मुझको बरसात में सुर मिले री सखी
पेट दुखता है मैं कुछ कहूँ, कुछ कहूँ..
एक कूँवे में दुनियाँ थी, दुनियाँ में मैं
गोल है, कितना गहरा पता था मुझे
हाय री बाल्टी, मैने डुबकी जो ली
फिर धरातल में उझला गया था मुझे
मेरी दुनिया लुटी, ये कहाँ आ गया
छुपता फिरता हूँ कैसी सजा पा गया
पेट दुखता है मैं कुछ कहूँ, कुछ कहूँ..
एक कूँवे में दुनियाँ थी, दुनियाँ में मैं
गोल है, कितना गहरा पता था मुझे
हाय री बाल्टी, मैने डुबकी जो ली
फिर धरातल में उझला गया था मुझे
मेरी दुनिया लुटी, ये कहाँ आ गया
छुपता फिरता हूँ कैसी सजा पा गया
मेघ देखा तो राहत मिली है मुझे
जी मचलता है मैं अब बहूँ तब बहूँ..
मुझको बरसात में सुर मिले री सखी
पेट दुखता है मैं कुछ कहूँ, कुछ कहूँ..
मेढकी मेरी जाँ, तू वहाँ, मैं यहाँ
तेरे चारों तरफ ईंट का वो समाँ
मैं मरा जा रहा, ये खुला आसमाँ
तैरने का मज़ा इस फुदक में कहाँ
राह दरिया मिली, जो बहा ले गयी
और सागर पटक कर परे हो गया
टरटराकर के मुख में भरे गालियाँ
सोचता हूँ, पिटूंगा नहीं तो बकूं ?
मुझको बरसात में सुर मिले री सखी
पेट दुखता है मैं कुछ कहूँ, कुछ कहूँ..
एक ज्ञानी था जब पानी पानी था मैं
हर मछरिया के डर की कहानी था मैं
आज सोचा कि खुल के ज़रा साँस लूँ
बाज देखा तो की याद नानी था मैं
कींचडों में पडा मन से कितना लडा
हाय कूँवे में खुद अपना सानी था मैं
संग तेरे दिवारों की काई सनम
जी मचलता है मैं अब चखूँ तब चखूँ
मुझको बरसात में सुर मिले री सखी
पेट दुखता है मैं कुछ कहूँ, कुछ कहूँ..
थम गयी है हवा जम के बरसात हो
औ छिपें चील कोटर में जा जानेमन
शोर जब कुछ थमें साँप बिल में जमें
तुमको आवाज़ दूंगा मैं गा जानेमन
मेरे अंबर जो सर पर हो तब देखना
सोने दूंगा न जंगल को सब देखना
हाय मुश्किल में आवाज खुलती नहीं
भोर होगी तो मैं फिर से एक मौन हूँ
मुझको बरसात में सुर मिले री सखी
पेट दुखता है मैं कुछ कहूँ, कुछ कहूँ..
*** राजीव रंजन प्रसाद
12.04.2008
भोर होगी तो मैं फिर से एक मौन हूँ
मुझको बरसात में सुर मिले री सखी
पेट दुखता है मैं कुछ कहूँ, कुछ कहूँ..
*** राजीव रंजन प्रसाद
12.04.2008
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
17 कविताप्रेमियों का कहना है :
रात के ढ़ाई बजे मैं एक ही साँस में दो बार पूरा गीत पढ़ गया। फिर सोचता हूं कि अगली बार पढ़ने से पहले यहाँ टिप्पणी लिख दूं।
एक गीत में अनंत भाव मुझे दिख रहे हैं। इतना लयबद्ध और भावप्रवण एक साथ लिखना सच में बहुत प्रशंसनीय है। राजीव जी, आपने जो अब तक लिखा, उसमें से अगर अपनी पसंद की तीन रचनाएं छांटूं तो यह उनमें जरूर आएगी।
टरटराकर के मुख में भरे गालियाँ
सोचता हूँ, पिटूंगा नहीं तो बकूं ?
संग तेरे दिवारों की काई सनम
जी मचलता है मैं अब चखूँ तब चखूँ
थम गयी है हवा जम के बरसात हो
औ छिपें चील कोटर में जा जानेमन
शोर जब कुछ थमें साँप बिल में जमें
तुमको आवाज़ दूंगा मैं गा जानेमन
मेरे अंबर जो सर पर हो तब देखना
सोने दूंगा न जंगल को सब देखना
हाय मुश्किल में आवाज खुलती नहीं
भोर होगी तो मैं फिर से एक मौन हूँ
मुझको बरसात में सुर मिले री सखी
पेट दुखता है मैं कुछ कहूँ, कुछ कहूँ..
आपकी लेखनी को बारंबार नमन। लिखते रहें।
एक बार और पढ़ ली। :)
हाय मुश्किल में आवाज खुलती नहीं
भोर होगी तो मैं फिर से एक मौन हूँ
मुझको बरसात में सुर मिले री सखी
पेट दुखता है मैं कुछ कहूँ, कुछ कहूँ..
वाह राजीव जी बहुत सुंदर और अलग सी लगी आपकी यह नई रचना ..बधाई इतनी सुंदर रचना के लिए !!
कुएँ के मेंढक के माध्यम से बहुत कुछ कह दिया आपने |
राजीव जी,
एक धीर गम्भीर कवि की हास्य कि विधा में लिखी गई दमदार रचना है यह. हास्य के माध्यम से उन लोगों पर एक प्रहार जो कुंए को ही एक दुनिया समझ लेते हैं और बाहर कि दुनिया और प्रत्यक्ष उलझनों, प्रतिस्पर्था और खतरों को भूल जाते हैं
राजीव जी आपके अन्दाज़ से बिल्कुल ज़ुदा अन्दाज़ पर पसन्द आया। मोहिन्दर जी की बात से सहमत हूं। मेंढक के माध्यम से बहुत कुछ कह गये आप।
वाह क्या बात है..
आपकी कल्पना की उड़ान कहाँ कहाँ से शब्द ढूंढ कर ले आयी और कहाँ से एक मेंडक को माध्यम बनाकर और हास्य घोलकर ऐसी सुंदर रचना आपने लिखी , सर्वथा नयी सी लगी ,राजीव जी बहुत बहुत बधाई
पूजा अनिल
काहे मैढ़क की तारीफ मैं-ढक करूँ
जब कूऐं से बाहर वो आ ही गया
खुद का संसार उसने बड़ा कर लिया
अब तो क्षिति से गगन तक वो छा ही गया
गूँजने दो अब टर्र-टर्र की आवाज को
जलद-गर्जना ढोल के साज को
श्रवनों को अब करने दो श्रवन यह लय
हर आहट पर लो कान मैं रख करूँ
काहे मैढ़क की तारीफ मैं-ढक करूँ
मुझे हास्य नहीं दिखा रचना में :(
राजीव जी,
मेरे लिए रचना समझना आसान नही जान पङता | अनेक अर्थ आ रहे है मष्तिष्क मे |
गहरे भाव वाली यह रचना मुझे नवीन लग रही है | यदि समय मिले तो अंत मे कुछ भावार्थ देने का प्रयास करिएगा |
आपकी लेखनी उत्तम है |
-- अवनीश तिवारी
राजीव जी
जब बरसात में सुर मिले हैं तो बिना बोले कैसे रहा जाएगा ? अच्छा प्रतीक लिया है।
डा. रमा द्विवेदी said....
नवीन प्रतीकों एवं शब्द चित्रों से सजी यह रचना स्तरीय है....राजीव जी की सृजनशीलता को नमन...
राजीव जी,
आपने कहा कि हास्य है, लेकिन मुझे तो व्यंग्य में हास्य का बस थोड़ा-सा पुट नज़र आ रहा है। आप अपनी व्यंग्यात्मक शैली से बाहर नहीं आए अभी तक ;)।
सुंदर एवं नवीन बिंब प्रयोग किये गए हैं, बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
वाह वाह क्या बात है बहुत खूब
राजीव जी,आपने तो बिल्कुल अपना अंदाज ही बदल दिया.
इतना बेहतरीन कि जितना कहूँ उतना कम,लाजवाब
आलोक सिंह "साहिल"
राजीव जी!
अब भी कुछ कहने को रह गया है क्या? :)
बधाई, इस हास्य की चाशनी में लिपटे लयबद्ध व्यंग्य के लिये!
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)