यह पहला मौका है कि यूनिकवि प्रतियोगिता के शीर्ष १० में कोई पूर्वोत्तर भारत से विजयी हुआ हो। यद्यपि हिन्द-युग्म गुवाहाटी से बहुत शुरूआत से पढ़ा जाता रहा है, लेकिन जिस भूभाग से हिन्दी बोलने वालों को भगाया जा रहा हो, वहाँ हिन्दी में रचना हो, यह उम्मीद करना बेमानी सा लगता है। लेकिन उसको कौन भगा सकता है जिसका जन्म ही वहाँ की चाय की बागानों में हुआ हो और जिसे हिन्दी से विशेष लगाव हो। जी हाँ, इस बार आठवें स्थान की कविता की रचनाकारा हरकी़रत कलसी 'हकी़र' गुवाहाटी असम में ही जन्मी हैं। हिन्दी और पंजाबी में काव्य-लेखन, आलेख, कहानियाँ, स्तम्भ और अनुवाद करती रही हैं। 'इक दर्द' नाम से इनकी एक काव्य-पुस्तक भी प्रकाशित हो चुकी है। आकाशवाणी और दूरदर्शन से काव्यपाठ तो करती ही रहती हैं। इनका आत्मकथ्य पढ़ें-
"चाय के बागानों के बीच खेलते-पढ़ते एक सीधी-साधी, भोली-भाली लड़की को कब गमों ने आ घेरा जान ही नहीं पायी वो, बोझ इतना ज्यादा के कंधे की तलाश महसूस होने लगी. उस वक़्त साथ दिया मेरी कविताओं ने, ये मेरी हमराज भी हैं, हमसाया भी, हमसफर भी और जीवन भर का सरमाया भी लेकिन मैं शुक्रगुजार भी हूँ उन तमाम लोगों की जिन्होंने मुझे दर्द दिये और जिनकी बदौलत आज मैं आप सबके सामने हूँ। अब तो इन से इश्क सा हो गया है ये साथ-साथ चलते हैं तो अकेलेपन का एहसास नहीं होता, आलम ये है के गम़ ही से दिल परेशां है और गम़ ही को दिल ढूंढता है।"
पुरस्कृत कविता- तखरीव का बादल
कोलतार सी पसरी रात
उम्मीदों के लहू में लिथडी़
बुदबुदा के कहती है
कोई दो घूंट पीला दे
दर्द का जा़म
दबोच रहा है
जैसे कोई गला
खराशें पड़ने लगीं हैं
सासों में
पथराई आँखों में है यथावत
इक मर्माहत प्यास
सूखे गलों में
अटकी पडी़ हैं
अधजली आवाजें
विश्वासों की जमीं
खिसकने लगी है
आक्रोश में पनपे
जहर के अंगारे
थिरकने लगे हैं
बाँध घुंघरू पैरों में
लील गया है सन्नाटा
स्वभाविक स्वाद
शब्द अटके पडे़ हैं
अधरों में
अवसाद और प्रताड़ना की
कातिल अभिव्यक्ति
है सडा़ध सिसकते
शयनकक्षों में
खौ़फ और दहशत
है अपने साये की
जु़म्बिश का
फूलों की ख्वाहिशें
डूब गई हैं
गिरते बुर्जों में
तखरीव का बादल
बरस रहा है
दर्द की बूँद लिए.
१.तखरीव- विनाश
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ७॰२५, ६, ५, ६, ३, ७॰३
औसत अंक- ५॰७५८३३
स्थान- आठवाँ
द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ६, ४, ५॰७५८३३ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ५॰२५२७७८
स्थान- आठवाँ
पुरस्कार- कवि शशिकांत सदैव की ओर से उनकी काव्य-पस्तक 'औरत की कुछ अनकही'
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13 कविताप्रेमियों का कहना है :
हिन्दयुग्म 300 साल से चल रहा है बधाई है। हैडर देखें।
बहुत अच्छी कविता असम से
कसम से....
हकीर जी को हार्दिक बधाई..
विश्वासों की जमीं
खिसकने लगी है
आक्रोश में पनपे
जहर के अंगारे
थिरकने लगे हैं
बाँध घुंघरू पैरों में
बहुत गहरा भाव |बधाई
अच्छी कविता के लिये बधाई हरकीरत जी।
मुझे यह रचना बेहद पसंद आई। बेहद अनूठे बिंबों का प्रयोग हुआ है।
बधाई स्वीकारें।
hardik badhai
कोलतार सी पसरी रात
उम्मीदों के लहू में लिथडी़
बुदबुदा के कहती है
कोई दो घूंट पीला दे
दर्द का जा़म
नाउम्मीदी का खूबसूरत [भयावह] चित्रण ,एक पञ्जाबी कविता के बोल हैं - तेरे वियोग नूं मेरा इन्ना ख्याल रिह्या ,लगया साड़ी उम्र कलेजे नाल रिह्या- सफल चितरन पर बधाई ,श्याम सखा श्याम
"कोलतार सी पसरी रात"
"खराशें पड़ने लगीं हैं
सासों में"
"खौ़फ और दहशत
है अपने साये की
जु़म्बिश का"
बहुत प्यारे शब्द-चित्र हैं....जीवंत कविता.....
हिन्दयुग्म पर स्वागत
maine bahut paas se kalsi g ko dekha hai,unhone jo likha vo jiya hai,ek kavi me is se badi visheshta kya ho sakti hai .
गुरभेज जी, आपके स्नेह से आँखें सजल हो आईं। ये मित्रों का सहयोग और स्नेह ही तो था जो आज मैं
'हिन्द-युग्म' तक की यात्रा तय कर पायी हूँ। आप सभी मित्रों का मैं तहे दिल से शुक्रिया अदा करती हूँ
जिन्होंने हिन्द-युग्म पर मेरा स्वागत किया है। मित्र श्याम सखा श्याम जी की शुक्र-गुजार हूँ जो मुझे इस मंच पर लाये। शुक्रिया उनका भी जो पढ़कर खामोश रहे।
दबोच रहा है
जैसे कोई गला
खराशें पड़ने लगीं हैं
सासों में
पथराई आँखों में है यथावत
इक मर्माहत प्यास
सूखे गलों में
अटकी पडी़ हैं
अधजली आवाजें
विश्वासों की जमीं
खिसकने लगी है
आक्रोश में पनपे
जहर के अंगारे
थिरकने लगे हैं
बाँध घुंघरू पैरों में
आपने शब्दों का चुनाव बहुत ही अच्छा किया है सभी सार्थक हैं
सादर
रचना
haqeerji kvitaaeiN parhna bilkul waisa hi hai jaise tan`haaii aur dard ke lamho meiN khud se baateiN karna...khud ki talaash karna. `koltar si pasri raat`dil ki geharaaii mei chhipi khaamoshi ki aawaaz hai...aas.paas maahaul meiN panap rahe sannaate aur talkhee ki tarjumaani hai. dheroN mubaarakbaad........
दबोच रहा है
जैसे कोई गला
खराशें पड़ने लगीं हैं
सासों में
पथराई आँखों में है यथावत
इक मर्माहत प्यास
सूखे गलों में
अटकी पडी़ हैं
अधजली आवाजें
विश्वासों की जमीं
खिसकने लगी है
आक्रोश में पनपे
जहर के अंगारे
थिरकने लगे हैं
बाँध घुंघरू पैरों में
बढ़िया शब्दों और बिम्बों का प्रयोग
पढ़ कर अच्छा लगा.
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