प्रतियोगिता की कविताओं के प्रकाशन में आगे की तरफ बढ़ते हैं। २३वें पायदान के कवि आशुतोष मासूम यूनिकवि प्रतियोगिता में अक्सर ही भाग लेते रहते हैं। हाँलाकि, पाठक के रूप में बहुत कम सक्रिय हैं।
कविता- हाँ, मैं बलात्कारी हूँ
कवयिता -आशुतोष मासूम, बेंगलूरू
जो हर रोज,
अपनी कलम से,
अपने शब्दों से,
इस भ्रष्ट व्यवस्था,
का बलात्कार करता हूँ ।
पुलिस - भिखारी
नेता - लाइसेन्सी गुन्डा
बाल मजदूर - देश के भविष्य
आधुनिकता - अबला नारी
घूस - सफलता की सीढ़ी
वेश्या - समाज सेविका
ना जाने कितने खुद के शब्द बना डाले है
कमजोर हूँ तन से, कलम को ताकतवर बना डाला है,
हँ मैने इस भ्रष्ट व्यवस्था का बलात्कार कर डाला है।
राहों मे तड़पते इन्सान को उठा,
अस्पताल की शय्या पर छोड़,
कानूनी लम्बे पन्नों पर,
बेचारगी लिख आया हूँ,
फटे हुये कपड़ों से,
अर्धनग्न बदन को छिपाती,
उस अभागिन को,
छोटे कपड़ों में,
जिस्म दिखाती,
मार्डन से मिलवा कर,
दीवारों से पूछ आया,
अबला कौन???
नौकरी के लिये शर्त थी,
टेबल पर चंद हजार रुपये,
उसी टेबल पर मैंने खुद को,
आतंकवादी लिख आया हूँ।
मन्दिर में नमाज अदा,
मस्जिद में पूजा कर,
इंसानियत से,
खुदा-भगवान का,
परिचय पूछ आया हूँ।
हँ मै हूँ बलात्कारी,
जो समाज के उसूलों को,
इस नपुसंक समाज की तरह,
मानने से इन्कार कर देता हूँ,
जानता हूँ मेरे लिये भी,
सजा मुकर्रर होगी,
सात साल, शायद इस से भी ज्यादा,
पर मै कहता हूँ, अगर सजा देनी हो तो,
मुझे मौत देना,
तब शायद मेरी मौत की आहट से,
इस समाज की नपुसंकता उजागर हो।
निर्णायकों की नज़र में-
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक-८॰७५ , ६, ५॰७५
औसत अंक- ६॰८३३३
द्वितीय चरण के जजमैंट में मिले अंक-४, ६॰८३३ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ५॰४१६५
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7 कविताप्रेमियों का कहना है :
आषुतोष जी,
आपकी कविता बड़ी ही प्रभावकारी है । अच्छी कविता लिखने के लिए बधाई । पर सभी पंक्तियाँ तो ठीक समझ में आ रही हैं परन्तु “आधुनिकता - अबला नारी” और “फटे हुए कपड़ों से...” वाली कड़ी का आशय स्पष्ट रूप से समझने में थोड़ी परेशानी हो रही है, या यूँ कहें कि उस कड़ी का आशय ठीक से समझ में मुझे नहीं आया ।
शायद किसी और पाठक को अच्छे से समझ में आएगा तो वह स्पष्ट कर देगा ।
आषुतोष जी,आप ने सुन्दर शव्दो से सजाई हे अपनी कविता, लेकिन मेरी दिक्कत भी भाई दिवाकर मिश्र जेसी हे, हो सके तो थोडा विस्त्तार से सहमझ दे, आप की मेहरबानी होगी.
हमेशा से ऐसा ही कुछ लिखना चाहता हूँ,आपने निहित अर्थों को अच्छा तारतम्य दिया है.मैं अच्छी सोच से स्टार्ट देता हूँ पर आखिर में वो बस एक तुकबंदी रह जाती है.
खैर, जहाँ तक मैं "अबला कौन" वाली पंक्तियों का अर्थ समझ पाया हूँ कि ये generalisation की ओर इशारा है कि जब हम किसी समूह के सभी लोगों को एक ही चश्मे से देखते हैं....
उदाहरण के तौर पर.....आस्ट्रेलियन गुस्सैल हैं, अमरीकी रईस हैं,अफ्रीकी जंगली हैं,और भारतीय बुद्धिमान होते हैं....बस इसी तरह हमने नारी की एक ही अबला छवि अपने मन में बना रखी है कि:
नारी तेरी यही कहानी
आँचल में दूध
आँखों में पानी
और इसी लकीर को पीटते हुए हम पहचान करना भूल गए हैं कि "असली अबला कौन है"??हमने अपवाद की कोई जगह नहीं छोड़ी है.
उम्मीद है कि मैं बात को समझाने में भी सफल रहा हूँ.हाँ, समझने में कितना सफल रहा हूँ वो तो इस कविता के रचयिता ही बता सकते हैं.
कविता में आक्रोश साफ झलक रहा है.
कथ्य गंभीर भी है.
एक प्रभावी कविता है.
आशुतोष जी, जो आक्रोश आपने प्रकट किया है वो वाजिब है,
ओजपूर्ण और बेहद प्रभावकारी कविता के लिए दिल से साधुवाद.
कुछ साथियों को कविता समझने मे परेशानी हो रही है तो ये निहायत ही व्यक्तिगत विषय हो सकता है,अपनी बात करूँ तो ऐसा लग रहा है मानो आपने मेरे दिल मे उमड़ रहे ज्वार को दिशा दे दी है.
एक विशेष बात मैं कहना चाहूँगा की कविता का मतलब शायद इतना ही है की जिस उद्देश्य से वह लिखी गई है वो पूर्ण हो और मुझे ऐसा लगता है की आप आपने प्रयास मे सफल रहे हैं.
बहुत बहुत बधाई
आलोक सिंह "साहिल"
फटे हुये कपड़ों से,
अर्धनग्न बदन को छिपाती,
उस अभागिन को,
छोटे कपड़ों में,
जिस्म दिखाती,
मार्डन से मिलवा कर,
दीवारों से पूछ आया,
अबला कौन???
नौकरी के लिये शर्त थी,
टेबल पर चंद हजार रुपये,
उसी टेबल पर मैंने खुद को,
आतंकवादी लिख आया हूँ।
" बहुत मार्मिक चित्रण किया है शब्दों से , दिल को छु गई आपकी ये रचना
कवि का आक्रोश इतना बढ़ा है की कहीं कहीं कविता वक्री हो गयी है...
सुन्दर लेखन..
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