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Friday, September 19, 2008

हिन्दी दिवस पर 'हल्का-ए-तश्नागन-ए-अदब' और 'आनंदम' के कवियों का काव्य-पाठ


'आनंदम' की द्वितीय काव्य गोष्ठी

सीमाब सुल्तानपुरी और बलदेव वंशी

'आनंदम' संस्था ने प्रतिमाह द्वितीय रविवार को पश्चिम विहार में काव्य-गोष्ठी का जो क्रम बनाया है, उस के अनुसार दिनांक 14 सितम्बर को संस्था के संस्थापक श्री जगदीश रावतानी के निवास पर एक गोष्ठी आयोजित हुई. इस माह की गोष्ठी उर्दू-हिन्दी कवियों की प्रसिद्ध संस्था 'हल्का-ए-तश्नागन-ए-अदब' जो की पिछले तीस वर्ष से भी अधिक समय से काव्य-सम्मलेन करती रही है, के साथ मिल कर की गई. इस गोष्ठी में सर्वश्री जी आर कँवल, सीमाब सुल्तानपुरी, बलदेव वंशी, आज़म गुरविंदर सिंह कोहली, जाम बिजनौरी, बिशन लाल, साक्षात भसीन, भूपिंदर कुमार, दिल साहब, प्रेमचंद सहजवाला व जगदीश रावतानी आदि ने भाग लिया.

गोष्ठी से एक दिन पूर्व दिल्ली बहुत दर्दनाक तरीके से दहल गई थी. ग्रेटर कैलाश, कनाट प्लेस व करोल बाग़ में पाँच धमाके हुए. बलदेव वंशी ने इसीलिए गोष्ठी की शुरुआत मृत लोगों के प्रति श्रद्धांजलि व्यक्त करने हेतु मौन प्रार्थना से की. तत्पश्चात गोष्ठी की प्रथम कुछ कवितायें बलदेव वंशी जी ने पढ़ी. एक बच्चे को अक्सर उस के माता-पिता, अध्यापक व अन्य वरिष्ठगण चुप कराते रहते हैं. जब वह बड़ा हो जाता है तब भी कमो-बेश यही स्थिति रहती है. इस भूमिका के साथ उन्होंने निम्न पंक्तियाँ पढ़ी:

यूँ देखने को वह बच्चा / हट्टा-कट्टा नौजवान है / पर चलता फिरता / चुप्पियों का कब्रिस्तान है.

बलदेव वंशी जी की कुछ अन्य सशक्त कविताओं के बाद कविता पाठ का दौर आगे बढ़ा. 'हल्का-ए-तश्नागन-ए-अदब' के एक सशक्त कवि श्री सीमाब सुल्तानपुरी जी ने कुछ सुंदर दोहे हिन्दी-दिवस पर सुनाये क्योंकि गोष्ठी हिन्दी-दिवस के दिन हो रही थी. कुछ दोहे हिन्दी की वर्तमान स्थिति पर एक अच्छा कटाक्ष थे. उदाहरण;

साल भर रटते रहे अंग्रेज़ी का नाम,
एक दिवस में हो गया वर्ष बराबर काम.


सीमाब जी ग़ज़ल लिखने में अपना सानी नहीं रखते. उन्होंने कुछ सशक्त गजलें पेश की, जिन के शेरों में से दो शेर यहाँ प्रस्तुत है:

मुहब्बत की कोई कीमत नहीं है
ये शय बाज़ार में आई नहीं है.
जो आ कर मौत मुझ से छीन लेगी,
हयात ऐसा तो कुछ लाई नहीं है.


श्री जगदीश रावतानी ने अपनी दो गज़लों व एक नज़्म से माहौल को ज़ोरदार बना दिया. यथा:

जहाँ जहाँ मैं गया इक जहाँ नज़र आया
हरेक शय में मुझे इक गुमाँ नज़र आया
गले लगा के मिला ईद सब से जब भी मैं
कोई भी फर्क किसी में कहाँ नज़र आया.



जगदीश रावतानी

जगदीश रावतानी ग़ज़ल में एक सशक्त नाम हैं.
अन्य कवियों ने भी अपनी एक से एक बढ़ कर कविताओं व गज़लों से अच्छा समा बाँध लिया. आतंकवाद आज हर भारतीय हृदय की दुखती रग है. सहजवाला की निम्न पंक्तियाँ दिल्ली में घटी दर्दनाक घटना को अपने शब्दों में व्यक्त करती हैं:

कल हुई दहशत ने मारे थे बहुत,
जो गए, वो लोग प्यारे थे बहुत.
जिस जगह पर कल धुआँ उठने लगा,
घर वहाँ मेरे तुम्हारे थे बहुत.
(पूरी ग़ज़ल पढ़ें)

प्रेमचंद सहजवाला

कदाचित रमजान का महीना होने के कारण कुछ मुस्लिम भाई उपस्थिति न दे सके.
अंत में जगदीश रावतानी ने सब का धन्यवाद करते हुए आशा व्यक्त की कि ऐसी गोष्ठियां निरंतर होती रहेंगी व नित नए हस्ताक्षर इन गोष्ठियों की शान बढाते रहेंगे. .


भूपिन्दर कुमार

जी आर कँवल

गुरविंदर सिंह कोहली
पिछली गोष्ठी की रिपोर्ट

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3 कविताप्रेमियों का कहना है :

Sajeev का कहना है कि -
This comment has been removed by the author.
Anonymous का कहना है कि -

अच्छा लगा जानकर.ऐसे आयोजन और भी होने चाहिए.
आलोक सिंह "साहिल"

Anonymous का कहना है कि -

VERY GOOD SHOBA JEEKEEP IT UP

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