मित्रों नमस्कार। प्रस्तुत है स्थायी सदस्य के रूप में मेरी पहली कविता। देश जबकि गणतंत्र दिवस की तैयारियों में व्यस्त है ऐसे में इस रचना की प्रासंगिकता तो आप पाठकगण ही बता सकेंगे।
उठो वक्त की धार बदल दो
जंग लगी तलवार बदल दो
स्वयं संभालो नौका को
बदलो माँझी पतवार बदल दो
सिर्फ़ स्वप्न दे आँखों को
अब तक तुमको छला गया
उनके उदरपूर्ति हित में
साठ साल यों चला गया
मधुर धुनों के अभिलाषी ओ
वीणा का यह तार बदल दो
कोई वंचित दुखी जिए
कोई सुख का भागी हो
कैसे स्तुतिगान तब संभव
क्यों न लेखनी बागी हो ?
धूप इधर भी कुछ आए
जीर्ण-शीर्ण यह द्वार बदल दो
जंग लगी तलवार बदल दो
स्वयं संभालो नौका को
बदलो माँझी पतवार बदल दो
सिर्फ़ स्वप्न दे आँखों को
अब तक तुमको छला गया
उनके उदरपूर्ति हित में
साठ साल यों चला गया
मधुर धुनों के अभिलाषी ओ
वीणा का यह तार बदल दो
कोई वंचित दुखी जिए
कोई सुख का भागी हो
कैसे स्तुतिगान तब संभव
क्यों न लेखनी बागी हो ?
धूप इधर भी कुछ आए
जीर्ण-शीर्ण यह द्वार बदल दो
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17 कविताप्रेमियों का कहना है :
कोई वंचित दुखी जिए
कोई सुख का भागी हो
कैसे स्तुतिगान तब संभव
क्यों न लेखनी बागी हो ?
-बिल्कुल सहमत हैं आप के विचारों से.
-कविता की हर पंक्ति में वज़न है.
-जोश का संचार करती हुई कविता आसानी से याद हो जाने वाली रचना है.
आपका स्वागत होना चाहिए क्योंकि आपमें कविता के बीज हैं. हाँ, किसी के सिखाने से कविता उसी तरह नहीं आती जैसे अपने मरे बिना स्वर्ग-नरक की तसल्ली नहीं हो सकती.
कविता सचमुच एक अच्छी प्रक्रिया है ध्यान वगैरह में जाने से बेहतर. .... शर्त्त ये है कि आप कविता के प्रति ईमानदार हों, वह भी अपनी कविता के प्रति.
क्रिस्टोफर कोडवेल ने कहा है कि एक हज़ार पन्ने पढ़ो तब एक पंक्ति लिखो. मैं मशविरा दूँगा कि एक लाख पन्ने पढ़ो तब एक शब्द लिखो. हालांकि मेरी बात तभी समझ में आयेगी जब कुछ दिन इस पर अमल करोगे.
वैसे कविता का कंटेंट तय करने के लिए फ़िराक साहब ने सबक के तौर पर एक बहुत बढ़िया बात कही है मेरे हिन्दी के सुवन-
'ज़माना वारदात-ए-क़ल्ब सुनने को तरसता है
इसी से तो सर-आँखों पर मिरा दीवान लेते हैं.'
यह उसी ग़ज़ल का शेर है जिसका मत्तला है -
'बहुत पहले से उन कदमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ऐ जिंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं.'
तारीफों से जितना बचोगे उतना रचोगे.
पता नहीं मैं ये सब क्यूं लिख रहा हूँ. शायद ज़ोम में!
धूमिल की पंक्तियाँ ठीक-ठीक याद नहीं आ रही हैं फिर भी उन्होंने कुछ यों कहा है-
'तुमने कहा है कि 'तीक है तीक है'
तुम्हारी वाह-वाह से ज्यादा पान की पीक है.'
शेष शुभ!
-तुम्हारा अग्रज
विजयशंकर
bahut sundar,aaj ke jamane mein jang lagi talwaar ko badal dena chahiye.badhai gantantra divas ki aur sthayi kavi ke liye bhi.
कविता अच्छी लगी और प्रेरणादायीभी .....
काफी कुछ बदलना है ,परन्तु सबसे पहले स्वयं को !
विद्याशंकरजी, बहुत-बहुत धन्यवाद ! आपकी समीक्षा खूब सीख दे गईं ....
सतीश वाघमारे
विजयशंकर जी ,
क्षमा चाहूंगा , हडबडी में आपको ग़लत नामसे संबोधित किया !
सादर,
सतीश वाघमारे
रविकांत जी,
गणतंत्र दिवस के अवसर पर आपने यथोचित रचना प्रस्तुत की है। आपके शब्दों में जोश और जुनून फूट-फूटकर भरा है।
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
रवि जी
बहुत ही अच्छा लिखा है आपने . आज के दिन तो इसका प्रभाव और भी अधिक बढ़ गया है -
कोई वंचित दुखी जिए
कोई सुख का भागी हो
कैसे स्तुतिगान तब संभव
क्यों न लेखनी बागी हो ?
धूप इधर भी कुछ आए
जीर्ण-शीर्ण यह द्वार बदल दो
बधाई
ravi kant ji swagat, aapka, gantart diwas ki shubhkaamnaaon ke saath
उठो वक्त की धार बदल दो
जंग लगी तलवार बदल दो
स्वयं संभालो नौका को
बदलो माँझी पतवार बदल दो
se laga ki apme badi sambhavanayen hai.
मधुर धुन के अभिलाषी ओ
mein dhun ke jagah par "dhuno" kar dijiye. Lay me ek maatra kam hai
कैसे स्तुतिगान तब संभव
mein lay ke hisab se jyada maatrayen hain.
धूप इधर भी कुछ आए
जीर्ण-शीर्ण यह द्वार बदल दो
mein arth ka virodh hai, naya dvar dhup ko kaise aane dega? jabtak dwar hai , dhup kaise aa sakti hai chahe wah naya ho ya purana.
main is pankti ka uddeshya smajh sakta hoon par ye dono panktiya ek sath sahi nahi hain.
अल्पना जी, विजयशंकर जी,महक जी, सतीश जी, तन्हा जी, शोभा जी, सजीव जी एवं आलोक जी, आप सभी का हृदय से आभारी हुँ जिन्होने रचना को पढ़ा, समझा और सुझाव भी दिए।
विजयशंकर जी, आपकी सीख लाभकारी है और उम्मीद करता हुँ कि भविष्य में भी इसी तरह स्नेह बनाए रखेंगे।
आलोक जी,
आपने त्रुटियों की तरफ़ ध्यान आकर्षित किया, शुक्रिया। जहाँ तक धूप और द्वार का संबंध है, वो मैने प्रतीकात्मक रूप में प्रयोग किया है। क्योंकि ऐसे द्वार हैं जो धूप आने का दावा करते हैं और जैसा की आपने कहा जब तक द्वार है धूप कैसे आयेगी? धूप इसलिए नही आ पाती है क्योंकि सदियो-सदियों से बंद यह द्वार कभी खुलता नही(और खुल न सके ऐसा कुछ लोग चाहते हैं)। इसलिए इस द्वार को मैने जीर्ण-शीर्ण बताया है। तो दो ही रास्ते हैं-या तो इस दावे को बदल दिया जाए या ऐसे द्वार खोजे जाएँ जो खुल सकें और धूप आ सके। तो मेरा मानना है कि द्वार ऐसा होना चाहिए जो समय के हिसाब से बंद भी हो सके और खुल भी सके।
सिर्फ़ स्वप्न दे आँखों को
अब तक तुमको छला गया
बहुत बहुत स्वागत रवि जी आपका यहाँ पर .सुंदर लगी आपकी यह रचना !!
जो भी कहना चाहता था , अलोक भाई ने पहले ही कह दिया वो भी गहन विस्तार के साथ , मुझे तो ज्यदा मात्रा वात्रा का पता नही चलता लेकिन कहीं नही कहीं "स्तुतिगान" से प्रवाह अटक रहा था | अलोक शंकर ने बहुत अच्छी टिपण्णी दी तो विजय शंकर साहब की टिपण्णी में "तारीफों से जितना बचोगे उतना रचोगे" पढे के दिल ही खुश हो गया |
बहुत अच्छा प्रयास है |
दिव्य प्रकाश
उठो वक्त की धार बदल दो
जंग लगी तलवार बदल दो
स्वयं संभालो नौका को
बदलो माँझी पतवार बदल दो
रविकांत जी बिल्कुल ही प्रासंगिक रचना है,गजब का ओज है कविता मे मजा आ गया. और स्थायी सदस्य के तौर पर आपका स्वागत है.
आलोक सिंह "साहिल"
सिर्फ़ स्वप्न दे आँखों को
अब तक तुमको छला गया
उनके उदरपूर्ति हित में
साठ साल यों चला गया
मधुर धुनों के अभिलाषी ओ
वीणा का यह तार बदल दो
सुंदर लगी आपकी यह रचना !!
Regards
जोशीली कविता, और आपका भी हिन्द-युग्म जोश के साथ स्वागत करता है....
अच्छा लगा आपको पढ़कर
प्रेरणादायी .....
आपका कहना सही है काफी कुछ बदलना है ,पर जब तक स्वयं को नही बदलेंगे कुछ नही होगा !
सब को गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं
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