केवल उंगलियां देख कर
घबराती ग्वालिन
देख रही अपनी ’मौसी’ का चेहरा -
आग-बबूला
पहाड़ से लुढ़कते पत्त्थर सा क्रोध
उफनती नदी खो चुकी अपनी शालिनता
काँपते हुये हिरन के बच्चे
कुलांचे भरते
देखते कगार पर अपनी मृत्यु
कत्लगाह से छुट पाने की विफलता पर
बैठे अनमने हो कर
पलकें एकटक
जिनके बोल खो जाते कहीं धुएँ में ।
देखा था मौसी ने -
ऋषि-मुनियों के यज्ञ की आहुति का धुआँ -
टकराते चकमक पत्थर से निकलती
अग्नि से प्रज्ज्वलित हवन
जिसके साथ जुड़ी प्रार्थना और श्रद्धा ने ही
बददिमाग कर दिया मौसी को
अब तो कण्डे के उपले भी
जल कर उसे देने लगे हैं
तंग करती हुई गुदगुदी
क्यों नहीं सह पाती
अपने लाड़ले बेटों की शरारत ?
कहती है -
“सिगरेट सा यह धुआँ !
क्यों छोड़ते हो अधोवायु
तुम्हारी बिना बैल की गाड़ी से ?
और तु्म्हारे कारखानो के
इन मशीन-पुर्जों में
हाय राम !
खुद ही पीसी जा रही हूँ
कब तक जलाऊंगी अपनी चमड़ी
और अस्थियां !
बड़ी तकलिफ देते हो मुझे !
कहे देती हूँ
मरोगे बिना मौत
मैं आगा-पीछा नहीं देखती
गुस्से में
शुरू कर दूंगी
मेरा काली-नृत्य शुरू
तो फिर कोई शिव की छाती
रोक नही पायेगी
मेरे पैर !”
सठिया गई है मौसी
देखी नहीं जाती उससे
हमारी प्रगति
हमारी समृद्धि और विकास
कोढ़ के मरीज सी
बदसूरत हो चली
चिड़चिड़ी मौसी ।
-हरिहर झा
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10 कविताप्रेमियों का कहना है :
इस कविता की अवधारणा पसंद आयी. बधाई हो हरिहर जी.
एकदम नये बिंबों ने मस्त कर दिया.....लाक्षणिक संकेत बड़े प्रभावी हैं...मौसी तो रचना की जिस विधा में होती हैं, कमाल ही करती हैं....
waah bahut Khoob!
कविता और विचार दोनों ही अच्छे है..
तबाह कर दिया सर जी,कमाल का लिखा है.गजब के बिम्ब हैं.
आलोक सिंह "साहिल"
हरिहर जी बहुत खूब लिखा है
सादर
रचना
क्या बात है हरिहर जी.. बहुत बढ़िया..
बहुत अच्छे भाव और शब्द भी सुंदर हरिहर जी बधाई
बहुत करारा व्यंग्य।
बहुत ही सही व्यंग्य
क्या हम वास्तव मे प्रगति कर रहे है
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