पल्लवित होते फ़लतरू पर
कहिये किस का अधिकार हो
एक स्वप्न जिसने किसी को
इक बीज रोपण को कहा ?
या अधिकार है उस धरा का
जिसने स्वयं में समाहित कर
शुष्क बीज को जीवन दिया ?
उस बूंद का क्या जो रही सींचती
अपना अस्तित्व माटी में मिला ?
या फ़िर उस मलय का जो
शीत-ऊष्ण साथ ले अपने बहा ?
उस बाड का जिसने नव अंकुरित को
हर बाहरी आप्पति से रखा बचा ?
उन हाथों का जो रहे उसे सहेजते
आसपास उगती खतपतवार को हटा ?
अब तो वो पक्षी भी
हक अपना जताने लगे
आपात काल में जिन्होंने
इसपर नीड लिये थे बना
पेड की किसको पडी
बस उस डाली पर आंख है
जिस डाली में लोच है
जिसमे फ़ल है लगने लगा
है करबद्ध प्रार्थना सब
पत्थर फ़ैंकने वालों से मेरी
रितुऐं और भी आयेंगी
यदि अस्तित्व इस तरू का रहा.
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
17 कविताप्रेमियों का कहना है :
गहरे भाव हैं.यहां हर कोई सिर्फ़ अपना अधिकार जताना चाहता है.चाहे बात भूमि कि हो या भावनाओं की.पर यह तरु हीं है जो किसी पर अपना अधिकार नहीं जताता.पत्थर भी मारने पर फ़ल हीं देता है.
काश मनुष्य भी ऐसा होता तो सारे द्वन्द यही खत्म हो जाते.सुन्दर रचना के लिये धन्यवाद.
उन हाथों का जो रहे उसे सहेजते
आसपास उगती खतपतवार को हटा ?
अब तो वो पक्षी भी
हक अपना जताने लगे
आपात काल में जिन्होंने
इसपर नीड लिये थे बना
पेड की किसको पडी
बस उस डाली पर आंख है
बहुत गहरे भाव और कटाक्ष लिखा है आपने ..अच्छा लिखा है :)
वाह मोहिन्दर जी वाह..
मज़ा आ गया पढ़कर, बहुत सही लिखा है..
स्वाद और स्वार्थ में मुर्गी मार सारे अंड़े लेने की कहानी पेड़ के माध्यम से..
सुन्दर रचना..
मोहिन्दर जी,
यही सत्य है। इस बिम्ब नें आपके कथ्य को बेहद मजबूती से रखा है साथ ही आपका सटीक चित्र मानो कविता स्वयं कह रहा है।
रितुऐं और भी आयेंगी
यदि अस्तित्व इस तरू का रहा.
बहुत ही सारगर्भित रचना। बधाई स्वीकारें..
*** राजीव रंजन प्रसाद
बहुत सुंदर मोहिन्दर जी। बहुत साधारण तरीके से आपने गहरी बात बता दी। इस पेड़ की कहानी को हम अपने घर, देश, कम्पनी या कोई भी संस्था के लिये इस्तेमाल कर सकते हैं। कईं बार होता है कि एक कम्पनी जो ८-१० लोगों की मेहनत से बनी हो उसपर हर कोई अपना हक समझने लगता है । जबकि वो किसी एक की नहीं होती। या हम अपने देश की ही बात करें। हम अपने कर्त्तव्य भूल जाते हैं और अधिकारों की बात करने लगते हैं।
पर एक पेड़ है ज किसी पर हक नहीं जताता बल्कि केवल देने में (अपने कर्त्तव्य पर) यकीन रखता है। क्या मनुष्य अपना स्वार्थ भूल सकता है?यदि हे कोई अपने कर्त्तव्य पर ध्यान दे तो हक की बात करने की जरूर नही पड़ेगी।
मोहिन्दर जी
रचना उद्देश्य पूर्ण है-
रितुऐं और भी आयेंगी
यदि अस्तित्व इस तरू का रहा.
डाल और तरू बने रहें यही कामना है।
डा.रमा द्विवेदी said...
अच्छी रचना है ....सब अधिकार की बात करते हैं ..कर्तव्य कोई निभाना नहीं चाहता..बधाई एक भाव प्रधान रचना के लिए।एक बात और कहना चाहूँगी थोड़ा वर्तनी पर भी ध्यान दें...जैसे ’खतपतवार’ नहीं होता बल्कि ’खरपतवार’ होता है।और भी एक दो जगह वर्तनी की गलतियाँ हैं...पुन: शुभकामनाओं के साथ साधुवाद....
गहरी और भावपूर्ण कविता.
बहुत भावपूर्ण रचना hai badhai
वाह मोहिंदर जी अत्यन्त सुंदर और उतने ही गहरे भाव,
आलोक सिंह "साहिल"
बहुत भाव पूर्ण है , संदेशात्मक रचना |
भाव इतने अच्छे लगे कि पढ़ते समय जो वर्तनी की गलती रमाजी ने बताया , उसपर ख्याल ही नही गया |
बधाई |
अवनीश तिवारी
मोहिन्दर जी! भावात्मक रूप से तो रचना सशक्त है मगर शिल्पगत दृष्टि से आपकी बहुत अच्छी रचनाओं में इसे मैं नहीं रख सकता. कविता में यदि लय के मोह से बचा जाता तो शायद बेहतर होता.
कुछ नया कहने का अच्छा प्रयास..
भाव प्रधान.. लेकिन अधिकार की बात मत कीजिए.. इस दुनिया में सिर्फ देना सीखिए.. अधिकार आने वाली पीढियों का होगा ।
सच कहा आपने इस स्वार्थी दुनिया सब अपना अधिकार ही जताते है
मोहिंदर जी , सच्चाई को व्यक्त करती अच्छी कविता लिखी है आपने , बधाई स्वीकारें .
^^पूजा अनिल
मोहिन्दर जी
वाह!
बहुत सही लिखा है..
सारगर्भित रचना
बहुत ऊँची सोच है आपकी लिखने वाले को इसी प्रकार गहराई तक जाकर ही लोगों को प्ररित करना चाहिए
हार्दिक शुभकामनाओं सहित
मैत्रेयी
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)