आखिकार हमें गिरिजेश्वर प्रसाद का परिचय प्राप्त हुआ जिनकी कविता ने जुलाई माह की यूनिकवि प्रतियोगिता में दसवाँ स्थान बनाया था। ११ मार्च १९६४ को भोजपुर, बिहार में जन्मे गिरिजेश्वर दामोदर घाटी निगम,मैथन में एक मुलाजिम हैं और सामाजिक,राजनितिक,साहित्यिक ,सांस्कृतिक विषयों पर पिछले २५ वर्षों से स्थानीय अख़बारों एवं पत्रिकाओं में लेखन कार्य कर रहे हैं। समाज की हर अच्छी गतिविधिओं में शामिल हैं। देश और दुनिया को बेहतर बनाने के लिए चल रहे जन संघर्षों का नैतिक समर्थन करते हैं। क्रन्तिकारी कवि गोरख पाण्डेय की पंक्ति के साथ खड़ा हैं- इस दुनिया को जितनी जल्दी हो बदल देनी चाहिए। देश की हालत देख कर इनका मन दुखी हो जाता है, चिंतित रहे हैं कि पता नहीं इनके मन का भारत कब बनेगा?
पुरस्कृत कविता- सब्जियों की छोड़न
बेटे का जवाब सुनकर,
माँ हतप्रभ है और
खुश भी।
बेटे के टिफिन बॉक्स में
सात किस्म की
सब्जियों की छोड़न,
उसके दोस्तों की है।
सभी के टिफिन बॉक्स में
मिलेंगे ये सब,
उसकी भी सब्जी होगी सभी में।
वह नहीं जानता
किसी की जाति या धर्म,
उसके दोस्त भी नहीं,
सिर्फ इतना कि
वे सब दोस्त हैं।
माँ हतप्रभ है और
खुश भी।
मंदिरों-मस्जिदों की
घंटियों और अजानों
के शोर से,
नफरत और विद्वेश की
अमर बेल,
हर मन-मष्तिस्क में
फैलाने की कोशिशों के
बावजूद,
बची हई है,
दोस्ती और सात सब्जियों की छोड़न।
माँ हतप्रभ है और
खुश भी,
माँ खुश है और
आश्वस्त भी।
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ७, ३॰५, ६, ६॰९, ७॰५
औसत अंक- ६॰१८
स्थान- दूसरा
द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ४॰५, ५, ६॰१८ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ५॰२२६६
स्थान- दसवाँ
पुरस्कार- मसि-कागद की ओर से कुछ पुस्तकें। संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी अपना काव्य-संग्रह 'दिखा देंगे जमाने को' भेंट करेंगे।
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9 कविताप्रेमियों का कहना है :
अच्छी कविता...अनोखा शीर्षक और उम्दा विषय अपने प्रस्तुत किया.
बहुत-बहुत बधाई
मंदिरों-मस्जिदों की
घंटियों और अजानों
के शोर से,
नफरत और विद्वेश की
अमर बेल,
हर मन-मष्तिस्क में
फैलाने की कोशिशों के
बावजूद,
बची हई है,
दोस्ती और सात सब्जियों की छोड़न।
माँ हतप्रभ है और
खुश भी,
माँ खुश है और
आश्वस्त भी।
क्या विषय चुना है आपने गिरिजेश्वर जी... बहुत उम्दा...१० से ऊपर आना चाहिये था.. :)
माँ हतप्रभ है और
खुश भी,
माँ खुश है और
आश्वस्त भी।
हतप्रभ होना व खुश होना तो ठीक है किन्तु आश्वस्त होना उचित नहीं लगता क्योंकि बच्चा बडा होते-होते धर्म,सम्प्रदाय और जाति की फ़सलें बोने व काटने न लगे, वातावरण व व्यवस्थायें बदलना जरूरी है.
गिरिजेश्वर जी
आपकी कविता नयापन लिए हुए है अच्छी लगी...
अपना बचपन याद आ गया
जब हम दोस्तों से पूछते थे तुम्हारे टिफिन में क्या है...
जब कोई कहता गाज़र का हलवा....
जब सभी दोस्त उसके टिफिन पर टूट पड़ते उसे तो केवल सूघने को मिलता और हम उसे अपना टिफिन पकड़ा देते ....क्या दिन थे ............
आपका वीनस केसरी
एक अलग अंदाज की बिल्कुल ताज़ी रचना,अति सुंदर
आलोक सिंह "साहिल"
एक कवि का अनोखा नज़रिया प्रस्तुत करती है ,ये कविता ,देश के बारे में जागरूक लोग है अभी भी जानकर बेहद खुशी होती है ,एक बार फिर से हिन्दुग्म को धन्यवाद देती हूँ
प्रसाद जी
वास्तव पुरस्कृत कविता बचपन ही कर सकता है ये सब धीरे धीरे तो टिफिन के साथ आने लगती धारणनायें, विष से भरे विश्वास , और हम सभी जानते हैं क्या क्या अति सुन्दर कविता बधाई
प्रसाद जी
वास्तव पुरस्कृत कविता बचपन ही कर सकता है ये सब धीरे धीरे तो टिफिन के साथ आने लगती धारणनायें, विष से भरे विश्वास , और हम सभी जानते हैं क्या क्या अति सुन्दर कविता बधाई
aati sundar..bahut hi badiya
many many congratulations
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