहाँ, ये तो अहंभाव* है
......मेरा 'अहम्'* ये सुनकर कहने लगा के 'तुझे में नहीं हूँ मैं' |
प्रीत हुई इक बार मन में अब ये कैसा क्लेश
प्रीत हो जब कोई लगे भला वरना रखते हैं द्वेष ?
गणित ये जग समझ न पायी, जाने कैसा ये पेंच
मैं तो न बदलूँ , बदले दुनिया, चाहे बदले ईश
......प्रीत कहे इस जग में क्या अब कहीं नहीं हूँ मैं
प्यार में अहम् नही होना था न
सच है प्रीत अब ढूंढनी पड़ती है
पूरी कविता ही सुंदर है
सादर
रचना
बहुत ही सुंदर पंक्तियाँ , भाव भरी, अर्थ भरी, सुंदर शब्दावली, मिटटी की गंध वाली पंक्तियाँ, एक उर्दू शब्द 'जफा' बहुत खटक रहा है. अगर इस का कोई विकल्प हो सकता!
मुहम्मद अहसन
mmai to itna hee kahana chaahoonga ke ye uper likhe comment saaare ache hai
SUNDAR KAVY KI SHRENI MEIN EK AUR NAMUNA.BEHATARIN.
ALOK SINGH "SAHIL"
जब जा रही थी जां तब तो कोई न आया
जा रहा था प्यार तो अपनों ने भी रुलाया
शोक मनाने लेकिन चौथे हर कोई आया
यही रोये सारे के मैंने क्यों न बचाया
......ये कहते मुझको 'अपनी', पर उनकी कहाँ हूँ मैं |
बहुत अच्छा लिखा है।
नयापन दिखा ....
कुछ छंद बहुत अच्छे भी है ..पर भावः में थोडी कमी लगी.
जो भागे है वो आगे है, दुनिया की रीत है
कैसे समझाऊँ ये दौड़ नहीं ये मेरी प्रीत है
अच्छी लगी ये पंक्तिया |
विनय
Thanks everybody!
Sawaalon ke jawaab dene ke liye shayad der ho gayi hai. Aage se jaldi tippaniyaan padh kar pratiktiya karne ki koshish karoongi!
रचना टुकड़ों में प्रभावित करती है। आपकी गज़ल जैसी बात इसमें नहीं मिली।
आपकी अगली गज़ल के इंतज़ार में-
विश्व दीपक ’तन्हा’
"आपकी गज़ल जैसी बात इसमें नहीं मिली।"
Tanhaa ji .. jaane kyon ye baat sunkar mujhe kahin bahut khushi hui :) Gazalon se mujhe bhi khaas lagaav hai ...
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)