ये कद-काठी के मेले हैं, लबादा क्या करे
डरे फर्जी, चले टेढ़ा तो प्यादा क्या करे
आते-आते ही आयेगी कि हरियाली तो अब
ये सूखे पत्ते मौसम का तगादा क्या करे
सिंहासन खाली कर दो अब कि जनता आती है
सुने जो नाद कवि का, शाहजादा क्या करे
करे जिद ननकु फिर से घुड़सवारी की, मगर
ये बूढ़ी पीठ झुक ना पाये, दादा क्या करे
बने हों बटखरे ही खोट लेकर जब यहाँ
तो कोई तौलने में कम-जियादा क्या करे
कड़ी है धूप राहों में ये सुनकर ही भला
गिरे खा गश, वो मंजिल का इरादा क्या करे
गंवाये नींद गालिब और न सोये उम्र भर
तो इसमें ख्वाबों वाला फिर वो वादा क्या करे
बहरे हजज मुसमन महजूफ
१२२२-१२२२-१२२२-१२
यूनिकवि- गौतम राजऋषि
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14 कविताप्रेमियों का कहना है :
अत्यन्त प्राभावी ग़ज़ल.अन्तिम के कुछ शेर विशेष अच्छे लगे.
कड़ी है धूप राहों में ये सुनकर ही [जो] भला
सुंदर ग़ज़ल पर बधाई मेजर साहिब हाँ ,ही की जगह ,जो करें तो कैसा रहेगा -मकते का दूसरा मिश्रा भी असपस्त है दुबारा गौर करें
Amazing, amazing Major saab. Applause! Sarey ashaar bahut pasand aaye .. khaaskar ye teen ... aur sabse jiyaada Ghaalib wala!
ये कद-काठी के मेले हैं, लबादा क्या करे
डरे फर्जी, चले टेढ़ा तो प्यादा क्या करे
सिंहासन खाली कर दो अब कि जनता आती है
सुने जो नाद कवि का, शाहजादा क्या करे
गंवाये नींद गालिब और न सोये उम्र भर
तो इसमें ख्वाबों वाला फिर वो वादा क्या क
Haan tarannum mein padhte waqt kahin kahin thoda 'flow' bigad jaata hai. Don't know if the problem is in my reading or...
RC
आपका गालिब वाला शे'र पढ़कर मुझे ये शे'र याद आया जो मेरे पसंदीदा शे'रो में से है | बड़ा अच्छा है, सबके साथ बांटना चाहूंगी... मशहूर है, शायर का नाम याद नहीं आ रहा
"मैंने पूछा क्यों सपने में न तूने शकल दिखाई
उसने पूछा मुझ बिन तुझको नींद ही कैसे आई"
गंवाये नींद गालिब और न सोये उम्र भर
तो इसमें ख्वाबों वाला फिर वो वादा क्या करे
बहुत अच्छा लगा गौतम जी
अच्छी है .
gajal ke akhir mein to kahar hi dha diya.sundar
alok singh "sahil"
कड़ी है धूप राहों में ये सुनकर ही भला
गिरे खा गश, वो मंजिल का इरादा क्या करे
mere liye to sabse badhiyaa hai ye
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
दिनकर जी की इन पंक्तियों का बहुत हीं सुंदर उपयोग किया गया है।
"अनाम बंधु" की टिप्पणी से सहमत हूँ। "ही" की जगह "जो" ज्यादा सही लगेगा।
कुल मिलाकर उम्दा गज़ल है।
"बहर" से यूँ हीं अवगत कराते रहें।
शुक्रिया एवं बधाई।
"करे जिद ननकु फिर से घुड़सवारी की, मगर
ये बूढ़ी पीठ झुक ना पाये, दादा क्या करे
बने हों बटखरे ही खोट लेकर जब यहाँ
तो कोई तौलने में कम-जियादा क्या करे"
मेजर साब...आपको सैल्युट करने का मन करता है...ये दो शेर तो क़ातिलाना है....इस वक्त लिखे जा रही कई बढ़िया रचनाओं से भी अच्छी लगी मुझे.....आपसे मिलने का मन कर गया भाई....
आप सब का कोटिशः धन्यवाद....सलाहों पर गौर करने के बाद शेर खुद को और अच्चे लगने लगे हैं.बस यूं ही हौसला बढाते रहिये..
श्याम जो खुद ही खेले गोपियों के संग राधा बन
कोई तब कैसे बतालाये, कि राधा क्या करे !
बहुत बढ़िया लिखा है
आते-आते ही आयेगी कि हरियाली तो अब
ये सूखे पत्ते मौसम का तगादा क्या करे
रजनीश जी नमस्कार
पहले तो देर से आने के लिए छमा चाहता हूँ बात दरअसल ये है की मेरे लैपटॉप में कुछ दिक्कत आ गई है जिस कारन ओन लाइन नही हो प् रहा हूँ
आपको हार्दिक बधाई शीर्ष स्थान पाने के लिए
आपकी पिचली गजल की तरह ये गजल भी अच्छी लगी बस एक ही बात समझ नही आई की आपने आखरी शेर में अपना तखल्लुस लगाने की जगह ग़ालिब का लगा दिया ऐसा क्यो ?
इस तरह तो पढने वाला इसे आपकी नही ग़ालिब की गजल समझेगा जो मुझे समझ आया लिखा है आप गुरु जी से भी इस विशy में जरूर पूछियेगा
aapka venus kesari
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