प्रस्तुत है प्रतियोगिता की ११ वीं कविता जिसके रचनाकार सुजीत कुमार सुमन का जन्म 1 मार्च 1979 को बिहार राज्य के दरभंगा में मध्यमवर्गीय कायस्थ परिवार में हुआ। बचपन पिता के कठोर अनुशासन और ममतामयी मां के स्नेहिल छांव में गुजरा। पारिवारिक माहौल ने सदैव किताबों के करीब रखा। अति आत्म-केन्द्रित स्वभाव ने शब्दों में ढलने को प्रेरित किया। हृदय की संवेदनशीलता ने हर घटना को करीब से छुआ, शब्दों ने अभिव्यक्ति दी और होता रहा कविता का निर्माण। कुछ कविताएं अनुभूति जालपत्रिका सहित अन्य पत्र पत्रिकाओं में भी प्रकाशित हो चुकी हैं। वर्तमान में स्टेट बैंक ऑफ बीकानेर एण्ड जयपुर के प्रधान कार्यालय जयपुर में सहायक प्रबन्धक के पद पर कार्यरत। लिखने के अलावे इन्टरनेट पर उपलब्ध पत्रिकाएं तथा अन्य पत्र पत्रिकाओं को पढ़ने में समय व्यतीत करते हैं।
पुरस्कृत कविता- डिस्काऊंट सेल
बाजार से गुजरते हुए
अकसर निगाहें टिक जाती हैं
डिस्काऊंट सेल वाले बोर्ड पर
और ढूँढ़ने लगता हूं
उन वस्तुओं को
जिनका मूल्यहास होना अभी बाकी है.
अकसर निगाहें टिक जाती हैं
ज्यादा भीड़ वहीं होती है
जहां ज्यादा डिस्काऊंट हो
अपने मूल्य पर दृढ रहने वाली वस्तुएं
हमेशा ही उपेक्षित रहती हैं.
तो क्या इस भौतिकतावादी संस्कृति में
अपने मूल्यों का डिस्काऊंट कर देना
उचित होगा
अभी हमें विकास के उस सोंपान तक
सोचना है.
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ६, ५, ५॰७५, ६॰४, ७॰२५
औसत अंक- ६॰०८
स्थान- तीसरा
द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ४, ४, ६॰०८ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ४॰६९३३
स्थान- ग्यारहवाँ
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9 कविताप्रेमियों का कहना है :
सही बात पकड़ी है आपने कविता में। खुद को दृढ़ रखें, विकास का वह सोंपान मूल्यों के लिए महाप्रलय लेकर आयेगा। हमें ही सम्हलना और मजबूत बनना होगा।
बहुत ही सुंदर ढंग से बहुत बहुत सही कहा आपने. लेकिन मूल्य रक्त और संस्कार के साथ ऐसे रचे बसे होते हैं,जिन्हें चाहकर भी कोई नही बहा कर बदल सकता. हाँ,जो बेचने को आतुर हों,उनके लिए रंग और चोला बदल लेना कोई बड़ी बात नही.पर हर चीज बिकाऊ तो नही होता?
बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ हमे पतन का रास्ता दिखा तो रही हैं ,मगर भारत के अपने कुछ मूल्य हैं ,जो मनुष्य का पतन नही होने देंगी
राघव गहरी हो अगर जिस दरखत की मूल ।
जड से उसे उ खाड़ दे ये तूफ़ां की भूल ॥
कविता के जरिये अच्छी बात कही श्रीमान..
बहुत बहुत बधाई
आपने मूल्यों की वजह से ही हम हम है .इस को कस के पकड़े रहने से ही हम हर तूफान का सामना कर सकेंगे
बहुत सुंदर लिखा है
सादर
रचना
बहुत सुंदर बात और वैसा ही कथन! बधाई!
बहुत खूव! सुजित जी ! कमाल कर दिया!
अपने मूल्य पर दृढ रहने वाली वस्तुएं
हमेशा ही उपेक्षित रहती हैं.
तो क्या इस भौतिकतावादी संस्कृति में
अपने मूल्यों का डिस्काऊंट कर देना
सुजीत कुमार जी की रचना बहुत ही सुंदर, प्रत्यक्ष अनुभूति एवं मन के ऊहापोह को दर्शाती प्रतीत होती है. सभी टिपण्णी कर्ताओं ने अपने अपने मत दिए हैं शैलेश भारतवासी जी कहते हैं की खुद को दृढ़ रखें,पर मेरी सुजीत कुमार जी से प्रार्थना है की वो अपनी इन काव्य पंक्तियों का आशय स्पष्ट करें.
अपने मूल्य पर दृढ रहने वाली वस्तुएं
हमेशा ही उपेक्षित रहती हैं.
तो क्या इस भौतिकतावादी संस्कृति में
अपने मूल्यों का डिस्काऊंट कर देना
उचित होगा
अभी हमें विकास के उस सोंपान तक
सोचना है.
डा. रमा द्विवेदी said...
अच्छी प्रस्तुति है...बाजारवाद का यथार्थ चित्रण....लोग सेल का इन्तज़ार करते रहते हैं...बहुत बढ़िया।
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