कवि नाज़िम नक़वी इनदिनों हिन्द-युग्म का आतिथ्य स्वीकारे हुए हैं। आवाज़ पर ईद के बहाने और कविता पृष्ठ पर ग़ज़लों के बहाने आप सभी इनसे रूबर हो ही चुके हैं। आज पढ़ते हैं इनकी एक और ग़ज़ल॰॰
सूरज हाथ से फिसल गया है
आज का दिन भी निकल गया है
तेरी सूरत अब भी वही है
मेरा चश्मा बदल गया है
ज़ेहन अभी मसरूफ़ है घर में
जिस्म कमाने निकल गया है
क्या सोचें कैसा था निशाना
तीर कमां से निकल गया है
जाने कैसी भूख थी उसकी
सारी बस्ती निगल गया है
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21 कविताप्रेमियों का कहना है :
waah....kamaal
"ज़ेहन अभी मसरूफ़ है घर में
जिस्म कमाने निकल गया है"
ये तो कमाल की पंक्तियाँ हैं....आप अब अतिथि रहे ही कहाँ....हम सब पाठकों के दिल में जगह बना ली है आपने....
behatarin gajal.
alok singh "sahil"
बहुत अच्छा है भाई.
ज़ेहन अभी मसरूफ़ है घर में
जिस्म कमाने निकल गया है
क्या सोचें कैसा था निशाना
तीर कमां से निकल गया है
जाने कैसी भूख थी उसकी
सारी बस्ती निगल गया है
सुंदर ग़ज़ल
सादर
रचना
वाह! क्या बात है "ज़िस्म कमाने निकल गया" इन पंक्तियों को पढ़कर ऐसा लगा कि जो बात आज हर किसी के दिल में हैं वो आपने अपनी गज़ल के माध्यम से सबके सामने रख दी.....बहुत-बहुत बधाई....सुधी सिद्घार्थ
तेरी सूरत अब भी वही है
मेरा चश्मा बदल गया है
kahte hain ,gaalib ka andaaj e bayaan kuch aur hai
ज़ेहन अभी मसरूफ़ है घर में
जिस्म कमाने निकल गया है
एक ही शेयर में आपने बहुत बड़ा सच्च ब्यान कर दिया |
बहुत ही उम्दा।
तेरी सूरत अब भी वही है
मेरा चश्मा बदल गया है
ज़ेहन अभी मसरूफ़ है घर में
जिस्म कमाने निकल गया है
हर शेर बहुत उम्दा है..
बहुत अच्छे विचार और अच्छी ग़ज़ल |
नाजिम नकवी जी इतने अच्छे शायर हैं
पर एक बात सीखना चाहता हूँ कि ;
क्या चौथी लाईन में '' बदल गया है'' रदीफ़ और काफिया में माना जा सकता है वरना क्यूँ कर वाजिब हैं
nazim naqwi sahab
aapne hindyugm ka aathitya sweekara, iske liye tahe dil se shukriya, bahut hi khoobsoorat ghazal hai, Jism amane nikal gaya hai, bahut hi shaandaar alfaaz.
bahut sunder abhivyakti
bura n maane samajhayen
सूरज हाथ से फिसल गया है
२ २ ,२१ १ १ १ २ २ २
आज का दिन भी निकल गया है
२ १ २ २ २ १ २ १ २ २
???? वजन बहर ??
ripu
बहुत अच्छा लिखा है आपने बधाई - सुरिन्दर रत्ती मुंबई
बहुत बढ़िया। मारक हैं आपके शे'र।
वाह
गज़ल बहुत बढिया लगी पढकर अच्छा लगा
बहुत दिनो बाद अंतरजाल से जुड़ पाया--------बहुत दिनो बाद एक अच्छी गज़ल पढ़ पाया।
तेरी सूरत अब भी वही है
मेरा चश्मा बदल गया है।
--वाह। क्या बात है।
--देवेन्द्र पाण्डेय।
very thoughtful poem thanks to your effort
sunilsonu@in.com
sunilkumarsonus@yahoo.com
SUNIL KUMAR SONU
कई दिनों से यायावरी कर रहा था और नेट की दुनिया से कटा हुआ था (कितना सुकून मिलता है)आज देखा तो हिंद युग्म ने मेरी एक और ग़ज़ल को इज़्ज़त बख़्शी और अपने दिल में जगह दी... आप सब पाठकों की प्रतिक्रियाएं इस बात का सुबूत हैं... शायद अनुपम जी ने जानना चाहा है... जी अनुपम जी, इस ग़ज़ल में -गया है- को रदीफ बनाया गय है और निकल, बदल, संभल, निगल को क़ाफ़िये को तौर पर इस्तेमाल किया गया है... एक पाठक को किसी शेर के वज़न से शिकायत है... जी रिपू जी, पता नहीं आपने कैसे count किया है... दोनों पंक्तियां 24 कैरट खरी हैं... वैसे पंकज सुबीर जी ने ये बीड़ा उठाया है कि ग़ज़ल की पाठशाला से लोगों को फ़यदा पहुंचाएंगे... हां वज़न के लिये मैं आपको बता दूं कि कभी-कभी वज़न के लंगड़ेपन को भी मान्यता दी जाती है... विशेष परिस्थितियों में जैसे -ह- की बढ़ोत्तरी को नज़रअंदाज़ किया जाता है... anyway आप सबका बहुत शुक्रिया कि आपको रचना पसंद आई...
नाज़िम नक़वी
naqvi jo ko sadar charan sparsh pranam..
bhaut dino baad bhaut umda gazal pada paaya ...har vazood ki andar ye yahi kahani ye aapki gazal ne bakhoobi sikhaya.....
maza aa gaya naqvi ji ....qasam se !
Akmal’s Files
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