क्यों लड़खड़ाते लफ्ज़ हैं मेरी ज़बान के
आसार हैं बहुत मेरे दिल की थकान के
इस शह्र में कहाँ रहूँ लोगो बताओ तो
दीवारो-दर वो तोड़ गए हैं मकान के
दे कर ज़मीन घूम रहा कार में देखो
इस गांव में बदल गए हैं दिन किसान के
हक़ मांगते हैं आज यहाँ बच्चे मुल्क के
तारे ज़मीन के हैं या हैं आस्मान के
मनसूबे किस को हैं यहाँ हाकिम बनाने के
दरवाज़े बंद कर दिए सब ने दुकान के
शायद हमीं से भूख बढ़ी है ज़मीन पर
शिकवे मिले हैं आज ये सारे जहान के
*मनसूबे = इरादे
--प्रेमचंद सहजवाला
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9 कविताप्रेमियों का कहना है :
har sher khubsurat badhai
प्रेम जी नमस्कार,
क्यों लड़खड़ाते लफ्ज़ हैं मेरी ज़बान के
आसार हैं बहुत मेरे दिल की थकान के
हक़ मांगते हैं आज यहाँ बच्चे मुल्क के
तारे ज़मीन के हैं या हैं आस्मान के
बहुत खूब .. बधाई - सुरिन्दर रत्ती
बहुत ही खूबसूरती से हर एक शेर को गढा है आपने.बधाई
आलोक सिंह "साहिल"
किसी एक शे'र की तारीफ कैसे करूँ?
सारे एक से बढकर एक है। आपकी गजले बहुत ही बढिया होती है
सुमित भारद्वाज।
शायद हमीं से भूख बढ़ी है ज़मीन पर
शिकवे मिले हैं आज ये सारे जहान के
बहुत बहुत खूब |
बधाई |
अवनीश तिवारी
अच्छा है !
शायद हमीं से भूख बढ़ी है ज़मीन पर
शिकवे मिले हैं आज ये सारे जहान के
बहुत बढिया सहजवाला जी बहुत सुन्दर
क्यों लड़खड़ाते लफ्ज़ हैं मेरी ज़बान के
आसार हैं बहुत मेरे दिल की थकान के
शायद हमीं से भूख बढ़ी है ज़मीन पर
शिकवे मिले हैं आज ये सारे जहान के
बहुत खूब |बधाई....सीमा सचदेव
प्रेम जी ! हर शेर में कुछ बात है!
शायद हमीं से भूख बढ़ी है ज़मीन पर
शिकवे मिले हैं आज ये सारे जहान के
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