यूनिकवि प्रतियोगिता से चौथी कविता की रचनाकारा मूलरूप से उत्तराँचल की रहने वाली हैं। इससे पहले भी लगातार दो माह से प्रतियोगिता के ही माध्यम से हिन्द-युग्म पर दस्तक दे चुकी हैं। अपने बारे में ज्यादा विवरण नहीं देना चाहती हैं। उनका मानना है कि कलमकार की पहचान उसकी रचना से होती है। तो पढ़ते हैं इनकी कविता
पुरस्कृत कविता- पतंग
मैं रंगहीन
आकर विहीन
तुमने रचा
संवारा रूप
दिया सौन्दर्य
इन्द्रधनुषी
सृजन मात्र कर्तव्य था
नही किंचित अनुराग
सम्पूर्ण कर कर्म
देख मेरा सर्वांगी विकास
तुम मन ही मन मुस्काए
फल प्राप्ति की तीव्र आस में
मुझे सहर्ष बाजार उतारा
चंद सिक्कों की खातिर
कोई कैसे बोली
लगा सकता है
अथक परिश्रम से सींच-सींच
माली क्यूँ फूल उगाता है
निर्मोही तू सृष्टा होकर
मेरा मोल लगाता है
विलंब से ही सही
तुम्हारा प्रयत्न
हो ही गया साकार
रकम मिली मनचाही और
मिला तुम्हें एक खरीदार
मुझे सौंप कितने हर्षित थे
उतरा मानो गले से भार
मेरा क्रेता मुझ पर आसक्त
रूप रंग निहार रहा था
कभी दृष्टी से
कभी अधर से
भांति-भांति पुचकार रहा था
मोहपाश में बंधकर उसके
भूल गई जो मुझ संग बीती
मुझे प्रेम से बाहों में भर
संग वह अपने घर ले आया
मुझे बाँध इक डोर से
मेरा माथा सहलाया
कहा मुझे
तुम उन्मुक्त हो
जाओ और आकाश को
छू लो
मैं अनुरक्त
प्रेम आसक्त
उड़ चली
गगन की ओर
मस्त पवन हिलकोरें देती
मेरा मन भरमा जाती थी
बन्धनों से मुक्त हो
आकाश की सहचरी बनकर
ज्यूं ही स्वविवेक से
मैंने भरी उडान
तुमने डोर खींच ली
मैं गिरी धड़ाम
मेरी डोर अंकुश में ले
पुनः मुझे
गगन में उतारा
अब तुम मुझे पा चुके
औरों को पाना चाहते हो
जो भी तुमने मुझ सा देखा
काटी तुमने उसकी डोर
घर्णित तुम्हारा कर्म
मुझे देता रहा
दंश पर दंश
इक दिन
घायल होकर टूटा
मेरा क्षत विक्षप्त
अस्तित्व
लटक रहा
इक डाली पर
पुनः रंगहीन
आकर विहीन
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ६॰५, ४॰५, ५॰५, ५, ६, ६॰७
औसत अंक- ५॰७
स्थान- दसवाँ
द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ४, ७॰४, ५॰७ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ५॰७
स्थान- चौथा
पुरस्कार- कवि शशिकांत सदैव की ओर से उनकी काव्य-पस्तक 'औरत की कुछ अनकही'
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10 कविताप्रेमियों का कहना है :
मैं रंगहीन
आकर विहीन
तुमने रचा
संवारा रूप
दिया सौन्दर्य
इन्द्रधनुषी
सृजन मात्र कर्तव्य था
नही किंचित अनुराग
सम्पूर्ण कर कर्म
देख मेरा सर्वांगी विकास
तुम मन ही मन मुस्काए
फल प्राप्ति की तीव्र आस में
मुझे सहर्ष बाजार उतारा
चंद सिक्कों की खातिर
कोई कैसे बोली
लगा सकता है
अथक परिश्रम से सींच-सींच
माली क्यूँ फूल उगाता है
बहुत अच्छी कविता.और शीर्षक भी बहुत सोच-समझ कर रखा है.
पुरी कविता लय में होने के साथ ही कही भी अपने मूल से नही भटकती है.
हिन्दयुग्म का नया होमपेज अत्यन्त सुंदर लग रहा है.....
बहुत सुंदर! सहज सरल शब्द! पतंग की सहायता से हम जैसे काव्य-अज्ञ को भी इस अमूर्त विचार को समझना सरल हो गया. पुरस्कार के लिए बधाई!
कविता अच्छी तो है ही, मगर परिचय होता तो और भी अच्छा लगता.....
दीपाली जी खूब पढ़ रही हैं हिंदयुग्म को....बहुत खूब.....
भावपूर्ण कविता -शुरू से आख़िर तक बाँध कर रखने में सफल रही है ,कवियित्री जी रचना से रचनाकार का परिचय कदापि नही मिलता जब तक की वह स्थापित कवि न हो जाए लिखते हो तो अपने प्र्शंशकों को यह जानने का भी अधिकार दो की वे किस की रचना पढ़ रहे है -बधाई हो
दीपाली जी, आपका आत्मविश्वास जंचा.खास बात रही कि आपके आत्मविश्वास की ही तरह आपकी रचना भी उतनी उम्दा रही.बधाई
आलोक सिंह "साहिल"
नए मोहक रूप में सज के
पुराने रूप को तज के
हिन्दी युग्म ने पहना
नया चोला रज रज के
सादर
रचना
फल प्राप्ति की तीव्र आस में
मुझे सहर्ष बाजार उतारा
चंद सिक्कों की खातिर
कोई कैसे बोली
लगा सकता है
अथक परिश्रम से सींच-सींच
माली क्यूँ फूल उगाता है
आप की कविता दिल की बात कहती है बहुत ही सुंदर है
सादर
रचना
कसर रह गई। कविता अपने कथ्य से ज्यादा ही लम्बी है।
सृजन मात्र कर्तव्य था
नही किंचित अनुराग
सम्पूर्ण कर कर्म
देख मेरा सर्वांगी विकास
तुम मन ही मन मुस्काए
फल प्राप्ति की तीव्र आस में
मुझे सहर्ष बाजार उतारा
चंद सिक्कों की खातिर
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bahut achha likha hai aapne.....
--randhir
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