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Monday, June 30, 2008

तारे ज़मीन के हैं या हैं आस्मान के


क्यों लड़खड़ाते लफ्ज़ हैं मेरी ज़बान के
आसार हैं बहुत मेरे दिल की थकान के

इस शह्र में कहाँ रहूँ लोगो बताओ तो
दीवारो-दर वो तोड़ गए हैं मकान के

दे कर ज़मीन घूम रहा कार में देखो
इस गांव में बदल गए हैं दिन किसान के

हक़ मांगते हैं आज यहाँ बच्चे मुल्क के
तारे ज़मीन के हैं या हैं आस्मान के

मनसूबे किस को हैं यहाँ हाकिम बनाने के
दरवाज़े बंद कर दिए सब ने दुकान के

शायद हमीं से भूख बढ़ी है ज़मीन पर
शिकवे मिले हैं आज ये सारे जहान के

*मनसूबे = इरादे

--प्रेमचंद सहजवाला

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9 कविताप्रेमियों का कहना है :

Anonymous का कहना है कि -

har sher khubsurat badhai

SURINDER RATTI का कहना है कि -

प्रेम जी नमस्कार,
क्यों लड़खड़ाते लफ्ज़ हैं मेरी ज़बान के
आसार हैं बहुत मेरे दिल की थकान के
हक़ मांगते हैं आज यहाँ बच्चे मुल्क के
तारे ज़मीन के हैं या हैं आस्मान के
बहुत खूब .. बधाई - सुरिन्दर रत्ती

Anonymous का कहना है कि -

बहुत ही खूबसूरती से हर एक शेर को गढा है आपने.बधाई
आलोक सिंह "साहिल"

Unknown का कहना है कि -

किसी एक शे'र की तारीफ कैसे करूँ?
सारे एक से बढकर एक है। आपकी गजले बहुत ही बढिया होती है

सुमित भारद्वाज।

अवनीश एस तिवारी का कहना है कि -

शायद हमीं से भूख बढ़ी है ज़मीन पर
शिकवे मिले हैं आज ये सारे जहान के

बहुत बहुत खूब |
बधाई |


अवनीश तिवारी

करण समस्तीपुरी का कहना है कि -

अच्छा है !

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav का कहना है कि -

शायद हमीं से भूख बढ़ी है ज़मीन पर
शिकवे मिले हैं आज ये सारे जहान के

बहुत बढिया सहजवाला जी बहुत सुन्दर

सीमा सचदेव का कहना है कि -

क्यों लड़खड़ाते लफ्ज़ हैं मेरी ज़बान के
आसार हैं बहुत मेरे दिल की थकान के


शायद हमीं से भूख बढ़ी है ज़मीन पर
शिकवे मिले हैं आज ये सारे जहान के

बहुत खूब |बधाई....सीमा सचदेव

Harihar का कहना है कि -

प्रेम जी ! हर शेर में कुछ बात है!

शायद हमीं से भूख बढ़ी है ज़मीन पर
शिकवे मिले हैं आज ये सारे जहान के

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