आज काव्य-प्रेमियों के लिए हम लेकर हाज़िर हैं प्रतियोगिता की १४वीं कविता। इसकी रचयिता रचना श्रीवास्तव हिन्द-युग्म को पिछले ५-६ महीनों से रोज़ाना दैनिक खुराक़ की तरह पढ़ रही हैं। इससे पहले भी ये काव्य-पल्लवन और प्रतियोगिता तथा अन्य आयोजनों में अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा चुकी हैं।
पुरस्कृत कविता- बाणों से बिंधा देश है
बदलना चाहो भी तो
बदल न पाओगे ज़माने को
बैठे हैं भेष बदल दरिन्दे
हर कोशिश मिटाने को।
बाणों से बिंधा देश है
कब से चीख रहा
कोई तो दे दे सहारा
मेरे इस सिरहाने को।
सही न गई जब
भूख अपने बच्चों की
हो गई खड़ी बाज़ार में
ख़ुद ही बिक जाने को।
बूढी आँखें राह
तक तक के हार गईं
लौटा न घर कभी
गया विदेश जो कमाने को।
विधवा माँ की भूख
दवा उम्मीद है जो
कहते हैं क्यों सभी
उसे ही पढाने को।
नन्ही उँगलियाँ चलाती हैं
कारखाने जिनके
छेड़ी उन्होंने ही मुहीम
बाल मजदूरी हटाने को।
अपनो ने किया दफन
गर्भ में ही उस को
तो क्या जो वो
चीखती रही बाहर आने को।
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ५, २॰५, ६॰५, ६॰३५, ७॰२५
औसत अंक- ५॰५२
स्थान- नौवाँ
द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ४, ३, ५॰५२ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ४॰१७३३
स्थान- चौदहवाँ
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12 कविताप्रेमियों का कहना है :
रचना जी,
सुंदर रचना लिखी है
बाणों से बिंधा देश है
कब से चीख रहा
कोई तो दे दे सहारा
मेरे इस सिरहाने को।
सही न गई जब
भूख अपने बच्चों की
हो गई खड़ी बाज़ार में
ख़ुद ही बिक जाने को।
ये पंक्तियाँ बहुत पसंद आई - सुरिन्दर रत्ती
रचना जी!
आपकी रचना सच में एक परिपक्व रचना है। पढकर अच्छा लगा।
बधाई स्वीकारें।
रचना जी
अच्छा लिखा है
सुमित भारद्वाज
बहुत ही बढ़िया रचना है। थोड़ी काँट-छाँट करें तो बहुत ही सुंदर ग़ज़ल बन सकती है। मैंने देखा है कि आपने हर कविता में सामाजिक मुद्दों का उठाया है। मुझे खुशी है कि आप अमेरिका में रहकर भी भारत की समस्याओं पर अपनी कलम चलाती हैं। लेखन ज़ारी रखें।
बहुत ही प्रभावपूर्ण मर्मस्पर्शी रचना है.
बदलना चाहो भी तो
बदल न पाओगे ज़माने को
सुंदर पंक्ति है जमाने को बदलना क्या ख़ुद को बदलना भी कहाँ मुमकिन है -श्यामसखा
आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद की आप के मेरी रचना को पसंद किया .आप के शब्द मेरा ख़ुद पे भरोसा बढाते हैं
आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद
सादर
रचना
kya baat hai bahut hi dil ko chhune wali rachna me deepak ji se sahmat hoon badhai
ye line bahut gahre bhav liye huye hai
बाणों से बिंधा देश है
कब से चीख रहा
कोई तो दे दे सहारा
मेरे इस सिरहाने को।
mahesh
bahut sunder kavita
badhai
likhti rahin
shikha
आज के समाज की बेबसी का सजीव चित्रण है आपकी कविता में. बधाई!
डा. रमा द्विवेदीsaid...
सही न गई जब
भूख अपने बच्चों की
हो गई खड़ी बाज़ार में
ख़ुद ही बिक जाने को।
समाज के कटु सत्य को चित्रित करती ये पंक्तियां पूरी कविता का सार इन्हीं में निहित है...शुभकामनाओं सहित।
I am speechless! As speech sometimes does not say what the heart feels, I feel the same after reading your poem and other articles on this website.
I am proud of you as you could think and write this kind of stuff staying away from it for so long!
Keep it up with more passion as it has also inspired me to hold my pen again. In Japanese "Gambatte Kudasai" (CONGRATULATIONS). Regards
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